( मेरे कुछ वरिष्ठ जनों के आग्रह और आदेश पर मैं अपनी इस कहानी का पुनर्प्रकाशन कर रही हूं. मेरे जिन साथियों ने इसे पूर्व में पढा है, उनसे क्षमा याचना सहित)
"अन्नू..... उठ जाओ, छह बज गए हैं।"
मम्मी की आवाज़ के साथ ही मेरी आँखें खुल गई थीं। क्या मुसीबत है! ऐसे कडाके की ठण्ड में उठना होगा! यदि इस वक्त ज़रा भी आलस किया तो 'बस ' के समय तक तैयार होना बड़ा मुश्किल होगा। बस का ख्याल आते ही एक झटके से रजाई फ़ेंक उठ खड़ी हुई थी मैं। सर्दियों में तो सचमुच ही सुबह उठना बहुत अखरता है। भइया और गिन्नी मेरी छोटी बहन को सोते देख बड़ी ईर्ष्या होती है, उनसे। भइया तो वैसे भी धुरंधर सुबक्कड़ हैं। यदि उन्हें दस बजे ऑफिस न जाना हो, तो बारह बजे तक सोते ही रहें।
जब तक मुझे नौकरी नहीं मिली थी, सोचती थी कि कितना शुभ दिन होगा, जब मुझे नौकरी मिलेगी! तब नौकरी के समानांतर चलने वाली अन्य समस्याओं पर गौर ही कहाँ किया था! उनकी जानकारी ही कहाँ थी मुझे!शुरू के दिनों में कैसे उत्साह से गई थी कॉलेज , और अब!!अब तो जाने के नाम से ही कांटे से उग आते हैं शरीर पर ।
जैसे-तैसे नाश्ता कर, बस-स्टॉप की ओर भागी थी। बस अभी आई नहीं थी। बस-स्टॉप पर एक विशालकाय इमली का पेड़ था, जिसकी छाया में हम रोज़ अप-डाउन वाले बस का इंतज़ार किया करते थे। लेकिन मुझे वहां खड़ा होना बड़ा अजीब लगता था। मेरा पूरा वक्त घड़ी देखते या फिर अपने बैग को दोनों हाथों में बारी-बारी से बदलते बीतता।
मुझे स्टॉप पर पहुंचे अभी दो मिनट ही हुए होंगे, की एक लड़का बड़ी तेज़ साइकलिंग करता हुआ मेरे बहुत करीब से गुज़र गया ; इतने करीब से कि मैं चौंक कर दो कदम पीछे हट गई। यदि मैं पीछे न हटती तो निश्चित रूप से वह साइकिल मुझ से टकरा जाती। मेरे इस तरह पीछे हटने पर , थोडी ही दूरी पर खड़े तीन-चार लड़के हो-हो कर हंसने लगे। क्रोध और विवशता से बस होंठ भींच कर रह गई मैं।
आजकल के किशोरवय प्राप्त लडके इतने असभ्य और उद्दंड हो गए हैं कि इनके लिए कुछ कहने को मेरे पास तो शब्द ही नहीं हैं.लगता है, आजकल की हवा ही उद्दंड हो गई है। जिस लड़के को छूती है, उसी के पर निकल आते हैं।
बस आ गई थी। भीड़ का रेला बस की ओर दौड़ पड़ा था। इस रेलमपेल में दबी हुई मैं भी किसी तरह बस में चढ़ने में सफल हो गई थी। सारी सीट्स भर चुकीं थीं । खड़े रहने के सिवा कोई चारा न था। आगे एक प्रौढ़ सज्जन खड़े थे, सो उसी जगह को उपयुक्त समझ कर मैंने भी अपने लिए वहीं जगह बना ली थी। एक झटके के साथ बस चल पड़ी थी। इस बस का टाइम ऐसा था की साइंस कॉलेज वाले अधिकतर लड़के-लड़कियां इसी बस से जाते थे। ड्राइवर जब ब्रेक लगाता तो कुछ इस तरह कि बस को जोरदार झटका लगता , जिससे बस में खड़ा प्रत्येक व्यक्ति असंतुलन की अवस्था में आ जाता और इस समय पीछे खड़े लड़के मौके का फायदा उठाते हुए लड़कियों को अपने हाथ का सहारा दे लेते, जबकि आगे खड़े लड़कों पर लड़कियां ख़ुद ही जा गिरतीं। ड्राइवर को झटकेदार ब्रेक की ताकीद लड़कों की ही थी।
अचानक ही बस की रेलिंग पर कसे हुए अपने हाथ के ऊपर किसी दूसरे हाथ का स्पर्श पा मैंने देखा , तो उन्हीं प्रौढ़ सज्जन का हाथ था। वे पीछे खड़े किसी व्यक्ति से बातें कर रहे थे। उनका सर पीछे की ओर घूमा हुआ था। अनजाने में ही उनका हाथ आ गया होगा ऐसा सोचकर मैंने अहिस्ता से अपने हाथ को ज़रा आगे खिसका लिया था। लेकिन दो मिनट बाद ही उसी हाथ का स्पर्श मैंने फिर महसूस किया। पलट करब देखा ,तो वे सज्जन पूर्ववत बातें करने में मशगूल थे। हाथ हटाना चाहा तो उनके हाथ की पकड मजबूत हो गई, मेरे हाथ पर। घबरा के फिर उनकी ओर देखा तो उन्हें अपनी ओर घूरता पाया। एक जोरदार झटके के साथ मैंने अपना हाथ रेलिंग पर से हटा लिया, ये जानते हुए की हाथ हटाने से मैं ख़ुद असंतुलित हो जाउंगी। मैं उन तथाकथित 'सज्जन ' से कुछ भी कह कर बस में ख़ुद आकर्षण का केन्द्र नहीं बनना चाहती थी।
लड़कियों की यही तो त्रासदी है की लोग उन्हीं से छेड़खानी करते हैं और फिर यदि इसे वे ज़ाहिर करती हैं तो लोग उन्हें ऐसी नज़रों से देखते हैं, जिन्हें झेल पाना बड़ा मुश्किल होता है।
लेकिन इस व्यक्ति की हरकत पर मैं अचम्भित थी। कम से कम पचास वर्ष की उम्र तो होगी ही उनकी। फिर क्या किशोरवय के लिए की गई मेरी विवेचना ग़लत हो गई? किशोर होते लड़कों को तो उनका अपनी उम्र से होता नया-नया परिचय उद्दंड बना देता है, लेकिन इनके लिए क्या कहूं? ये तो वृद्धावस्था की ओर अग्रसर हैं!इस प्रकार क्या ये कभी अपनी मेरी ही उम्र की बेटी को कहीं अकेली भेज पायेंगे? क्या ये अपनी उम्र के लोगों पर विश्वास कर पायेंगे? ऐसे 'सज्जनों' की हमारे यहाँ कमी नहीं है , जो लड़कियों के आत्मबल का शमन करते हैं।
मैं अपने कॉलेज की अनुशासन-प्रिय व्याख्याता,बस की भीड़ में इतनी निरीह, दब्बू हो जाती हूँ कि बस के बाहर आकर समझ ही नहीं पाती की मैं इस तरह दोहरा व्यक्तित्व कैसे वहन करती हूँ। शायद उम्र पाने के बाद अपनी इस असहायावस्था से मुक्त हो सकूं।
उन 'सज्जन 'की हरकतों में कमी नही आई थी। वे निरंतर अपने कंधे का स्पर्श मेरे कंधे को दे रहे थे । और उन्हें एक झन्नाटेदार थप्पड मारने की मेरी इच्छा भी बलवती हो उठी थी। बस में भीड इतनी थी कि आगे भी नहीं जा सकती थी। तभी ज़रा आगे एक सीट खाली हुई, और वहां बैठी महिला ने मुझे बुला लिया। शुक्र है भगवान का, वरना थोडी ही देर में मै उस व्यक्ति को एक थप्पड रसीद कर ही देती। मेरा स्टॉप आ गया था। बड़ी राहत महसूस की थी मैंने।
बस के रुकते ही मैं अपने बैग को सम्हालती दरवाज़े की ओर बढी थी । आगे बैठे लडकों की नज़रें मैं अपने चेहरे पर स्पष्ट महसूस कर रहे थी. सिर नीचा किये मैं तेज़ी से नीचे उतर गई. दो कदम आगे बढने पर ही मुझे सुनाई दिया, कोई गा रहा था-
" उमर है सतरह साल इतनी लम्बी चोटी है...."
और मुझे खयाल आया कि आज देर हो जाने की वजह से मैने अपने लम्बे बालों की चोटी को नीचे से खुला ही छोड दिया था. मेरे हाथ यन्त्रवत चोटी लपेटने को उठे लेकिन नहीं अब और नहीं.... अब इस समय मैने उसे यों ही लहराने दिया, उद्दंड हवा के विरोध में.
"मैं उन तथाकथित 'सज्जन ' से कुछ भी कह कर बस में ख़ुद आकर्षण का केन्द्र नहीं बनना चाहती थी। लड़कियों की यही तो त्रासदी है की लोग उन्हीं से छेड़खानी करते हैं और फिर यदि इसे वे ज़ाहिर करती हैं तो लोग उन्हें ऐसी नज़रों से देखते हैं, जिन्हें झेल पाना बड़ा मुश्किल होता है।"
जवाब देंहटाएंबस यही तो है जो "कुछ कलंको" को पूरे समाज पर लगने का मौका दे देता है!ये लाचारी भी है,और ठीक सा भी है उस हालात में!कोई मदद को भले ही ना आये,तमाशा देखने जरुर आ जाते है!पहले किसी और को शायद नहीं पता होता,यदि आप हो-हल्ला करें तो निश्चित ही सब को पता चल जाता है!अब उस प्रोढ़ पर आपकी तरह हर कोई भरोसा करता,यदि वह कोई अच्छी इमेज वाला हो तो लड़की की मुश्किल थोड़ी और बढ़ जाती है!
एक बड़ा ही दुखद और हम सब को शर्मिंदा करने वाला आपका ये लेख!
कुंवर जी,
ऐसे व्यक्ति किसी भी उम्र, किसी भी वर्ग और किसी भी स्थान के हो सकते हैं .
जवाब देंहटाएंइसके लिये महिलाओं को अपनी ओर से सख्ती दिखानी ही होगी.
इस तरह तो ऐसे लोगो को बढावा मिलेगा …………………सख्ती तो दिखानी ही पड्ती है ………एक बार हिम्मत कर लो तो क्या मज़ाल जो कोई भी ऐसी हरकत कर सके।
जवाब देंहटाएंआजकल के किशोरवय प्राप्त लडके इतने असभ्य और उद्दंड हो गए हैं की इनके लिए कुछ कहने को मेरे पास तो शब्द ही नहीं हैं.लगता है, आजकल की हवा ही उद्दंड हो गई है। जिस लड़के को छूती है, उसी के पर निकल आते हैं।
जवाब देंहटाएंआपकी बात हक़ीक़त बयान करती है।
YAH KAHANI PAHLE BHI PADHI HAI... IS TARAH KE HARKATE HAMESHA SE HOTI CHALI AARAHI HAI ..HOTI RAHENGI.. HUM KO SVAYAM SAKHT HONA HOGA..KOIE KUCHH NAHI KAREGA.. HAWA TO YOOHI UDDAND BANI RAHEGI ...KUCHH SIRFIRO KI KARAN...
जवाब देंहटाएंऐसी बीमार मानसिकता के लोग हर कहीं मिल जाते हैं, ये पुरुष समाज का घिनोना रूप है ... अच्छा तो होता आप चाँटा रसीद कर देतीं ....
जवाब देंहटाएंजो लडके थे, वो तो हर युग मै ऎसे ही शरारती होते है, जो सिर्फ़ मुंह से बोलते ही है, ओर आंखे दिखाने पर सहम भी जाते है... उन की बाते बुरी कम ओर हंसी वाली ज्यादा लगती है... लेकिन यह सज्जन जिस के बारे आप ने लिखा सच मै हद से ज्यादा गिरे हुये थे, ओर इन्हे सीधा करने का एक ही तरीका है इन्हे चाचा ताऊ या ऎसा ही कोई नाम दे कर बुलाये फ़िर इन्हे अपनी बेटी के समान होने का एहसास होता है, इन से लडना थप्पड मारना इन की कम ओर अपनी बेज्जती करवाना ज्यादा होता है, या फ़िर घर के किसी को तेयार कर ले साथ चलने के लिये... ओर एक बार पकड कर इन्हे इन की ओकात बता दे.
जवाब देंहटाएंकब तक उद्दंड हवाओं के डर से चोटी लपेटी जायेगी भला. उद्दंड हवाएँ फिर लपेटी हुई चोटी को खोलने को आतुर हो जायेंगी.
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत है आपकी यह कहानी. सही नब्ज पर नज़र पड़ी है. समाज का यह भी तो तस्वीर है.
और हाँ यह कहानी मैने पहली बार पढी है. आभार फिर से पोस्ट करने के लिये.
जवाब देंहटाएंghoorna to chhodiye agar college ke kuch padhe likhe gunde sath chadhein to sthiti aur gambheer ho jaati hai....iske khilaf sakht kadam uthane ki avashyakta hai...
जवाब देंहटाएंhttp://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
क्षमा याचना की बात क्यों है ? कहानी बेहद सुंदर है और इसी बहाने फिर से पढ़ने को मिली. आपका शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंकहानी इतनी बढ़िया है कि
जवाब देंहटाएंइसे बार-बार पढ़ने को मन चाहता है!
मैने उसे यों ही लहराने दिया, उद्दंड हवा के विरोध में......
जवाब देंहटाएंसशक्त शिल्प रचना !
बेहतरीन कहानी...इस बीमार मानसिकता का क्या कहें..कुछ नहीं. बस, चुप्प!!
जवाब देंहटाएंवंदना जी,
जवाब देंहटाएंआपकी ये कहनी सत्य के नज़दीक है...और आपने नाम भी खूब दिया है -- हवा उद्दंड है...कभी कभी चुप रहना पड़ जाता है पर ऐसे लोगों कि वास्तविकता जगजाहिर करनी ही पड़ती है..नहीं तो ऐसे बुजुर्ग ज्यादा उद्दंड हो जाते हैं...यदि थप्पड़ मार बैठती नायिका तो अपनी उम्र का वास्ता दे कर ही लोगों को अपनी ओर मिला लेते...हर बात संभावित है...
कथा शिल्प बहुत बढ़िया है...बधाई
बहुत ही सशक्त कहानी है...इस तरह की परिस्थितियों से रोज रु-ब-रु होती पता नहीं कितनी ही नवयुवतियों, किशोरियों का दर्द एवं आक्रोश समेटे हुए है यह कहानी...हर नारी को अपनी सी लगेगी ये कहानी.
जवाब देंहटाएंऔर इन उद्दंड हवाओं की बात तो फिर भी एक बार समझ आती है...पर इन बीमार मानसिकता वाले उम्रदराजों का क्या किया जाए?? ये लोग कभी सुधरेंगे ??
And objection me lord.... ये क्षमा याचना कैसी??...मदाम, कोई भी अच्छी कहानी बार बार पढने का मन होता है...और बेकार सी कहानी एक बार भी झेलना मुश्किल...इसलिए तहे दिल से शुक्रिया यहाँ पोस्ट करने का...
निन्दनीय है यह आचरण । सार्वजनिक पिटाई होनी चाहिये ।
जवाब देंहटाएंये सच है की इस तरह की बातों से महिलाओं को रोज ही निपटना पड़ता है पर ये तो विकृत मानसिकता ही है यह मैने पहली बार ही पढी है
जवाब देंहटाएंआभार
सशक्त प्रस्तुति, ये बीमार मानसिकता बढती ही जा रही है, दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे किस्सों में ये लोग अब उम्र का भी ख्याल नहीं करते. पर इनको सुधरने का कोई तो रास्ता होना चाहिए. यथार्थ चित्रण किसको आइना दिखा रहे है? काश वे भी इसको पढ़ें?
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कहानी। फ़िर से पढी! फ़िर बहुत अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंकहानी का विषय बहुत ही अच्छा है और सच भी. ऐसे ही कितने अनचाहे पलों का सामना करना पड़ता है लड़कियों को जिंदगी में
जवाब देंहटाएंआपकी इस कहानी पर टिप्पणियॉं तो ऐसी आई हैं जैसे यह सत्य घटना हो और सभी आपके साथ हों। यह तो हो गया आपकी कहानी का बल। अब प्रश्न उठता है उस मानसिकता का जो आपने चित्रित की है, यह सार्वभौमिक स्तर पर मनोवैज्ञानिक उत्सुकता का विषय है लेकिन यह विचित्र सी लगने वाली मानसिकता वास्तव में सामान्य मानसिकता है, सामाजिक मर्यादाओं के चलते कुछ स्वीकारते हैं कुछ नहीं। इसके मनोवैज्ञानिक कारण भी हैं। मुझे आश्चर्य न होगा यदि बहुत से टिप्पणीकार भी इससे ग्रसित हों। हॉं यह जरूर है कि सभी इसे मानसिक रोग ही मानते हैं और यह है भी।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया कहानी.... बार-बार पढने को मन करता है...
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसच ही है ........ लडकियों के साथ इस तरह की हरकत कभी कभी हो ही जाती है
जवाब देंहटाएंकुछ बार मेरे साथ भी हुआ है सो कहानी अपनी सी लगी .............................
थपड मारना और शोर करना अलग बात है स्तिथि को देख जो सुझबुझ दिखाई है
काबिले तारीफ है कितनी लड़किया ऐसा कर पाती है किशोरवय के लिए तो और
भी मुश्किल होता है .
बात कम उमर के लडको या अधेड़ पुरुषो की है ही नहीं ये कुछ इंसानों की फितरत
या तंग सोच होती है उमर का फरक तो..........................................
आपकी कहानी आज के समाज का दर्पण है...ऐसे पात्र सिर्फ बस में ही नहीं हर घर गली मोहल्ले शहरों में हैं...तिलक जी ने सच कहा ये एक मानसिक रोग है जो किसी को भी हो सकता है..
जवाब देंहटाएंनीरज
MARMIK KAHANI KE LIYE AAPKO BADHAI
जवाब देंहटाएंAUR SHUBH KAMNA.
वंदना जी, लेख हो या कहानी, आपकी शैली हमेशा पाठकों पर अपना असर छोड़ती है. इस कहानी में उद्दंड मानसिकता के बीच जीवन यापन करने वाली महिलाओं का प्रभावशाली शब्द चित्रण किया है आपने. बधाई स्वीकार करें.
जवाब देंहटाएंसमाज का आइना दिखाती हुई है यह कहानी,,रोचक और भावपूर्ण,आभार.
जवाब देंहटाएंसमाज का आइना दिखाती हुई है यह कहानी,,रोचक और भावपूर्ण,आभार.
जवाब देंहटाएंvandana ji....ham log tamashe kee vajah se aise haadse roz hee jhelne ko msjboor hain....isee vishay par meree ek kahani 2001 me grahlaxmi me chhapee thee....vahee sab yaad aa gaya...
जवाब देंहटाएंसाइड स्क्रीन पर चमकती और लहराती 'उद्दंड हवा' पर नज़र ही नहीं पड़ी, वरना अपनी प्रतिक्रया भेजने में इतनी देर न होती; क्षमा करेंगी ! सशक्त कथा--प्रवाहपूर्ण भी ! समाज से ये कमीनगी कम न होगी ! पीढियां बर्दाश्त करती रहें, उनकी बला से ! कथा प्रेरक तत्त्व सम्मुख रखती है; लेकिन प्रेरणाएं भी वे ही ग्रहण करते हैं, जो ग्रहणशील होते हैं ! बीमार मानसिकता वाली जो ये छोटी-सी कौम है, वह ग्रहणशील होती, तो इस हद पर खड़ी न होती ! बहरहाल, कहानी महत्व का सवाल तो खडा करती ही है ! वह अपना असर ग्राहंशीलों पर छोड़ भी चुकी है ! निःसंदेह, आप बधाई की मुस्तहिक हैं !
जवाब देंहटाएंसपीत--आ.
बहुत बढ़िया कहानी लिखी है आपने ...शायद पहले भी पढ़ी है ...आज कल के वक़्त का आईना है यह बहुत पसंद आई ...शुक्रिया
जवाब देंहटाएंमन खिन्न हो गया इस कहानी को पढकर. कुछ इसी तरह का अनुभव मेरा भी रहा है, लेकिन लाज और संकोच के मारे कुछ किया नहीं. ऐसा दिखाती थी जैसे सब 'नार्मल' है...everything is okay!!
जवाब देंहटाएंएक बार हस्तक्षेप.कॉम भी देखें
जवाब देंहटाएंhttp://hastakshep.com