गांव की इतनी बड़ी हवेली, एक व्यक्ति के जाने से ही
सूनी-सूनी सी लगने लगी थी. सब चुप थे. कोई किसी से बात करने का इच्छुक नहीं था. ये
जाना यदि बिना किसी वजह से होता, तो परिवार ऐसा शोकाकुल न होता. पर ये जाना हुआ था
किसी झूठे लांछन के तहत...... सूनापन तो भरना ही था. छोटी काकी बिल्कुल गुमसुम सी
अपने कमरे में पड़ी थीं. रमा का मन आज डला भर रोटियां सेंकने का नहीं था. बड़के दादा
जी पहले ही भूख न होने का ऐलान कर चुके
थे. सबसे अधिक दु:खी तो दादा जी ही थे. उन्हीं ने तो सुमित्रा पर इल्ज़ाम लगाये थे,
अपने मुंह से. भले ही वे बताये किसी और ने थे पर सुनाने के लिये तो उन्हीं का
मुखारबिंद इस्तेमाल हुआ था. सुमित्रा की आंखों से झरते आंसू भी याद हैं उन्हें जो
घूंघट की सीमा तोड़ के नीचे, गोबर लिपे फ़र्श पर गिर के अपना निशान बनाते चल रहे
थे. आज दोपहर बाद दादाजी बैठक में अपनी आराम कुर्सी पर ही लेटे
रहे. अपने कमरे में नहीं गये. पता नहीं क्यों, कुन्ती का सामना नहीं करना चाहते थे
वे. कुन्ती से अधिक, उन्हें खुद पर क्रोध था. कैसे वे ये सब न समझ पाये? कैसे
कुन्ती की बात मानते चले गये? सुमित्रा को तो जानते थे वे पिछले दो साल से. इतनी
सुशील लड़की पर कैसे आरोप लगा पाये वे!!!!! खुद को धिक्कारते-धिक्कारते दिन बीतने
थे अब, क्योंकि जो हुआ, वो नासूर बन के तक़लीफ़ देगा ही. पिंड छूटेगा नहीं, वे चाहे
जितना चाहें. चाहेंगे भी कैसे? आखिर खुद ही सामने से सुमित्रा पर चोरी के आरोप
लगाये थे!!! उफ़्फ़!!!! क्या सोचती होगी वो स्वाभिमानी लड़की??? आज उन्हें अपनी पहली
पत्नी भी बहुत याद आ रही थीं. कितनी शान्त-शालीन थी सुशीला....! लगभग सुमित्रा
जैसी ही. दोनों में प्यार भी बहुत था. शादी के बाद जब तक सुशीला ज़िन्दा थी,
सुमित्रा की चोटी वही किया करती थी, बिल्कुल मां की तरह. सुशीला के साथ का अनुभव
इतना अच्छा था कि वे समझ ही न पाये कि दुनिया में कोई स्त्री इतनी खुराफ़ाती भी हो
सकती है!! पूरे खानदान में ऐसी कोई महिला
न थी तो तिवारी जी सोच भी कैसे पाते? फिर ये तो सुमित्रा की बहन थी.... कहां
सुमित्रा और कहां कुन्ती!!!!
उधर कुन्ती भी तिलमिलाई सी घूम रही थी. कहीं चैन न पड़ रहा
था. कमरे में झटपट करती घूमती रही. चैन न पड़ा तो अटारी से लगी छत पे आ गयी. यहां
भी मन न लगा तो पीछे बगिया में चली गयी. इतना सब भांडा फूटने के बाद भी उसके चेहरे
पर मलाल की रेखा तक न थी. बल्कि कोई बिगाड़ न कर पाने का अफ़सोस ज़रूर चेहरे से झांक
रहा था. छोटी काकी के कमरे में झांकने गयी, तो उन्होंने उसे टके सा फेर दिया ये
कहते हुए, कि ’रानी अभी कोई बात न करना.’
बैठक में दादाजी को देखने गयी तो वे आंखें बन्द किये आराम
कुर्सी पर बैठे थे. आहट पा के भी उन्होंने आंखें नहीं खोलीं, तो कुन्ती कब तक
इंतज़ार करती? जानती थी कि वे जानबूझ के आंखें बन्द किये हैं , खोलेंगे भी नहीं.
जाग रहे हैं, ये उनकी झूलती कुर्सी बता रही थी. उधर से भी मायूस हो लौटती कुन्ती
को रमा का खयाल आया, लेकिन उसके कमरे तक जाने की उसकी हिम्मत ही न पड़ी.
कितनी ही खुराफ़ात कर ले, अन्तत: थी तो पांडे जी की लड़की.
कुछ तो शर्मिन्दगी आयेगी ही ग़लत काम करने पर. फिर रमा, जो कि पदवी में उनसे काफ़ी
छोटी थी, यदि उन्हें पलट के कुछ कह दे तो? सो अपनी इज़्ज़त बचाने की चिन्ता ज़्यादा
थी कुन्ती को, इस वक़्त. बड़ा अजब हाल था....! एक तो सुमित्रा की इस बड़े से कुनबे से
आज़ादी, उस पर कोई बात भी न कर रहा था उससे....! ऐसे तो न चल पायेगा कुन्ती.
तुम्हारा भभका बना रहना चाहिये बैन....! कुन्ती की अन्तरात्मा उसे बार-बार उकसा
रही थी किसी नये गुड़तान के लिये. वैसे भी सबका ध्यान आकर्षैत करने के लिये कुछ न
कुछ तो करना ही पड़ेगा. इसी उधेड़बुन में कुन्ती वापस अपनी अटारी में आ गयी और मुंह
ढांप के लेट गयी.
शाम को रमा और कौशल्या, रमा से छोटी बहू, जिसने अब सुमित्रा
की ड्यूटी सम्भाली थी, दोनों ने मिल के सबके लिये चाय बनाई. चाय लेने सब रसोई तक
खुद ही आते थे, बस बड़के दादाजी की चाय बैठक में पहुंचाई जाती थी. छोटी काकी भी
रसोई के आगे वाले छोटी छत पर बैठ के ही चाय पीती थीं. दादाजी की चाय भिजवा दी गयी,
सभी देवर, लड़के-बच्चे अपनी चाय ले गये. कुन्ती की सारी सगी-चचेरी देवरानियां बैठी
थीं, कि बड़की जीजी आयें, अपनी चाय लें तो फिर सबको दे दी जाये. लेकिन बड़की जीजी
यानी कुन्ती के तो आज दर्शन ही न हो रहे थे. चाय से निपटतीं, तो शाम की आरती की
तैयारी करतीं सब. चाय की चहास ज़ोर मार रही थी और जीजी आ ही नहीं रही.....!
’कौशल्या, जाओ रानी तुम देख के आओ तो बड़की दुलहिन काय नईं
आईं अबै लौ.’ छोटी काकी अब चिन्तित दिखाई दीं. हांलांकि नहीं आने का कारण सब समझ
रहे थे, फिर भी उन्हें आना तो चाहिये था न! रमा ने चाय का पतीला दोबारा चूल्हे पे
चढा दिया, गर्म करने के लिये. एक तो वैसे ही चूल्हे की चाय, उस पर बार-बार गरम हो
तो चाय की जगह काढ़े का स्वाद आने लगता है. रमा पतीला नीचे उतारे, उसके पहले ही
सामने की अटारी से कौशल्या बदहवास सी, एक सांस में सामने की अटारी की सीढ़ियां
उतरती, और रसोई की सीढ़ियां चढ़ती, दौड़ती आई. ’छोटी काकी, रमा जीजी बड़की जीजी कछु
बोल नहीं रहीं.’
सब दौड़े. बड़के
दादाजी तक खबर पहुंचाई गयी. रमा ने कुन्ती के मुंह पर पानी के छींटे मारे. कौशल्या
ने तलवे मले जब जा के कुन्ती को होश आया. होश आते ही बुक्का फ़ाड़ के रोने लगी...
’हाय रे मेरी कुमति... बुलाओ सुमित्रा को हमें माफ़ी मांगनी है... बुलाओ जल्दी..’
सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे. ’कोई नहीं बुलायेगा छोटी बहू को’ बड़के दादाजी की
आवाज़ गूंजी.
’जितनी नाटक-नौटंकी होनी है, सब यहीं होगी. किसी को कोई खबर
नहीं हो पाये. जाओ सब अपना-अपना काम देखो. कुछ नहीं हुआ इसे.’ सब जैसे आईं थीं,
लौट गयीं अपना-अपना काम देखने. कुन्ती को काटो तो खून नहीं.
उधर ग्वालियर पहुंच के सुमित्रा को समझ में ही न आये कि
क्या करे, कैसे करे. राम-राम करते उसने नयी गृहस्थी जमाई. तिवारी जी सुबह से अपने
स्कूल जाते, रह जाती अकेली सुमित्रा और तीन बच्चे. बच्चे भी उन सबको याद करते रहते
जिनके सहारे उनका जीवन चलता था. यहां न खेलने को कुछ, न दौड़ने भागने को
खेत-खलिहान. खैर.... जीवन चल निकला था जैसे-तैसे. तिवारी जी ने यहां आने के बाद
पहला काम किया सुमित्रा का इंटर का फ़ॉर्म भरवाने का. पढ़ने लिखने की शौकीन सुमित्रा
जी अब अपनी किताबों में व्यस्त हो गयीं. साल निकल गया त्यौहारों पर गांव जाते और
पढ़ाई करते. इंटर की परीक्षा सुमित्रा ने ठीक-ठाक नम्बरों में पास कर ली तो तिवारी
ने बी.ए. का फ़ॉर्म भरवा दिया. साथ ही बीटीसी का फ़ॉर्म भी भरवाया. ये सारे काम बड़के
दादाजी की सलाह पर हो रहे थे. उनक कहना था कि बहू को आगे पढ़ाओ और नौकरी करने दो.
आगे समय कैसा होगा पता नहीं. तब बीटीसी (बुनियादी प्रशिक्षण) एक साल का होता था और
उसके बाद सरकारी मास्टरी पक्की! सीधे अपॉइन्टमेंट होता था. ये एक साल कब निकल गया,
पता ही नहीं चला सुमित्रा जी को. उनका जीवन भी अब तमाम गुड़तानों के बिना, सीधा-सहज
चल निकला था. शुरु-शुरु में बार-बार घरवालों की याद आती थी, गांव जाने की हूक उठती
थी, फिर धीरे-धीरे गांव जाने की हूक कम होती गयी, याद बाकी रह गयी.बच्चे भी शहर के
स्कूलों में पढ़ने लगे थे. बार-बार गांव जाना अब वैसे भी सम्भव न था. हां , तिवारी जी
ज़रूर हर पन्द्रह दिन में एक चक्कर गांव का लगा आते थे.
उधर, सुमित्रा के बीटीसी करने की खबर ने कुन्ती को जैसे चंडी
ही बना दिया. दनदनाती हुई बैठक में पहुंची, जहां बड़के दादाजी कुछ लोगों के साथ बैठे
थे. कुन्ती ने न लोगों की परवाह की, न दादाजी की. सीधे बोली-
“मुझे आपसे कुछ ज़रूरी
बात करनी है. या तो आप भीतर आयें, या फिर आप सब तशरीफ़ ले जायें’
हक्के-बक्के से बैठकियों ने दूसरा ऑप्शन चुनने में ही ख़ैरियत
समझी, और सिर झुकाये, कुन्ती की बगल से होते हुए बाहर चले गये.