गुरुवार, 21 जनवरी 2010

दस का नोट


दस का नोट
"मम्मी तुम भी कमाल करती हो! भला दस रुपये लेकर मेला जाया जा सकता है?"



"क्यों? दस रूपये ,रुपये नहीं होते? फिर तुम्हें झूला ही तो झूलना है, इसमें तो दो बार झूल लोगी..."



"अच्छा!!! किस जमाने में हो तुम? दस रूपये में तो झूले वाला झूले की तरफ देखने भी नहीं देगा।"



"लेकिन............"



"कुछ नहीं...रख लो तुम अपना ये नोट...मैं नहीं जाउंगी मेला-ठेला। सबसे कह दूँगी की मेरी मम्मी के पास पैसे ही नहीं हैं......क्योंकि बेचारी वो प्रोफेसर ही तो हैं...."




दस का नोट
"दस रूपये का नोट ,जो नीलू ने मेरी ओर तैश में आकर फ़ेंक दिया था, फडफडाता हुआ कमरे में चक्कर लगा रहा था। नीलू ने अपने कमरे में जाकर भड़ से दरवाज़ा बंद कर लिया था। नीलू मेरी चौदह बरस की बेटी अभी से कितनी व्यंग्य भरी बातें करने लगी है....उसका इतना बढ़-चढ़ कर बोलना , शायद मेरे अधिक लाड -प्यार का ही नतीजा है. अभी जिस तरह नीलू इस दस के नोट को मेरी ओर उछाल कर गयी, क्या मैं अपनी माँ के साथ ऐसा कर सकती थी?मैंने अपने बच्चों को अधिक लाड-प्यार सिर्फ इसलिए दिया,की वे भी मेरी तरह माँ के प्यार से वंचित न रह जाएँ। लेकिन इसका बदला मुझे जिस तरह मिल रहा है, वो मैं देख रही हूँ, महसूस कर रही हूँ,लेकिन इस स्थिति से उबरने का प्रयास नहीं कर रही। यह जानते हुए, की मैं बच्चों की जिन आदतों को शाह दे रही हूँ, वे मेरे,रवि के और ख़ुद बच्चों के लिए हितकर नहीं है। दस का नोट अब कमरे में मेरे डबलबेड के पाये से लग कर स्थिर हो गया है। इस दस के नोट से मेरी किशोरावस्था का गहरा सम्बन्ध है। बचपन में तो हाथ पर दस पैसे से ज़्यादा कभी आए ही नहीं। पन्द्रह बरस की हुई तब से कहीं भी जाऊं,मेला, बाज़ार, या सालगिरह; दस का नोट मेरे साथ चलता मेरी मुट्ठी में कसमसाता। कभी उसके खर्च होने की नौबत ही नहीं आती थी, क्योंकि दस रुपये में उस वक्त भी केवल चाट ही मिल सकती थी.फिर भी उसने मेरा साथ नहीं छोड़ा। शायद इसीलिये दस के नोट से मेरी गहरी आत्मीयता है।




दस का नोट
"मम्मी , और रुपये दे रही हो? मेरी समझ में नहीं आता की कभी-कभी तुम्हें क्या हो जाता है?मैं कहीं भी जाऊं, तो तुम दस का नोट ही क्यों हिलाने लगाती हो मेरे सामने ? मेरी फ्रेंड्स देखो, इतने बड़े-बड़े घर कि लड़कियां है, खूब खर्च करतीं हैं। फिर मैं भी तो गरीब नहीं हूँ। मैं ही क्यों हाथ बांधे रहूँ?"



नीलू की किसी भी बात का उत्तर देने की , डांटने की मेरी इच्छा ही नहीं हुई। नीलू मेरे कुछ भी न बोलने से और खीझ गई थी। उसकी सहेलियां भी आ गईं थीं। और अब नीलू मेरी अलमारी के पास थी। बड़े इत्मीनान से उसने सौ का एक नया नोट निकाला।



" मम्मी मैं ये सौ रुपये ले जा रही हूँ, पूरा खर्च नहीं करूंगी। "



कहने को तो कह गई है, की पूरा खर्च नहीं करुँगी, लेकिन लौटने पर बीसों खर्चे होंगे उसकी जुबां पर। मेरी सहेलियां भी सभी बड़े घरों की थीं और खर्चीली भी। उनके बीच मैं अपने आप को बेहद हीन महसूस करती। ये बड़े घर की बेटियाँ मेरी दोस्त थी, तो केवल इसलिए क्योंकि पढाई में ये सब मेरी बराबरी नहीं कर सकतीं थी।




दस का नोट
"मुझे अच्छी तरह याद है, मैं बी.एससी। प्रथम वर्ष में थी,हमारे शहर में मेला लगा था सबने वहाँ जाने का प्रोग्राम बनाया, मम्मी ने उस दिन भी मुझे दस रुपये ही दिए थे और मैं सोचती रह गई थी की इस दस के नोट का मेले में क्या करूंगी? मेले में पहुँचने के बाद मेरी फ्रेंड्स जो भी खरीदतीं मुझे कहतीं , लेकिन इस सब का मेरे पास एक ही उत्तर होता, मैं चाट खाती ही नहीं, मुझे चूडियों का तो शौक ही नहीं... आदि-आदि। मेरे पास इतने पैसे ही नही होते थे की मैं ये सब खरीद सकूं। अपने दस के नोट को मुट्ठी मैं कसे वापस आ गई।



"एक मैं थी जो और पैसों के लिए कभी मुंह नहीं खोल पाई, एक मेरे बच्चे हैं.....इनकी स्वार्थ पूर्ति में ज़रा भी कम आई नहीं की इनकी जुबान की मिठास में भी तेज़ी से गिरावट आने लगती है। इनके सामने मैं जो की अपने स्टाफ में बेहद सख्त मानी जाती हूँ, कुछ कह ही नहीं पाती। घर में रहती हूँ तो मेरा बचपन मुझ पर हाबी रहता है। मैं सोचती हूँ की क्या मैं अपने बच्चों में कम खर्च करने की आदत डाल सकती हूँ? लेकिन इस महंगाई और आधुनिकता के कदम से कदम मिलाकर चलने वाली पीढी को दस के नोट से कैसे बहलाया जा सकता है?



करने को मेरे पास कुछ था नहीं, उठी और दस के नोट को सहेज दिया सौ के नोट कि खाली हुई जगह में.


( बन्धुवर, ये कहानी मैने 1983 में लिखी थी. अपनी किशोरावस्था में. तब दस के नोट का महत्व था. बिना किसी काट-छांट के इसे प्रस्तुत करने की धृष्टता, दोबारा कर रही हूं.)

38 टिप्‍पणियां:

  1. १९८३ में तो १०० रूपये हमारा पूरा २ महीने का जेब खर्च होता था ! बढ़िया कहानी !

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  2. जरूरत बढ़ गई है ,मंहगाई भी
    अच्छी कहानी

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  3. चार दिन बाद हजार के नोट की बारी है

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  4. बहुत कुछ कह रही है आपकी कहानी - एक बेहतर संदेश भी वन्दना जी। सुन्दर।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  5. बढ़िया कहानी ...बहुत सही दस का नोट यही जेबखर्ची हुआ करती थी कभी मेरी भी :)

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  6. वंदना जी , आज के हालातों को उकेरती बहुत ही बेहतरीन कहानी है , सच आज के जमाने में यदि ये कहें कि हमारी तो दस पैसे , बीस पैसे और चार आने में भी मौज हो जाया करती थी स्कूल के दिनों में तो बच्चे हंसेंगे शायद

    अजय कुमार झा

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  7. कहानी भले हुई पुरानी लेकिन जायका नया है.
    सुंदर लगी यह कहानी.

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  8. bahut khoob vandna ji .........aaj kal hum bacche bhi kya karein paise ki keemat jo itni kam hogyai hai

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  9. वन्दना जी बच्चो रोकना भी नही चाहिये लेकिन ज्यादा छुट भी नही देनी चाहिये, यह बच्चो के हित मै ही है, आप ने बहुत् सुंदर लिखा, अब तो बिटिया बडी हो गई होगी

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  10. मन:स्थिति का बहुत सटीक वर्णन किया है....अच्छी कहानी...

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  11. बहुत सुन्दर कहानी है,वंदना जी...इस दस रूपए से उन दिनों की सबकी यादें जुडी हुई हैं...

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  12. अपना तो पूरे महीने का जेब खर्च हुआ करता था दस का नोट ...
    बढ़िया कहानी

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  13. १९८३ में तो ५०० रुपये महिने में मय खाना बम्बई में रहते थे हम ठसके से हॉस्टल में. :)

    बहुत उम्दा!

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  14. दस के नोट का बच्चों के लिए क्या मम्ह्त्व रह गया है ...कुसूर उनका भी नहीं है ....!!

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  15. बदले हालात में 'दस का नोट' दस पैसे की अहमियत का हो गया है--ये सच है; लेकिन आपकी यह कहानी जो सन्देश देती है, वह प्रेरक है नई पीढ़ी के लिए... और जिस सहजता से आप कहानी कहती हैं, वह तो अप्रतिम है वंदनाजी !
    सप्रीत--आ.

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  16. सत्ताईस साल पहले बड़े-बुजुर्गों की सोच रखतीं थी। जय हो। सुन्दर है।

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  17. बहुत सुन्दर कहानी है। किन्तु समय व अपनी जेब के अनुसार ही बच्चों को जेबखर्च देना चाहिए।
    घुघूती बासूती

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  18. बढ़ता हुई मुद्रा-स्फीती को दर्शाती सुन्दर लघुकथा!
    आज वास्तव में रुपये का अवमूल्यन हो गया है!

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  19. vandana ji ,bahut sundar rachna,bhavon ki abhivyakti men to aapka sani milna mushkil hai,badhai

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  20. बाप रे....26 साल पहले की लिखी गयी कहानी और उतनी ही सामयिक। आप तब से लिख रही हैं..आजकल की कहानियों में जहां कथ्य एकदम से गौण हो गया है और भाषाई जादूगरी उअर शिल्प ने प्रधानता ले ली है, आपकी लिखी सकुन देती हैं।

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  21. जरूरत बढ़ गई है ,मंहगाई भी
    अच्छी कहानी

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  22. १९८३ की तुलना में दस रूपए के नोट का मूल्य कम हो गया लेकिन आपकी कहानी का वजन आज कि भौतिकता ने और बढ़ा दिया.
    ..सुंदर बधाई.

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  23. सत्ताईस साल पहले लिखी कहानी की प्रासान्गिक्ता आज भी बनी हुइ है. एक अच्छी कहानी .

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  24. किन शब्दों में शुक्रियादा करूं? आप सब किस्सा-कहानी तक आये और रचना पर अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त कीं, मैं आप सबकी तहेदिल से आभारी हूं.
    गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें.

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  25. गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें.......

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  26. बहुत सुन्दर कहानी! आपको और आपके परिवार को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें!

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  27. वन्दना जी, आप इसे कहानी कह रही हैं तो कहानी ही मान लेते हैं, वरना ये तो हमारी और शायद सबकी आपबीती है। बात केवल महंगाई या मुद्रा-स्फ़ीति की ही नहीं है, अभावों या नायाबी की सुलभता में बदलने की और हर चीज का दिनों दिन जो मौद्रिक स्वरूप हो रहा है, उसकी है। हम तो इसे कहानी नहीं, जगबीती ही मानेंगे चाहे आप सौ रुपये का जुर्माना ही लगा दें।

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  28. दस का नोट- कितनी यादें मानस पटल पर तैर गईं. क्या दिन थे, उफ़, दस रूपये, पास होते थे तो लगता था कि खजाने के मालिक हो गए हैं.
    आज, अगर बच्चे १० के नोट को देख कर मुंह बिचकाते हैं तो उनका कसूर ही क्या है? चीजों की कीमते आसमान छू रही हैं. मेलों-पार्कों की इंट्री फीस ही इतनी ज्यादा है कि अधिकाँश बच्चे दूर से देख कर संतोष कर लेते हैं.
    कहानी की बुनावट और बनावट दोनों में आप सफल रहीं.

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  29. "मम्मी तुम भी कमाल करती हो! भला दस रुपये लेकर कहीं मेला जाया जा सकता है"
    ........
    "एक मैं थी जो पैसों के लिए कभी मुंह नहीं खोल पायी"
    ....
    "इनकी स्वार्थपूर्ति में जरा भी कमी आई नहीं कि इनकी जुबान की मिठास में भी तेजी से गिरावट आने लगी"
    "बोलते शब्द" खुद-ब-खुद समय के बदलाव को बयाँ करते हुए.

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  30. वाह वंदना जी हमें भी वो दिन याद आ गये. पर आज के लोगों से किसी से कहो तो यकीन नहीं करेगा
    बधाई

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  31. वंदना जी आपके लिए मेरे खाना मसाला ब्लॉग पर एक नया पोस्ट है! वक़्त मिलने से देखिएगा ज़रूर!

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  32. वंदना जी, आदाब
    'दस का नोट' कहानी में आपने
    मां की आर्थिक विवशता
    सहेलियों के साथ सपनों के मेले में जाती
    बिटिया की आवश्यकता
    और
    मुख्य पात्र 'मैं' के अन्तर्द्वंद को
    बेहद खूबसूरती के साथ पेश किया है
    बधाई

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  33. दस रुपये मे एक लिटर पेट्रोल आ जाता था उस समय ... यह सच है .. अभी के बच्चे 100 रुपये का भी कुछ नही समझते ।

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  34. 1983 में मैं तो बच्चा था.... पर दस के नोट की importance समझता था.... कहानी बहुत अच्छी लगी.....


    नोट: लखनऊ से बाहर होने की वजह से .... काफी दिनों तक नहीं आ पाया ....माफ़ी चाहता हूँ....

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