रविवार, 4 अप्रैल 2010

मेरी पसंद....

मेरे हमराह मेरा साया है
और तुम कह रहे हो, तन्हा हूँ


मैं ने सिर्फ एक सच कहा लेकिन
यूं लगा जैसे इक तमाशा हूँ

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आंधी से टूट जाने का खतरा नजर में था
सारे दरख्त झुकने को तैयार हो गए


तालीम, जहन, ज़ौक, शराफत, अदब, हुनर
दौलत के सामने सभी बेकार हो गए


फिर यूँ हुआ कि सबने उठा ली क़सम यहाँ
फिर यूँ हुआ कि लोग ज़बानों से कट गए

सर्वत एम. जमाल
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जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
हवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं


फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं

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ये चिंगारी दावानल बन सकती है
गर्म हवा में इसे उडाना, ठीक नहीं


देने वाला घर बैठे भी देता है
दर दर हाथों को फैलाना, ठीक नहीं

नीरज गोस्वामी
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कुछ सपन लेके आगे सरकती रही
उड़ न पाई कभी परकटी जि़न्‍दगी।

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न तो मेरे ख़त का उत्‍तर, न शिकायत, न गिला,
क्‍या हमारे बीच में रिश्‍ता बचा कुछ भी नहीं।

सुब्‍ह से विद्वान कुछ, सर जोड़ कर बैठे हैं पर,
मैनें पूछा तो वो बोले मस्‍अला कुछ भी नहीं ।

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एक कपड़ा मिल गया तो खुश ये बच्‍चे हो गये,
इनके कद से भी बड़ी इनकी कमीज़ें देखिये।

तिलकराज कपूर.
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मुश्किलों में कोशिशें मत छोड़िये कुछ कीजिये
इन ही तदबीरों से बदलेगा मुकद्दर देखना

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हां, मैं तुझसे हूं, मगर मेरा भी है अपना वजूद
पत्ते गिर जायेंगे तो, साया कहां रह जाएगा

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सब दोस्तों को जान गया हूं ये कम नहीं
दुश्मन की कोई अब मुझे पहचान हो न हो

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संदेश इनके प्यार का किसने चुरा लिया,
अंदेशा लेके आते हैं त्यौहार किसलिए ?

जब इसका इल्म था कि ये धोया न जायेगा,
मैला किया था आपने किरदार किसलिए ?

शाहिद मिर्ज़ा"शाहिद"
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गर प्यार न हो तो, ये जहां है भी नहीं भी
होंगे न मकीं गर,तो मकां है भी नहीं भी

लब बंद हैं ,दम घुटता है सीने में ’शेफ़ा’ का
हक़ कहने को इस मुंह में ज़बां है भी नहीं भी

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जो किसी के काम ही आए नहीं
हैफ़ ऐसी ज़िंदगी बेकार है,

भूल जाए गर ’शेफ़ा’ एख़्लाक़ियात
फिर तो तेरी ज़हनियत बीमार है

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मैं ने गर दे भी दिए सारे सवालों के जवाब
फिर भी कुछ ढूंढेंगे अह्बाब मेरी आँखों में

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उलझ न जाए कहीं दोस्त आज़माइश में
कि ख़्वाहिशें कभी तुम बेशुमार मत करना

इस्मत जैदी "शेफा कजगांववी"
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उम्र भर फल-फूल ले, जो छाँव में पलते रहे
पेड़ बूढ़ा हो गया, वो लेके आरे आ गए

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कठिन घड़ी हो, कोई इम्तिहान देना हो
जला के रखती है राहों में, माँ दुआ के चराग़

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अज़ीब शख़्स था, आँखों में ख़्वाब छोड़ गया
वो मेरी मेज़ पे, अपनी किताब छोड़ गया

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गर इजाज़त दे ज़माना, तो मैं जी लूँ इक ख़्वाब
बेड़ियाँ तोड़ के आवारा हवा हो जाऊँ
श्रद्धा जैन
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जिसकी जड़ें ज़मीन में गहरी उतर गईं
आँधी में ऐसा पेड़ उखड़ता नहीं कभी

मुझसा मुझे भी चाहिए सूरज ने ये कहा
साया मेरा ज़मीन पे पड़ता नहीं कभी

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बुझा रही है चराग़ों को वक़्त से पहले
न जाने किसके इशारों पे चल रही है हवा

गोविन्द गुलशन
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सौदा हुआ तो क्या हुआ दो कौड़ियों के दाम
सस्ता न इतना ख़ुद को बना दें तो ठीक है

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फुरसत मिले तो इनको ज़रा पढ़ भी लीजिए !
कुरान, बाईबल और गीता हैं बेटियां !!

नन्ही कली ओ बादे-सबा 'दर्द' की गज़ल !
क्या-क्या बताऊं आपको क्या-क्या हैं बेटियां !!
दर्द शुजालपुरी
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8 टिप्‍पणियां:

  1. ओहो...
    एक साथ इतने बेहतरीन अशआर...
    आभार...

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  2. वाकई आपकी पसन्द पसन्द करने लायक है
    आभार कि आपने सुन्दर रचनाओं को पढवाया

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  3. एक बेहतर संकलन वन्दना जी।

    मुश्किलों में कोशिशें मत छोड़िये कुछ कीजिये
    इन ही तदबीरों से बदलेगा मुकद्दर देखना

    को पढ़कर अपनी ये पंक्तियाँ याद आयीं -

    मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं
    कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  4. अरे वाह जी बहुत सुंदर जबाब नही

    धन्यवाद

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  5. बहुत उम्दा पसंद है आपकी!

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  6. वाकई आपकी पसन्द पसन्द करने लायक है,
    आभार कि आपने सुन्दर रचनाओं को पढवाया....

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