शनिवार, 22 जनवरी 2011

पढी हुई कहानी सुन भी लें.....

आज अपनी एक पुरानी कहानी सुनवाने का मन है. कहानी सुनवाने की इच्छा को, मेरे वरिष्ठ जनों के आग्रह ने और हवा दी. असल में ये सब एक साजिश है, आपको दोबारा कहानी झेलवाने की :) चलिये, सुन ही लीजिये, इस कहानी का प्रसारण दो साल पहले आकाशवाणी से हुआ था,. आज फिर आकाशवाणी गई, तो अपनी कुछ पुरानी रिकॉर्डिंग्स ले आई, उनमें से एक यहां प्रस्तुत है (कहानी सुनते हुये पढ़िये या मन करे तो पढते हुए सुनिये) -


अहसास

"बडकी, टेबल पे नाश्ता तो लगा दो; बारात लौटने से पहले सब कम से कम नाश्ता ही कर लें....."
"बडकी ...... बड़ी जीजी को गरम पानी नहीं दिया क्या? कब नहायेंगीं ? बारात आने ही वाली है.........."

"बडकी....परछन का थाल तैयार किया या नहीं ?.....दुल्हन दरवाजे पर आ जायेगी तब करोगी क्या?"
बडकी -बडकी-बडकी............सबको बस एक ही नाम याद रहता है जैसे......... मेहमानों से ठसाठस भरे इस घर में काम की ज़िम्मेदारी केवल बडकी की...... मशीन बन गई है बडकी जब से छोटे देवर अभय की शादी तय हुई....

शादी भी ऐसे आनन-फानन की कुछ सोचने - प्लान करने का वक्त ही नहीं.... वैसे बडकी यानि बड़ी बहू अलका को कुछ प्लान करने का हक़ ही कहाँ है ? उसके हिस्से में तो केवल कर्तव्य ही आया है। छोटे घर की है न!! इन बड़े घर के लोगों के सामने कुछ भी बोलने का अधिकार है ही कहाँ उसके पास ? जब से आई है, तब से केवल हिदायतें ही तो मिल रहीं हैं । रस्मो-रिवाज़ सीखते -सीखते पाँच साल गुज़र गए....फिर भी अम्मा जी को लगता है कि वह कुछ सीख ही नहीं पाई।

क्या पहनना है, क्या बोलना है, क्या बनाना है, कैसे बनाना है, सब अम्मा जी ही तो तय करतीं हैं । उसका अपना अस्तित्व तो जैसे कुछ रह ही नहीं गया ............. । यहाँ तक कि अपना नाम भी भूल गई है .........बस "बडकी" बन के रह गई है। .......भूल गई है कि कभी कॉलेज की बेहतरीन छात्राओं में से एक गिनी जाती थी वह । भूल गई है, कि उसके सलीके, उसके पहनावे , उसके बातचीत के तरीके और उसकी बुद्धिमत्ता के क़ायल थे कभी लोग.............. । उसके अपने घर में उसकी सलाह महत्वपूर्ण मानी जाती थी।

लेकिन यहाँ ?? यहाँ तो उसे ख़ुद आश्चर्य होता है अपने आप पर। कैसा दब गया है उसका व्यक्तित्व! लगता जैसे नए सिरे से कोई मूर्ति गढ़ रहा है। ये वो अलका तो नहीं जिसका उदाहरण उसके शहर की अन्य माँएँ अपनी बेटियों को दिया करतीं थीं।

पाँच बरस हो गए अलका की शादी को , लेकिन आज भी नई-नवेली दुल्हन की तरह सर झुकाए सारे आदेश सर-माथे लेने पड़ते हैं। पाँच साल पहले की अलका कितनी खुशनुमा थी। एकदम ताज़ा हवा की तरह। उसकी खनकदार आवाज़ गूंजती रहती थी घर में। गुनगुनाते हुए हर काम करने की आदत थी उसकी। और इसी आदत पर बबाल हो गया यहाँ।

"घर की बड़ी बहू हो । ज़रा कायदे से रहना सीखो। क्या हर वक्त मुजरा करती रहती हो.... । "

मुज़रा !!! बाप रे!!!! सन्नाटे में आ गई थी अलका। नहीं। अब नहीं गाऊँगी। बस! तब से गुनगुनाना भी बंद।

अलका को चटख रंग कभी पसंद नहीं आते थे। एकदम हलके पर खिले खिले से रंग उसे खूब पसंद थे। ऐसे ही रंगों की बेहतरीन साडियां भी उसने खरीदीं थीं अपनी शादी के समय। तमाम रस्मों के दौरान भारी साडियां ही पहने रही थी, लेकिन तीन - चार दिन बाद थोड़ा हल्का महसूस करने के लिए अपनी पसंद की साड़ी पहनी और कमरे से बाहर आई तो अम्मा जी ने ऐसे घूरना शुरू किया जैसे पाता नहीं कितना बड़ा अपराध हो गया हो उससे। छूटते ही बोलीं-

" ये क्या मातमी कपड़े पहने हो ? हमारे यहाँ ऐसे कपड़े नई बहुएँ नहीं पहनती कोई देखे तो क्या कहे? जाओ। बदल कर आओ। अब यहाँ के हिसाब से रहना सीखो। "

तब से ले कर आज तक उन्हीं की पसंद की साडियां पहनती चली आ रही है।

सुबह की सब्जी शाम को भी खाई जाए अलका को ये बिल्कुल पसंद नहीं। फिर जिसे खाना हो खाए, अलका तो नहीं ही खायेगी। पूरे खाने का स्वाद ही ख़त्म हो जाता है जैसे .......................यहाँ अक्सर ही ऐसा होता है। सुबह दो सब्जियाँ बनवाई जातीं ज़ाहिर है बच भी जायेगी। ऐसे में अपनी कटोरी में ज़रा सी सब्जी ले लेती अलका उसी में किसी प्रकार निगलती खाना.....इसी बात पर सुना एक दिन अम्मा जी कह रहीं हैं-

" इसे तो सब्जी खाने की आदत ही नहीं है। पता नहीं...... शायद मायके में सब्जी बनती ही न रही होगी इसी लिए सब्जी खाने की आदत ही नहीं है॥"

तब से रोज़ अनिच्छा से सही, बासी सब्जी खा रही है अलका....... ।

आधुनिकता का झूठा लबादा ओढे अलका की ससुराल में एलान हुआ था - ' हमारे यहाँ सब एक साथ खाना खाते हैं" अच्छा लगा था उसे। लेकिन जब खाना खाने बैठे तो बगल में बैठी अम्मा जी ने टोका-

" बडकी ज़रा पल्लू खींच लो। तुम्हारे बाल दिखाई दे रहे हैं। पल्लू माथे तक रहना चाहिए, बालों की झलक न मिले।"

मन बुझ गया था अलका का। पिता समान ससुर के सामने इतनी वर्जनाएं क्यों ? फिर अगर ऐसा ही है तो साथ में खाना खाने की ज़रूरत ही क्या है?
अलका के पति रवि सुदर्शन ; सुशिक्षित हैं लेकिन किसी बड़े नामचीन पद पर आसीन नहीं हैं। बस इसीलिए अलका भी घर में सम्मानित जगह नहीं पा सकती । छोटा देवर इंजीनियर है , साल में एक-दो बार आता है , अम्मा जी के लिए साड़ी और छिट-पुट सामान ले आता है चार दिन रहता है सो जी खोल कर खर्च करता है। इसीलिए बहुत अच्छा है। घर में उसकी इज्ज़त भी रवि से कई गुना ज़्यादा है।
इसी अभय की शादी हो रही है। बारात बस आती ही होगी। किन-किन ख्यालों ने घेर लिया था अलका को......... । सर झटक के उठ खड़ी हुई अलका।

" नानी बारात आ गई............"
"बुआ जल्दी चलो, नई दुल्हन आ गई है..........."
" अरे बडकी मामी, तुम भी चलो न!!......

तुम भी? मतलब चलो तो ठीक है नही चलो तो भी ठीक है ।
पर्दे पर तो कलाकार ही दिखते हैं ना,परदे के पीछे
उस दृश्य को तैयार करने में जुटने वाले लोग और उनकी मेहनत किसे दिखती है ? उनका तो कोई नाम भी नही जानता। ठीक यही हाल अलका का है। पूरी तैयारी उसी ने की है लेकिन कोई ये कहने वाला तक नही कि अलका ने बड़ी मेहनत की।
नई बहू का परछन हो रहा है,सास ने अपने गले की तीन तोले की चेन उतार कर बहू को पहना दी। एक -एक कर सारे रिश्तेदारों ने रस्म अदा की। बडकी के साथ भी ये ही सारी रस्में हुई थी लेकिन सास ने क्या दिया था? मुश्किल से चार ग्राम के कान के बुन्दे !!
खैर... अलका बहुत ज़्यादा नही सोचती इस बारे में । लेकिन सोचने की बात तो है न!!
" नई दुल्हन को बैठने तो दो........."

" हटो भीड़ मत लगाओ रे............"

" थोड़ा आराम कर लेने दो, फिर बात करना....."
किसी किसी प्रकार बच्चा पार्टी नई दुल्हन के पास से हटी।

घर में सुबह सबसे पहले उठने की जिम्मेदारी बडकी की ही है। उठकर किचन में सबके लिये चाय चढाना।
फिर सारे रिश्तेदारो तक पहुंचवाना भी एक बड़ा काम था। आज भी बडकी आदत के अनुसार छ्ह बजे उठकर नीचे उतर आई थी, उसने देखा, नई बहू का कमरा अभी बंद था। राहत की एक लम्बी सांस ली उसने। पता नहीं क्यों उसे लग रहा था, कि यदि नई बहू उससे पहले उठ गई, तो उसे दिए जाने वाले तमाम,ताउम्र उदाहरणॊं में ये भी शामिल हो जायेगा। शादी के बाद उसे पहले ही दिन उठने में साढे छह बज गये थे, और तब से लेकर आज तक सैकडॊं बार उसे यह बात सुनाई जा चुकी है। उसकी नींद को लेकर फ़ब्तियां कसी जाती रहतीं हैं। बस इसलिये नई दुल्हन का दरवाजा बंद देख उसे ऐसा लगा,जैसे कोई बहुत बडा बोझ उसके सर से उतर गया हो।

टॆबल पर अम्मा जी और कुछ अन्य लोगों की चाय लगा दी थी बड्की ने। पौने सात बजे छोटी बहू किरन बाहर निकली। अपने नाइट गाउन के ऊपर ही दुपट्टा ओढ कर छोटी किचन में आई।

"हाय भाभी! गुड मोर्निंग। दो कप चाय मिलेगी क्या?"

बड्की ने तत्काल दो कप चाय ट्रे में रख दी। उसे लग रहा था, कि एक तो छोटी देर से उठी उस पर गाउन पहने ही बाहर चली आयी, और अब दो कप चाय लेकर वापस जा रही है। अम्मा जी से मिली भी नही, गाउन पहने है शायद इसलिये ........ ।

लेकिन ये क्या,सुना बड्की ने मगर कानों पर भरोसा नहीं हुआ। अम्मा जी भी कह रही थी छोटी से

" अरे छोटी इतनी जल्दी क्यों उठ गयी? जाओ थोडा और आराम कर लो। कोई काम तो करना नही है---। "

हैं!! ये क्या वही अम्मा जी हैं?? अचम्भित है बड्की.... ।

न उसके बैठने पर कुछ कहा न उसके कपड़ों पर..... ।

अगले दो दिन फ़िर भारी व्यस्तता से भरे थे। रिसेप्शन के बाद मेहमानों की विदाई और घर व्यवस्थित करने में ही पांच दिन निकल गये। आज कुछ राहत मिली तो बड्की अपने कमरे में लेट गई। सोचा लंच में तो अभी देर है, थोडा आराम ही कर लूं। तभी जोर से खिलखिलाने की आवाज ने उसे चौका दिया-उठ कर देखा तो छोटी मेज पर खाना लगा रही थी, और चह्कते हुए पापा यानी ससुर जी को बता रही थी कि उसने क्या-क्या बनाया है। और सास जी? वो भी भाव-विभोर हो कर उसकी बातें सुन रही थी।

समझ में ही नही आया बड्की को ;क्या हो रहा है। ये दो तरह का व्यवहार क्यों? उस पर इतनी पाबंदियां और छोटी पर??

शाम को फ़िर छोटी सास जी से जिद कर रही थी, बच्चों की तरह-

"चलिए मम्मी जी.... आइसक्रीम खाने चलेंगे........... । "

अलका की आंखों में भय और अचरज का भाव देखकर तुरन्त अम्माजी बोलीं-" अरे छोटी है न...

इसलिये , अरे ओ अभय तू ही खिला ला आइसक्रीम। मैं तो न जा पाऊगीं"

रवि से कभी कहा उन्होनें, कि बड्की को आइसक्रीम खिला ला? उसे घूमना अच्छा नही लगता क्या?

और पूरे दस दिन बाद ही छोटी सूट पहनकर खडी थी, जिसे पहनने की हिम्मत अलका पांच सालों में भी नही कर पायी। और अम्मा भी
"हो गया छोटी है पहनने दो । बड़ों को शोभा नही देता सो तुम न पहनना बड्की। "

" बडो को? मैं कितनी बडी हूं, उससे केवल दो साल न?

छोटी ने तो रोज़ का रुटीन बना लिया था, घूमने का। सुबह भी कुछ बनाने का मन हुआ तो ठीक है नही तो नहीं। दोनों टाइम का खाना बड़्की के सिर पर..... ।

कहीं भी जाना है तो इठलाकर पूछ्ती थी जाऊं न मम्मा??

और अम्माजी गद गद हो जाती। तुरन्त कह्ती-

" हां हां जाओ न। खाना बड़की बना लेगी। "

पता नही अम्मा जी की जुबान पर किसने ताला डाल रखा था, अभय की नौकरी ने या दहेज में आये चार लाख रुपयों ने......... ।

लेकिन नही अब नहीं। अगर एक बहू के लिये अम्माजी इतनी दरियादिल और आधुनिक हो सकती हैं,तो उन्हें दूसरी के साथ भी यही रवैया अपनाना होगा। बस अब बहुत हुआ।

यदि रवि अपनी और अपनी पत्नी की स्थिती पर कुछ नही बोल सकते तो अब बड्की को ही आवाज उठानी होगी। अब कल से बड्की अपनी तरह से जियेगी। सबसे पहले उन संस्थानों में आवेदन करेगी जिन्हें उसकी ज़रूरत है।

कितना हल्का महसूस कर रही है बड्की...............

आज चैन की नींद सोयेगी अलका...... ।





34 टिप्‍पणियां:

  1. अनगिनत बड़कियों का भाग्य ऐसा ही होता है। पता नहीं क्यों

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  2. बड़की ने सही फैसला लिया। कहाने बहुत अच्छी लगी।

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  3. बड़की का फैसला इक दम सही है, लाजवाब लगी कहानी ।

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  4. बहुत ही बढ़िया कहानी.......हमने तो भई दो बार सुनी...{पढने के अंदाज़ से,कुछ सीखना भी था, ना:) }
    कहानी जितनी सुन्दर ,उसे कहने का अंदाज़ उस से भी बेहतर ...मजा आ गया सच.

    हर घर की कहानी है...सारा रौब...सारी रोक-टोक बड़ी बहू के लिए ही होती है...उसपर अगर उसका पति ज्यादा ना कमाता हो...और छोटी ने ज्यादा दहेज़ लाया हो..फिर तो बड़की की मुश्किलें और बढ़ जाती हैं. पर अब बड़की जाग गयी हैं..
    कहानी का पौज़ीटिव नॉट पर ख़त्म होना और भाया.

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  5. वंदना जी, बहुत अच्छी कहानी लगी...
    बहुत बड़ा पैग़ाम दिया है आपने...
    बहुओं की छोड़िए, बहुत से अपेक्षाकृत कम कमाने वाले ’रवि सुदर्शन’ भी अपनों की ऐसी ही उपेक्षा के पात्र बने हुए देखे जा सकते हैं.

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  6. वाह !अनायास ही ये शब्द मन से निकलता है ,उस पर से पढ़ने का बेहतरीन अंदाज़ इसे और भी प्रभावशाली बना रहा है ,आरंभ से अंत तक कहानी पाठक/श्रोता को बांधे रखने में सक्षम है
    बिल्कुल सही है कि जो भी ज़िम्मेदारी लेता है या लिहाज़ करता है उसी के साथ ही ये सब भी होता है

    अंत बहुत अच्छा है अगर ऐसा संभव हो सके ,और जिस दिन ये संभव होने लगेगा ,समान व्यवहार भी होने लगेगा
    अब हर बार कहानी सुनने को भी मिलेगी न?

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  7. बड़की हां ऎसी नारी ही एक दिन सब के दिलो पर राज करती हे, घर की मालकिन बनती हे,एक दिन अम्मा पश्छतायेगी इस छुटकी की आजादी के कारण, उस दिन यह बडकी ही काम आयेगी, हमारे सभी घरो मे होती हे बडकी भी ओर यह छुटकी भी, बहुत सुंदर कहानी, धन्यवाद

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  8. जानी पहचानी सी कहानी लगी यह ..सब कुछ चुपचाप बर्दाश्त कर लेने वालों की आज के ज़माने में यही हाल होता है ,खैर , देर से ही सही ...अलका जागी तो
    अच्छा लगा सहज अंदाज में इसे पढना !

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  9. कहानी तो पढ़ी हुई थी ही। फ़िर से अच्छी लगी।
    आपकी आवाज में इसे सुनना बहुत अच्छा लगा। यह भी लगा कि अच्छी से अच्छी पोस्टें पढ़ी भले एक ही बार जाती हों लेकिन अगर अच्छी आवाज में अच्छी तरह से रिकार्ड (पाडकास्ट ) की गयीं हो तो सुनी कई बार जा सकतीं हैं।

    इस कहानी के साथ भी ऐसा हुआ। अच्छा, बहुत अच्छा लगा आपकी आवाज में इसे सुनना। :)

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  10. vandana ji....
    aisa laga jaise badki ki tasveer aankho ke saamne ujaagar ho gayi ho....poore waqt dhyaan magn ho ke sunta raha aapki man-mohak aawaz...badki ko waakai mein waise hee pyaar aur aadar milna chahhiye jo chhoti ko milta hai...
    khoobsurat kahaani.

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  11. अगर एक बहू के लिये अम्माजी इतनी दरियादिल और आधुनिक हो सकती हैं,तो उन्हें दूसरी के साथ भी यही रवैया अपनाना होगा। बस अब बहुत हुआ.....बहुत सुंदर कहानी, धन्यवाद.

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  12. सच के धरातल पर खड़ी बहुत सुन्दर कहानी...आखिर किसी न किसी दिन तो आवाज़ उठानी ही होगी..

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  13. कहानी तो जबर्दस्त्त है ही उसपर आपका सुनाने का दिलकश अंदाज ...
    वाह वाह वाह
    पढ़ने दुबारा आउंगी .

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  14. ईमानदारी से कही गई आत्मकथा बहुत रोचक और प्रेरक भी है!

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  15. पढी हुई थी कहानी। अब सुन भी ली गई आपकी आवाज में। ये काम बढिया किया आपने रिकार्डिंग को यहॉं पर देकर।

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  16. ना जाने कितनी बड़की यूं ही जीती हैं.......बहुत अच्छा लगा कहानी सुनकर ....

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  17. कहानी लम्बी है .. में इसे पहली बार पढ़ रहा हूँ कम ही टाइम है हमारे पास फिर भी थोडा बहुत छोड़ छोड़ के पढ़ लिया है । अच्छा लिखते हो लिखा करो ।

    मिनिस्टर का लड़का फ़ैल हो। क्या वो मिनिस्टर उसे गोली मार देगा ? क्लिक कीजिये और पढ़िए पूरी कहानी और एक टिपण्णी छोड़ देना

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  18. वन्दना जी,

    मैंने सुना था कि बड़े होने के लिये बड़ा होना पड़ता है, लेकिन घर में बड़ा होने के नाते इस जिम्मेदारी को इस कदर ढोया है कि दिल चाहता है कि छोटा बन जाऊँ। बड़की के दर्द को समझा नही जा सकता केवल महसूसने का है........

    बड़की के लिये पूरी हमदर्दी के साथ.....

    सादर,

    मुकेश कुमार तिवारी
    कवितायन

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  19. hamne pahli bar padha ... so sayad ... kuch jyada achha laga ho .....

    pranam.

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  20. आपकी कहानी में कहीं अपने आप को भी खड़ा पाती हूँ. सराहनीय प्रस्तुति

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  21. गणतंत्र दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई ...

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  22. waah iske recording par to main bhi rahi aur suni rahi tab bhi pasand rahi aaj bhi hai .jai hind ,badhai is pavan parv ki .

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  23. vandana ji, kahani bahut achi lagi.mai to kahani ko sunte huye padh rahi thi.badhakika antim nirnay accha laga mujhe......

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  24. vandana ji, kahani bahut achi lagi.mai to kahani ko sunte huye padh rahi thi.badhakika antim nirnay accha laga mujhe......

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  25. वंदना जी.... कहानी बहुत पसंद आई।
    आपने बहुत अच्छी कहानी लिखी।

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  26. वंदना,
    बहुत सही तस्वीर खींची है, एक मध्यमवर्गीय परिवार की , ऐसा ही होता है हर बड़की के साथ - पति का ओहदा और दहेज़ का भारीपन ही उनको घर में जगह दिलाता है. बहुत सारे घरों कि कहानी यही है. बस तुमने पेश करके उसको सामने लगा दिया है. बहुत बहुत बधाई.

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  27. शायद पहली बार कोई कहानी पूरी पढ़ी है...आखिर तक जल्दी होने के बावजूद, छोड़ नहीं पाया !

    एक सामान्य और आम परिवार का बेहतरीन शब्द चित्रण किया है आपने वंदना जी ...

    ऐसे ताने और वक्त के साथ अपने को बदल लेना लगभग हर दूसरे घर की कहानी है ! बडकी ने देर से ही सही फैसला तो किया !

    बडकी और आपको को शुभकामनायें

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  28. वन्दना अवस्थी जी....
    आपने बहुत अच्छी कहानी लिखी।
    शायद यही हर घर की कहानी है... बड़कियों का भाग्य ऐसा ही होता है।
    शुभकामनायें.....

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  29. घर घर की सच्चाई से रूबरू कराती कहानी।

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  30. वाह कहानी के साथ भावनाए हिंडोले लेती रही . हर दृश्य और वार्तालाप वास्तविकता का आभास करता हुआ . मैंने इतने दिनों बाद ये कहानी एक दोस्त के कहने पर पढ़ी .. कॉपी राइट करा लीजिये

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  31. शुक्रिया आषीश जी. आपके उस दोस्त की अधिक शुक्रगुज़ार हूं, जिसके कहने पर आप इतने दिनों बाद आये.आषीश जी, भावों का कॉपीराइट कैसे हो? किसी एक प्लॉट का कॉपीराइट भी नहीं करवाया जा सकता. सलाह के लिये एक बार फिर शुक्रिया.

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  32. सार्थक और प्रभावशाली कहानी.....

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  33. अपना हक बढ कर लेना पड़ता है ट्रे में सजा कर कोई नहीं देता...बहुत अच्छी कहानी 👏👏

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