वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है,
माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है.
वे कर रहे हैं इश्क पे संजीदा गुफ़्तगु,
मैं क्या बताऊँ, मेरा कहीं और ध्यान है.
सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर,
झोले में उसके पास कोई संविधान है.
उस सिरफिरे को यों नहीं बहला सकेंगे आप,
वो आदमी नया है मगर सावधान है.
फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए,
हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है.
देखे हैं हमने दौर कई, अब खबर नहीं,
पांवों तले ज़मीन है या आसमान है.
वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बेजुबान है.
दुष्यंत कुमार
dushyan ji ka aam adami, padhvane ke liye dhanyavaad.
जवाब देंहटाएंpadhkar hi jaan gaya ...dushyant ji hai.....
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया..वंदना जी...मुझे लगता है... दुष्यंत कुमार तो सबके फेवरेट है...उनकी रचना पढवाने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंउस सिरफिरे को यों नहीं बहला सकेंगे आप
जवाब देंहटाएंवो आदमी नया है मगर सावधान है
फिसले जो इस जगह तो लुढकते चले गए
हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है
सागर में मोती जैसी दुष्यंत कुमार जी की इस बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल से रूबरू कराने के लिए आभार और धन्यवाद्.
दुष्यंत जी रचना पढ़वाने के लिए आभार !!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंवाह जी क्या बात है , दुष्यंत जी को पढवाने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंअजय कुमार झा
ok, thanks.
जवाब देंहटाएंयह तो मेरी भी पसंद है,आभार फिर से पढवाने का.
जवाब देंहटाएंवाह क्या कहने आपके पसंद की । यह उन गजलों में से है कि चाहे जितनी बार पढो जी नहीं भरता ।
जवाब देंहटाएंवाह वाह जी,
जवाब देंहटाएंक्या बात है दुष्यंत जी की।
बहुत बहुत आभार उनकी याद दिलाने के लिए।
बड़ा परेशाँ है फटेहाल आदमी
जवाब देंहटाएंझोले में अब संविधान तक नहीं।
दुश्यन्त कुमार जी की गजल पढ़वाने के लिए आपका आभार!
जवाब देंहटाएंDushyant ji ki likhi ye Gazal padh kar man prasann ho gaya
जवाब देंहटाएंइसको पढवाने के लिएय शुक्रिया ..दुष्यंत जी का लिखा कौन भूल पाता है
जवाब देंहटाएंदुष्यंत जी ने आने वाले समय को बाखूबी पहचाना और अपनी कलम से ग़ज़ल को नयी दिशा दी ........... बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल लगाईं है आपने ...... बहुत बहुत शुक्रिया ...........
जवाब देंहटाएंदुष्यंत जी की रचना प्रस्तुति के लिए धन्यवाद ....
जवाब देंहटाएंबेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल!
जवाब देंहटाएं--
ओंठों पर मधु-मुस्कान खिलाती, कोहरे में भोर हुई!
नए वर्ष की नई सुबह में, महके हृदय तुम्हारा!
संयुक्ताक्षर "श्रृ" सही है या "शृ", मिलत, खिलत, लजियात ... ... .
संपादक : "सरस पायस"
dushyant ji padhwane ka bhaut abhar...vo to shayad ham sabke favt. hain.
जवाब देंहटाएंdiwane ,diwane hai hum bhi ,bhet bhi karte hai aur padhte bhi hai aksar inki pustake ,bachpan se hi lagao raha hai dushyant ji ki rachnao se ,shukriya .
जवाब देंहटाएंदुष्यंत वो अमर रचनाकार है जिस तक हर ऐरे गैरे नत्थू खैरे की पहुँच हो ही नहीं सकती. आप की पसंद हैं दुष्यंत, आपके व्यक्तित्व की ऊंचाई इसी से पता चल जाती है. आज के दौर में, जब हर कोई, समर्थ-असमर्थ तक, अपने और केवल अपने प्रचार में व्यस्त है, आप जैसे बहुत कम लोग हैं जो दूसरों, पुराने, महान रचनाकारों को महत्व देते हों.
जवाब देंहटाएंमैं आपकी लेखनी का मुरीद था, अब मैं आपका सम्मान भी करता हूँ.
शुक्रिया वंदना जी... ये अच्छा किया... कई बार ब्लॉग के द्वारा भी कुछ अच्छा इस तरह का पढने मिल जाता है और यक़ीनन इसका खुमार उतारे नहीं उतरेगा..
जवाब देंहटाएंदुष्यंत जी मेरे भी प्रिय शायर हैं.
जवाब देंहटाएं..पढाने के लिए धन्यवाद.
वंदनाजी,
जवाब देंहटाएंदुष्यंतजी की ये ग़ज़ल पढवा कर आपने जाने किन पुराने दिनों में जाने को मुझे विवश कर दिया है !
देर से आया, गुस्ताखी माफ़ !
सप्रीत--आ.
इतने सारे लोगों ने इतना कुछ लिख दिया की मेरे लिखने के लिए कुछ भी नहीं बचा.बस बहुत बेहतरीन
जवाब देंहटाएंदुष्यंत जी की ये ग़ज़ल पढ आनंदित हुआ. वंदना जी, बहुत अच्छा पोस्ट लगाया है आपने चित्र सहित.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
A nice composition.
जवाब देंहटाएंYour new friend
Asha
आपको और आपके परिवार को वसंत पंचमी और सरस्वती पूजन की हार्दिक शुभकामनायें!
जवाब देंहटाएंग़ज़ल बहुत अच्छा लगा!
फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए...
जवाब देंहटाएंहमको पता नहीं था के इतना
ढलान है..
aabhaar aapkaa...