“सुनिये, वो
कुंती आयेगी एकाध दिन में...!” कहते हुए सकुचा गयीं सुमित्रा जी.
“कौन, कुंती
भाभी? हां तो आने दो न. उन्हें कौन रोक पाया है आने से? अरे हां, तुम अपनी चोटी,
साड़ियां, और भी तमाम चीज़ों का ज़रा खयाल रखना ” होंठों की कोरों में मुस्कुराते हुए
तिवारी जी बोले. “सब चीज़ों का खयाल रखने पर भी तो कुछ न कुछ हो ही जाता है....!”
अपने आप में बुदबुदाईं सुमित्रा जी.
वैसे मुझे
मालूम है कि आप कहां अटके हैं. “कुंती भाभी” इस सम्बोधन में न? सोच रहे होंगे कि
सुमित्रा की बहन को तिवारी जी भाभी क्यों कह रहे? लेकिन भाई, हम कुछ न बतायेंगे
अभी. देखिये न सुमित्रा जी खुद ही अतीत की गलियों में पहुंच गयीं हैं.
तिवारी जी के ’चोटी’ का खयाल रखने को कहते ही सुमित्रा जी कहां से कहां पहुंच गयीं
थीं. कुंती के आने की ख़बर पर तिवारी जी चोटी की याद ज़रूर दिला देते हैं. तब
सुमित्रा जी की शादी हुए एक साल भी नहीं हुआ था. शादी तो उनकी चौदह बरस में हो गयी
थी, लेकिन पांडे जी ने विदाई से साफ़ इंकार कर दिया था. बोले कि जब तक लड़की सोलह
साल की नहीं हो जाती, तब तक हम गौना नहीं करेंगे. इस प्रकार सुमित्रा जी, बचपन की
कच्ची उमर में ससुराल जाने से बच गयीं. तो सुमित्रा जी की शादी हुए अभी एक बरस ही
बीता होगा. पन्द्रहवें में लगीं सुमित्रा जी ग़ज़ब लावण्या दिखाई देने लगी थीं. देह
अब भरने लगी थी. सुडौल काया, कमनीय होने लगी थी. खूब गोरी बाहें अब सुडौल हो गयीं
थीं. घनी पलकें और घनी हो गयीं थीं. हंसतीं तो पूरा चेहरा पहले गुलाबी फिर लाल हो
जाता. सफ़ेद दांत ऐसे चमकने लगते जैसे टूथपेस्ट कम्पनी का विज्ञापन हो. कमर से एक
हाथ नीची चोटी चलते समय ऐसे लहराती जैसे नागिन हो. लेकिन सुमित्रा जी जैसे अपने इस
अतुलनीय सौंदर्य से एकदम बेखबर थीं. अम्मा तेल डाल के कस के दो चोटियां बना देतीं,
वे बनवा लेतीं. वहीं कुंती तेल की शीशी उड़ेल के भाग जाती...........
सर्दियों की दोपहर थी वो. सुमित्रा जी
का गौना नहीं हुआ था तब. आंगन में अपनी छोटी खटिया आधी धूप, आधी छाया में कर के
बरामदे की ओर बिछाये थीं और मगन हो, अम्मा द्वारा दी गयी -’स्त्री-सुबोधिनी’ पढ़
रही थीं. बड़के दादा बरामदे में बैठे अपना कुछ काम कर रहे थे. दादा ऐसे बैठे थे कि
उन्हें तो सुमित्रा दिख रही थी, लेकिन सुमित्रा को, बीच में आये मोटे खम्भे के
कारण दादा नहीं दिख सकते थे. दादा को किताब में डूबा देख के, वहीं बैठी कुंती धीरे
से तख़्त पर से उतरी और घुमावदार बरामदे की दूसरी ओर से सुमित्रा जी की खटिया के
पास पहुंच गयी. उसने देखा, किताब पढ़ते-पढ़ते सुमित्रा की नींद लग गयी है. सर्दियों
की धूप वैसे भी शरीर में आलस भर देती है. कुंती, सुमित्रा के सिरहाने पहुंची. तभी दादा की निगाह भी उस ओर गयी,
जहां सुमित्रा लेटी थी. अवाक दादा चिल्लाते, उसके पहले ही कुंती ने वहीं कोने में
रखी पौधे छांटने वाली कैंची से सुमित्रा की आधी चोटी काट डाली थी. वो पहला दिन था,
जब बड़के दादा ने कुंती को खींच-खींच के दो थप्पड़ जड़े थे, और अम्मा कुछ नहीं बोलीं
थीं. महीनों रोती रही थीं सुमित्रा जी, अकेले में. लेकिन तब भी उन्होंने कुंती से
कुछ नहीं कहा था.
सुमित्रा जी का जब गौना हुआ, तब उसके बाद ससुराल से तीन महीने बाद ही आ पाईं.
तिवारी खानदान इतना बड़ा था कि इतना समय उन्हें पूरे परिवार के न्यौते पर यहां-वहां
जाते ही बीत गया. फिर नई बहू का शौक़! इस बीच सब सुमित्रा जी के भोलेपन को जान गये
थे. उनके सच्चे मन को भी. सुमित्रा जी के घर का माहौल पढ़े-लिखे लोगों का था, जबकि
तिवारी के परिवार में अधिकांश महिलायें बहुत कम या बिल्कुल भी नहीं पढ़ी थीं. सो
सुमित्रा जी का पढ़ा-लिखा होना यहां के लिये अजूबा था. इज़्ज़त की बात तो थी ही.
सगी-चचेरी सब तरह की सासें अपनी इस नई दुल्हिन से रामायण सुनने के मंसूबे बांधने
लगीं. सुमित्रा जी की ससुराल का रहन-सहन भी उतना परिष्कृत नहीं था जितना सुमित्रा
जी के घर का था. ये वो ज़माना था, जब दोमंज़िला मकान भी कच्चा ही हुआ करता था. घर तो
खूब बड़ा था तिवारी जी का. सभी सगे-चचेरे एक साथ रहते थे. हां उन सबका हिस्सा-बांट
हो गया था सो उसी घर के अलग-अलग हिस्सों में अपनी-अपनी गृहस्थी बसा ली थी सबने.
तीन बड़े-बड़े आंगनों वाला घर था ये जिस का विशालकाय मुख्य द्वार पीतल की नक़्क़ाशी
वाला था. खूब खेती थी. हर तरह का अनाज पैदा होता था, लेकिन रहने का सलीका नहीं था.
हां, सुमित्रा जी के बड़े जेठ बहुत पढ़े-लिखे थे. स्वभाव से भी एकदम हीरा आदमी. घर
में उनकी ही सबसे अधिक चलती थी. परिवार के बड़े जो ठहरे. सगे-चचेरे सब मिला के चौदह
भाई और तीन बहनें थे तिवारी जी.
(क्रमश:)
अच्छा तो कुंती की शादी तुमने सुमित्रा जी के जेठ से कर दी.. है न ?
जवाब देंहटाएंअरे! तुम तो पोल खोलने लगीं!! ग़ज़ब अनुमान लगाया रे!!
हटाएंअरे...... स्त्री सुबोधिनी मेरे पास है माँ से मिली
जवाब देंहटाएंसुमित्रा ढल गई ननननन ...जल्दी बताइएगा
ये सुमित्रा कहीं तुम तो नहीं संगीता?
हटाएंअर्रे स्त्री सुबोधिनी मेरे पास भी है 🤔🤔 माँ की...
जवाब देंहटाएंकहीं सुमित्रा के जेठ उसे जिम्मेदारी तो न दे रहे ......
बस बताते हैं कल।
हटाएंजिज्जी! आज मज़ाक नहीं करूँगा... बचपन की गलियों में धकेल दिया है आपने और अपना बड़ा सा कच्चा घर और एक पूरा कुनबा याद आ गया! कुंती पर गुस्सा भी आ रहा है, लेकिन आप मेरी जिज्जी हैं इसलिए समझ रहा हूँ कि गुस्सा बचाए रखने की ज़रूरत है, शायद आगे परखना पड़े!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चल रही है कहानी और बीच बीवः में आपकी उपस्थिति... कहानी का सूत्र भटकने नहीं देती!
दिल खुश हो गया!
और तुम्हारे इस कमेंट ने हमारा दिल खुश कर दिया सलिल। खुशी इस बात की है कि सब इस कहानी से खुद को जुड़ा पा रहे। उम्मीद है आगे भी कहानी निराश नहीं करेगी।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंमैं ऐसा एक घर गाँव में देख कर आ रही हूँ। पूजा में गई थी। बहुत विशाल घर है ,पर कच्चा सा।अभी तो पाँच भाई और तीन बहनें रहती हैं पर आगे यही होना है।
जवाब देंहटाएंसुमित्रा कुछ ज्यादा ही उदार है,इसीलिए कुंती ज्यादा ही शैतान।याब अगला भाग पढ़ते हैं।
कहानी भले ही काल्पनिक हो, ये घर काल्पनिक नहीं है :) पढ़ो अब आगे.
हटाएंरोचकता बनी हुई है।
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया जी 😊
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