बुधवार, 29 मई 2013

सब तुम्हारे कारण हुआ पापा............

" How will you calculate the atomic mass of chlorine? "
"-------------------------------------------------------"
" नहीं  जानते ? "
---------------------------------------------
" A bus starting from rest moves with a uniform acceleration of 0.1ms-2 for 2 minutes , find the speed acquired , and the distance travelled.."
"-------------------------------------------------"
" जल्दी सॉल्व करो इसे."
................................................
" अरे! क्या हुआ? नहीं बनता? "
"..............................................."


" हद है! न कैमिस्ट्री न फिजिक्स ! कॉपी पर आड़ी टेढ़ी लाइनें खींचने से कुछ नहीं होगा . पढ़ाई में मन लगाओ वर्ना फेल हो जाओगे."
ज़रुरत से ज्यादा तेज़ आवाज़ हो गयी थी अविनाश की.
"पढ़ता तो रहता है बेचारा. तुम तो फालतू में ही चिल्लाने लगते हो."
बेटे के चेहरे की निरीहता बर्दाश्त नहीं हुई थी मालती से.
" पढता रहता है? अच्छा? तभी सारे विषयों में इतना अच्छा कर पा रहा है?  दो सड़े से सवाल पूछे, नहीं कर पाया. ये बात-बात पर पक्ष लेने के कारण भी सुधर नहीं पा रहे साहबजादे. जब मैं कुछ बोलूं, तो तुम चुप रहा करो.ढाल की तरह सामने मत आया करो. पढता तो रहता है, हुंह...."
कट कर रह गयी मालती. एक तो कभी पढ़ाते नहीं, उस पर अगर कहे-कहे पढ़ाने बैठ भी गए तो पता नहीं कहाँ -कहाँ के सवाल पूछने लगते हैं ! प्यार से पढ़ाना तो आता ही नहीं . वकील की तरह जिरह करने लगते हैं.
                        अविनाश भी कहाँ डांटना चाहता है? लेकिन पता नहीं कैसे डांटने लगता है? जबकि निरुत्तर बैठे गुड्डू की जगह हमेशा वो खुद को पाता है.
ठीक यही उम्र रही होगी  अविनाश की. नौवीं कक्षा में पढ़ता था, गुड्डू की ही तरह. पुराने ज़माने के कड़क पिताओं की तरह उसके पिता भी बहुत कड़क थे. हफ्ते में एकाध बार पढ़ाने ज़रूर बैठते थे, ख़ासतौर से रविवार को. संयुक्त परिवार था, सो सगे-चचेरे सब मिला के छह-सात भाई बहन पढ़ने बैठते. इतनी बड़ी क्लास के बच्चों की पढ़ाई पिता जी पहाड़े से शुरू करते.हद है! छटवीं से ले के ग्यारहवीं तक के बच्चे बैठे हैं, और पढ़ाई शुरू हो रही है पहाड़े से!! 
सबसे ज्यादा लानत-मलामत अविनाश की ही होती थी, क्योंकि उसे पहाड़े कभी याद नहीं होते थे. लिखते समय तो गिन-गिन के, गुणा करके लिख लिए, लेकिन पिताजी भी कम नहीं थे. जांचते समय वे १३, १८ और १९ का पहाड़ा ज़रूर सुनते थे. नहीं बनने पर कान खिंचाई. कान खिंचने की तक़लीफ़ से ज्यादा  तकलीफदेह उनकी बातें होतीं थीं. कान खींचना तो केवल भाई देखते थे, जबकि उनकी फटकार पूरे घर में सुनाई देती थी. वे डांटते कम थे, अपमानित ज्यादा करते थे.
औसत बुद्धि का था अविनाश. बहुत बढ़िया तो नहीं, पर ठीक-ठाक नंबरों से पास हो जाता था. फेल कभी नहीं हुआ.
ठीक उसी तरह गुड्डू है. औसत बुद्धि का है. परीक्षा के समय ही कायदे से पढ़ने बैठता है. बाकी पूरे साल पढने तो बैठता है, लेकिन पढता नहीं है. बस होमवर्क किया, और हो गयी पढ़ाई. जुट के पढ़ते देखा ही  नहीं कभी उसे. मन ही नहीं लगता उसका . उसके यार-दोस्त भी उसी के  जैसे मिल गए हैं.  शाम चार बजे से ही क्रिकेट का बल्ला लिए गेट के आस-पास घूमने लगते हैं. 
अविनाश के पिताजी हमेशा उसकी तुलना दूसरे लड़कों से करके उसे नीचा दिखाते रहते थे. शायद इसीलिये अविनाश ने कभी  गुड्डू की तुलना  दूसरे लड़कों से नहीं की. इस अपमान के दंश को खूब जानता है अविनाश. न. गलती से भी तुलना नहीं करता. बुरा तो उसे मालती का टोकना भी नहीं लगता. बल्कि चाहता है कि अगर वो गुड्डू पर बरसे, तो मालती खड़ी दिखाई दे गुड्डू के पक्ष में. ऐसा न हो कि उसकी माँ की तरह मालती भी सहम के पीछे खड़ी रहे.... जब पिताजी अविनाश पर गालियों की बौछार कर रहे होते थे,  तब अविनाश ने कितना चाहा कि उसकी माँ, उसका पक्ष ले, उसे बचा ले, लेकिन अविनाश के हिटलरी पिता का आतंक तो सब पर था। माँ चाह कर भी उसका पक्ष नहीं ले पाती थी। चाहती ज़रूर होगी , ऐसा अविनाश को  लगता है।
                                                       " सुनो, आज गुड्डू का रिज़ल्ट मिलेगा, तुम जाओगे लेने या मैं जाऊं? "
" तुम ही चली जाना मुझे शायद टाइम न मिले।"
राहत की सांस ली मालती ने। चाहती तो यही थी मालती कि रिज़ल्ट लेने अविनाश न जाएँ। क्या पता कम नंबर देख के वहीं भड़क गए लडके से डांट-डपट करने लगे? कोई  ठिकाना है क्या? लेकिन अब अविनाश को आड़े हाथों लेने का मौक़ा क्यों गँवाए ?
" तुम और तुम्हारा काम! दुनिया में जैसे और कोई  काम ही नहीं करता! सब नौकरी भी करते हैं और बच्चों का भी पूरा ध्यान रखते हैं। देखना, आधे से ज़्यादा जेंट्स ही आयेंगे वहां।"
लो! मन की भी हो गयी और चार बातें भी सूना दीं  :)
" ठीक है-ठीक है भाई मैं ही चला जाउंगा तुम रहने दो।"
अयं! ये क्या हो गया?
" न . रहने दो। जैसे अभी तक जाती रही हूँ, वैसे ही आज भी चली जाउंगी। तुम करो अपनी नौकरी।"
हँसी आ गयी अविनाश को।जानता है, मालती के मन में क्या चल रहा है। उसे जाने भी नहीं देना चाहती, और आरोप भी लगा रही है। मालती के झूठे   क्रोध को उससे बेहतर कौन जानेगा भला?
 इस बार B ग्रेड मिला था गुड्डू को। चलो ठीक ही है। 
" पापा , किताबें आज ही दिलवा दीजियेगा वरना  मिलेंगीं नहीं।" 
अपने ग्रेड से गुड्डू अतिरिक्त उत्साहित था। लग रहा था, जैसे बस अभी ही पढ़ाई शुरू कर देगा। 
शाम को अविनाश किताबें ले भी आये।
" पापा केवल टैक्स्ट बुक्स से कुछ नहीं होगा 40% बाहर से आता है। सभी सबजेक्ट्स की रिफरेन्स बुक्स, गाइड, और आर.के. शर्मा वाली मैथ्स की बुक भी चाहिए"
" ठीक है ले आऊंगा अभी इन्हें पढना शुरू करो।"
अगले दिन  अविनाश बुक-स्टॉल पर गया सारी किताबें देखीं इतनी सारी अतिरिक्त किताबें?? एक-एक यूनिट के सौ-डेढ़ सौ अतिरिक्त प्रश्न!! कैसे पढ़ पायेगा गुड्डू? अविनाश उसकी बौद्धिक क्षमता जानता है। लेकिन बच्चे को ये कहा भी तो नहीं जा सकता कि वो इतना सब नहीं पढ़ पायेगा .... देखूंगा बाद में. कुछ किताबें खरीद ली थीं, लेकिन अधिकांश छोड़ दी थीं अविनाश ने. गुड्डू से कह दिया कि एकाध महीने बाद सभी रिफ़ेरेंस बुक्स ला देगा.
गुड्डू को भी जैसे मुक्ति मिली. पहले ही इतनी किताबें देख-देख के हालत खराब हो रही थी.
शुरु में कुछ तेज़, और बाद में अपने ढर्रे पर चलने लगी उसकी पढाई. हां, बीच-बीच में पूरी गम्भीरता के साथ  अविनाश को याद दिला देता कि किताबें लानी हैं. अविनाश भी उसी गम्भीरता से किताबें लाने का वादा कर देता. 
अब जब परीक्षाओं को केवल दो महीने रह गये तो गुड्डू ने भी जल्दी-जल्दी याद दिलाना शुरु कर दिया, वो भी इस उलाहने के साथ, कि पूरा साल निकाल दिया पापा आपने!  कम से कम अभी ही रिफ़रेंस बुक ला दो. अब वैसे लाने से भी क्या फ़ायदा? कुछ याद तो करने से रहा. कब से कह रहा हूं आपसे फिर नम्बर कम आयेंगे तो आप ही गुस्सा करेंगे. 
आज भी गुड्डू  पापा को किताब लाने की याद दिलाता स्कूल चला गया . अविनाश ने उधर गुड्डू से हां कहा, इधर मालती ने उसे आड़े हाथों लिया-
" क्या बात है, बच्चे की किताबें ला के क्यों नहीं देते? खुद ही कहते हो, पढता नहीं है और जब बच्चा बार-बार याद दिला रहा है तो कुछ याद ही नहीं रखते."
" अरे मालती, जितनी किताबें ला के दी हैं, उतनी तो पढ डाले पहले. देखा नहीं, कुछ किताबें तो खुली तक नहीं. खैर, ले आउंगा आज ही."
"अब क्या ले आउंगा आज ही....कुल जमा एक महीना बचा है परीक्षा को. अब अपने कोचिंग के नोट्स तैयार करे, कि तुम्हारी किताब? लानी थी तो चार महीना पहले लाते..अब तो लाओ, न लाओ बराबर."
चुप लगा गया अविनाश. उसी दिन फिजिक्स की नयी रिफ़रेंस बुक ला के भी दे दी. 
गुड्डू ने भी भड़ास निकाली. 
"बहुत लेट कर दिये पापा आप. उधर कोचिंग में तो ये वाली पूरी बुक कब की करवा दी गयी. मैं  सॉल्व नहीं कर पाया क्योंकि मेरे पास बुक ही नहीं थी. अब देखिये कितना कर पाता हूं इस बुक से. भगवान भरोसे है रिज़ल्ट तो. क्योंकि सर कह रहे थे कि अधिकतर इसी बुक से आता है पेपर में "
अजब रोनी सूरत बना ली थी गुड्डू ने. लेकिन मन ही मन लाख-लाख धन्यवाद दे रहा था पापा को कि भला हुआ जो आप ये किताब इतनी देर से लाये, वरना इसका तो एक भी डेरिवेशन मेरी समझ में न आता.......... 
उधर अविनाश मन ही मन मुस्कुराये जा रहा था. उसकी मुस्कुराहट थम ही नहीं रही थी... खुद को तैयार कर रहा था रिज़ल्ट के बाद इस दोषारोपण के लिये कि केवल तुम्हारे कारण कम नम्बर आये पापा.....

79 टिप्‍पणियां:

  1. ज़बर्दस्त मनोवैज्ञानिक कहानी है ऐसा लगता है कि हर पात्र के मनोविज्ञान को सूक्ष्मता से समझा गया है या शायद उस पर शोध किया गया है एक संपूर्ण और मनोरंजन पूर्ण कहानी के लिये बधाई स्वीकार करो वंदना और पढ़वाने के लिये आभार :)

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  2. aaj ke waqt ki kahaani ..bahut hi rochak lagi aur aaj ke samay ke saath kahi gayi hai :)

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  3. शुरू से लेकर अंत तक रोचक ... बहुत ही अच्‍छी कहानी

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  4. फेसबुक से यहाँ आकर पढ़ ली कहानी जिसने याद दिला दिया अपना बचपन जब पहाड़े याद करना हमारे लिए भी नाकों चने चबाना जैसा था, उस पर नानाजी की डाँट ..अक्सर बच्चे गुड्डू की कॉपी ही दिखते हैं :)

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  5. कहानी के तीनो पात्रों के मन का बहुत ही सूक्ष्मता से विश्लेषण किया है.
    बहुत सुन्दर कहानी...बधाई

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  6. बच्चों की मानसिकता का सटीक चित्रण ...
    मेरी बेटी इसी दौर मिएँ है आज कल ... और ऐसे ही सोचती होगी ... पता है मुझे ...

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  7. क्या बात है दी , बच्चों की मानसिकता के साथ एक पिता की भावनाओं का भी सटीक आकलन किया है ....सस्नेह :)

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  8. Vandna ji aapne sajeev chitrn diya.
    ek rachnakar ki yahi khasiyat hoti hain ki wo paathk ko baandhe rakhe
    aur aapne wo kaam bakhubi kiya...
    bahut sundar likha aapne

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  9. एक दूसरे के भावों से जूझती कहानी।

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  10. हा हा हा ..मुझे पढ़ते हुए एक और कहानी याद आई. जिसमें एक बच्चे को एक चश्मा मिल जाता है और वह उसे लगाकर सामने वाले के मनोभावों को सुन पाता है.
    यहाँ तो बिना चश्में के ही सबके मन पढ़ लिए तुमने.
    वाकई कभी कभी कितना सुकून मिलता है न, सारा दोष दूसरे के ऊपर डाल देने में :)
    बहुत अच्छी तर्कपूर्ण कहानी लिखी है.

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    1. अर्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र.............इत्ती तारीफ़ नक्को शिखा :)
      (वैसे अच्छा लगा तारीफ़ पढ के ) :) :)

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  11. बच्चों की मानसिकता का सटीक चित्रण ...

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  12. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शुक्रवार (31-05-2013) के "जिन्दादिली का प्रमाण दो" (चर्चा मंचःअंक-1261) पर भी होगी!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  13. कहानी का मनोविश्लेश्ताम्क तरीका बहुत मस्त रहा . कहानी अंत तक बांधे रही . सूक्ष्म विश्लेषण से याद आया की पूछ लूं तुमसे की कही माइक्रो केमिस्ट्री तो नहीं पढ़ी?

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    1. हाहा...हमने न पढी माइक्रो-कैमिस्ट्री :) हम तो ऑर्गेनिक कैमिस्ट्री वाले हैं :) वैसे सच्ची इत्ती अच्छी लगी कहानी आशीष? धन्यवाद ले ही लो :)

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  14. ऑर्गेनिक कैमिस्ट्री से ही ओर्गनिज्म और उनके ब्यवहार पर सुंदर कहानी निकली है.

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  15. अक्सर बच्चे रिजल्ट खराब होने पर इसी तरह का दोषारोपण करते हैं ....

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  16. बहुत सच्ची कहानी शायद बहुत से बच्चों की बहुत अपनी ।

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  17. प्रिय पाठकों, कृपया तेजी से विकसित होते हुए शब्दकोश इंगहिन्दी पर अवश्य पधारें। इस के लिए गूगल में, इंगहिन्दी लिखने मात्र से आपको पहले पेज पर वेबसाइट के नाम के दर्शन होंगे, धन्यवाद।

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  18. बच्चों को समझना बहुत जरुरी होता है ...पढाई का मामले में कभी कभी मैं भी सख्ती से पेश आती है .......एकदम घर के माहौल का सटीक चित्रण देखने को मिला कहानी में ...धन्यवाद

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  19. बहुत सुंदर मनोविज्ञान दर्शाती कहानी .....बस एक शिकायत है आपसे
    पुराणी यादें बहुत याद दिल देती हैं आप ...उफ्फ कितनी मुश्किल से वो डाँट भूली थी ....आज फिर ....
    जाने दीजिये ...आप कहाँ मानने वाली हैं :P

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    1. हाहाहा..... बहुत आभार शिखा इतनी आत्मीय टिप्पणी के लिये :)

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  20. Vandana....malika to wahi purani hai....haan...aage chalke,jo pahle maine privacy ke liye badlav kiye the wo nahi karungi.

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  21. सच्ची कहानी ......... अनायास बचपन याद हो आया ....... बधाई आपको

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  22. अच्छा विषय उठाया आपने, बच्चो से ज्यादा अभिभावकों पे पढ़ाई का बोझ होता है। लेकिन बच्चो मे पढ़ाई का होव्वा खड़ा करना आजकल काफी खतरनाक हो जाता है

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  23. आज हर बच्चे का यही हाल है और साथ में माता-पिता का भी । मैं स्वयं देखती हूँ जब पोती मान्या की पढ़ाई को लेकर माता-पिता के बीच प्रायः खींचतान होती रहती है ।

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  24. हृदय.स्पर्शी प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा।

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  25. बहुत ही सुंदर कहानी।

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  26. सच्ची अच्छी कहानी..... आभार
    http://savanxxx.blogspot.in

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  27. हम सब अपनी अपनी कमजोरियां जानते हैं पर जब कहीं से कोई सुरक्षा कवच मिल जाता है ये मन बड़ी राहत अनुभव करता है ... ये पिता - पुत्र का रिश्ता भी कुछ ऐसा ही लगा और और बहुत अच्छा भी ....

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  28. आपके सहज और सरल चित्रण से सारे पात्र जी कर आया हूँ आप की कहानी के। सुन्दर और गहरी सीख भरी कहानी।

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  29. "प्रिय ब्लॉगर मित्र |
    सादर अभिवादन | यकायक ही आपकी पोस्ट पर आई इस टिप्पणी का किंचित मात्र आशय यह है कि ये ब्लॉग जगत में आपकी पोस्टों का आपके अनुभवों का , आपकी लेखनी का , कुल मिला कर आपकी प्रतीक्षा कर रहा है , हिंदी के हम जैसे पाठकों के लिए .........कृपया , हमारे अनुरोध पर ..हमारे मनुहार पर ..ब्लोग्स पर लिखना शुरू करें ...ब्लॉगजगत को आपकी जरूरत है ......आपकी अगली पोस्ट की प्रतीक्षा में ...और यही आग्रह मैं अन्य सभी ब्लॉग पोस्टों पर भी करने जा रहा हूँ .....सादर "

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    1. आपके आग्रह को ठुकराने की योग्यता नहीं मुझमें. कल एक कहानी पोस्ट की है इसी ब्ल~ऒग पर. आपका इंतज़ार है वहां.

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    2. आपके आग्रह को ठुकराने की योग्यता नहीं मुझमें. कल एक कहानी पोस्ट की है इसी ब्ल~ऒग पर. आपका इंतज़ार है वहां.

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