शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

अलग-अलग दायरे..

"हल्लो नीरू "
'अरे !तुम आ गईं!.... आओ-आओ' मैं हाथ की झाडू वहीं छोड़ खड़ी हो गई थी, शर्म से पानी-पानी।
'तुम काम कर रहीं थीं, मैंने डिस्टर्ब कर दिया न,जल्दी आ के?'
'नहीं यार....वो तो आज इतवार है न, बस इसीलिए सफाई का काम देर तक चलता रहता है। अरे बैठो न!
राजी अपनी आदत के अनुसार धम्म से सोफे पर गिर गई,लेकिन इस धम्म के साथ ही एक जोरदार खटका भी हुआ, और मैं दरवाजे से बाहर देखने लगी। जानती थी,की राजी के ज़ोर से बैठने के कारण ,सोफे में मैंने जो अभी-अभी लकडी की तख्ती जोड़ी थी , निकल गई है।
'तुम बैठो, मैं ये कचरा निकाल के आती हूँ।'
और मैं जल्दी-जल्दी कचरा समेटने लगी। ये राजी भी तो समय से एक घंटा पहले ही आ गई है। वरना इस एक घंटे में तो मैं सफाई कर लेती, बच्चों को तैयार कर देती। अब पता नहीं कहाँ गंदे से खेल रहे होंगे!खैर अब जो होगा देखा जाएगा। हाथ धोकर मैं फिर से ड्राइंग रूम (?) में आ गई थी।
'नीरू डियर , पता नहीं तुम इतना सब कैसे कर लेती हो! मेरी तो सच्ची, बिल्कुल आदत ही नहीं है। ज़रा सा कुछ करना पड़ जाए तो बेहद थक जाती हूँ।'
'यहाँ तो मैं अकेली हूँ न, बस इसीलिए आदत सी पड़ गई है, हमारी बाई भी तो कल ही छुट्टी लेकर गई है।'
कहते-कहते हिचक सी गई थी मैं...लगा की राजी सब समझ रही है, की हमारे यहाँ बाई थी ही कहाँ !
'मम्मी-मम्मी.....देखो, मीतु ने मेरे ऊपर मिटटी डाल दी.....'
'मम्मी गीतू ने पहले डाली थी....'
गीतू-मीतु एक दूसरे की शिकायत लिए, सर से पैर तक मिटटी में नहाये हुए ड्राइंग रूम में खड़े थे। मेरे तो आंसू ही आ गए। इससे लाख दर्जे साफ -सुथरे तो रोज़ रहते हैं।
'राजी, ज़रा इनके कपड़े बदल दूँ, अभी आई। '
अन्दर आकर में बच्चों के कपड़े बदलने लगी थी।
'मम्मी, हम लोग कहीं जा रहे हैं क्या?'
'नही तो...'
'फ़िर ये नए वाले कपड़े क्यों पहना रही हो?'
उफ़!!!
सारी इज्ज़त धुलवा कर ही दम लेंगे ये बच्चे!! लेकिन वे भी क्या करें, आश्चर्य तो उन्हें होगा ही, मैं उन्हें वे कपड़े घर में पहनने ही कहाँ देती थी। जैसे-तैसे इशारे से उन्हें समझाया की चुप रहें।
ड्राइंग-रूम में आते ही राजी ने पूछा-'सुनील नहीं दिखाई दे रहे...'
'पता नहीं कहाँ निकाल गए॥'(बाज़ार गए हैं, कुछ नाश्ता लेने, मुझे अच्छी तरह पता है) ये सुनील भी तो बस! सुबह से कह रही थी की कुछ मिठाई वगैरह ले आयें.....अब इस राजी के सामने ही आयेंगे।
'तुम्हारा घर छोटा है, पर सुंदर है। तुम साफ भी तो खूब रखती हो।' 'चर्र......................''अरे क्या हुआ??''कुछ नहीं, तुम्हारे सोफे की कोई कील निकली थी शायद...साड़ी फंस गई है मेरी॥'
'रुको मैं निकाल देती हूँ...' कहती हुई मैं सोफे के पाए की कील में फँसी राजी की साड़ी निकालने के लिए झुकी। लेकिन हाय री किस्मत!!! मेरे ज़रा झुकते ही मेरी साड़ी का पल्लू लटक आया,और यत्न से छुपाई गई सीवन साफ़ दिखाई देने लगी।
ये राजी भी तो.....इतनी जल्दी आने की क्या ज़रूरत थी? साड़ी भी तो नहीं बदल पाई मैं॥
'तुम्हारी साड़ी फट गई है, लाओ मैं सिल देती हूँ....'
'अरे नहीं यार..... वैसे भी मैं इसे कई बार पहन चुकी हूँ, इसके रिटायरमेंट के दिन हैं....'
(इतनी अच्छी साड़ी... और इसका रिटायरमेंट!!)
'पापा आ गए....पापा आ गए.....'
सुनील आ गए थे,पुराना लंबा थैला साइकल पर लटकाए हुए। राजी की निगाह थैले पर ही अटकी रह गई थी। और मुझे भी सुनील नहीं थैला ही दिखाई दे रहा था। मुस्कुराते हुए सुनील थैले सहित ड्राइंग-रूम में आ गए। राजी के नमस्कार का उत्तर दे, मुझे आंखों ही आंखों में चिढाते से सुनील अन्दर चले गए। मैं तिलमिला के रह गई थी। मेरे अन्दर की हलचल मेरे चेहरे पर भी आ गई थी शायद,राजी ने पूछ ही लिया,' क्या बात है, परेशान लग रही हो?'
'अरे नहीं यार, मैं भी कैसी भुल्लकड़ हूँ, तुम्हें आए इतनी देर हो गई और मैंने पानी तक को नहीं पूछा! अभी आई'
सुनील आराम से अन्दर बैठे थे। गुस्से के मारे मैंने उनकी तरफ देखा तक नहीं, लेकिन सुनील भी कम नहीं हैं, दूसरी बार मेरे वहाँ से निकलते ही इतनी ज़ोर से चोटी खीची की ढेर सारा पानी ट्रे में गिर गया। इनका बचपना अभी तक गया नहीं। कोई गुस्सा हो भी तो कैसे? चाय बनाने अन्दर आई तो पीछे से राजी की आवाज़ आई-
'मैं अन्दर आ सकती हूँ नीरू?'
'हाँ-हाँ क्यों नहीं........'कहते-कहते मैंने एक नज़र बेड पर डाली, और अपने मम्मी-पापा को ढेर सा शुक्रियादा किया जिन्होंने ये सारा सामान मुझे दिया था,वरना सुनील की तनख्वाह में तो महीने के आखिरी दिन जैसे-तैसे ही कटते हैं...
सुनील के लाये हुए नाश्ते को प्लेट में लगा के लाई , तभी पता नहीं कहाँ से दोनों बच्चे भी प्रकट हो गए। और बेड से लग कर खड़े हो गए। अब तो कोई इशारा भी नहीं कर सकती थी मैं।
'आओ-आओ मीतू, गीतू तुम भी खाओ।'
दोनों मेरी ओर देखने लगे मेरे लेलो-ले लो कहते ही दोनों मिठाई की प्लेट पर टूट पड़े। उफ़!! कितने गंवार हैं दोनों!किसी प्रकार उन्हें बाहर भेजा तो जाते-जाते मीतू ने अपने धक्के से टेबल पर रखा पानी का गिलास ही गिरा दिया।पूरे कमरे में पानी फैल गया,और गीतू ने जाते-जाते नमकीन की प्लेट से ऐसा मुट्ठा भरा,की बेड रूम से लेकर बाहर तक नमकीन का रास्ता ही बनाती गई।
'अच्छा नीरू, अब मैं चलूँ.... आज मार्केट भी जाना है'
राजी को उसकी गाडी तक छोड़ आई थी। अबतक घटी सारी बातें सोच-सोच कर मुझे रोना आ रहा था।
'नीरू जल्दी खाना लगाओ यार, तुम्हारी सहेली ने तो भूखा मार दिया'
'आज तो हद ही कर दी तुम लोगों ने। सारी गरीबी उसे ही दिखानी थी?ये बच्चे भी बस!!नाश्ता देखते ही ऐसे टूट पड़े जैसे कभी खाने को ही न मिलता हो।'
'ठीक भी तो है नीरू। हमारे बच्चे कब-कब मिठाई खाते हैं?बच्चों को दोष देना एकदम ग़लत है। दरअसल सच तो ये है की सभी व्यक्ति अपने तबके के लोगों में ही घुल-मिल पाते हैं। मित्रता उनके बीच ही कायम रह सकती है, जिनमें बनावट नहो, दिखावा नहो। और एक दूसरे को समझने की क्षमता हो।'उपदेश देकर सुनील बाहर चले गए थे। और मैं बैठी-बैठी सोच रही थी, की अब इस बिखरे हुए घर को सहेजने में कम से कम एक घंटा तो लगेगा ही।

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

आस-पास बिखरे लोग...

"क्या हुआ?”
"पता नहीं"
"तो फिर आप यहां क्या कर रहे हैं?"
"जो आप कर रहे हैं"

नीली कमीज़ वाले के पूछने पर सफेद कमीज़ वाले ने बेहद रूखा पर मुंहतोड जवाब दिया था। चौराहे पर भीड दोगुनी हो गई थी। लोग अलग-अलग टोलियां बनाये खडे थे। नीली कमीज़ वाले की जिज्ञासा अभी तक शांत नहीं हुई थी,सो वह कभी इस टोली कभी उस टोली में खडा हो, घटना को समझने की कोशिश कर रहा था। और अब जाके ,इतनी देर बाद उसे समझ आया कि सामने वाले घर में बहू जल मरी या मार दी गई।

’अरे साहब!घर के लोगों ने खुद ही जला दिया, और अब नाटक फैला रहे हैंकि बहू खुद ही जल मरी।’’
"ये तो बडी बुरी बात है। यहां इतनी बडी दुर्घटना हो गई और आप सब खडे-खडे तमाशा देख रहे हैं।’ नीली कमीज़ वाला अपनी पेंट ऊपर चढाते हुए बोला।

’हम सब तो तमाशा देख रहे हैं,आप ही कुछ क्यों नहीं करते?’’
"मुझे तो पूरी घटना ही नहीं मालूम थी।’
’अब तो मालूम हो गई? अब कुछ करिये।’
’अरे नहीं साहब, ये विवाद का वक्त नहीं है। इस केस पर विचार करना चाहिये। ’
बात बिगडती देख नीली कमीज़ वाला खिसिया कर फिर अपनी पेंट ऊपर चढाने लगा।
’पहले अपनी पेंट तो सम्भाल लो, फिर केस सम्भालना।’
ज़ोरदार ठहाका हवा में तैर गया। नीली कमीज़ वाला वहां से खिसक गया था।
’यार वो वाली फिल्म देखी उसमें भी सास बहू को बडा दुख देती थी।’
’मैं तो ऐसी रोनी फिल्में देखता ही नहीं। क्या फ़ायदा?’
’और कौंमेडी फ़िल्म्स देखने से फ़ायदा है?’
नीली कमीज़ वाला था। लेकिन उसके सवाल का जवाब देना किसी ने ज़रूरी नहीं समझा।
’ देख यार वो गुलाबी सूट वाली लडकी.....’
’हां यार.......बडी सुन्दर है..... चल॥ उसके पास से निकलते हैं॥’
’जनाब ये तो ठीक बात नहीं...पहली बात तो यहां बहू जला दी गई, दूसरी ये कि आपलोग मामले की गंभीरता को समझने की बजाय लड्की को छेडने का प्लान बना रहे हैं...कोई आपकी बहन को ऐसा ही कहे तो?’

’कौन स्साला मेरी बहन तक पहुंच रहा है? "

लडके ने पलटकर देखा तो नीली कमीज़ वाला अपनी बात कहने के बाद अब उसकी गंभीरता समझ रहा था, दूसरे लडके बीच-बचाव ना करते तो शायद बुरी तरह पिट जाता नीली कमीज़ वाला।
सामने वाले घर से ज़ोर-ज़ोर से रोने की आवाज़ें आने लगीं थीं, पुलिस के दो सिपाही आ रहे थे, शायद इसीलिये। भीड फिर तितर-बितर हो गई थी। लोगबाग सिपाहियों के पीछे-पीछे उस घर की बाउन्ड्री में घुस गये थे। बाकी तमाशबीन घर के बाहर ही भीड लगाके खडे थे। चौरहे पर अब इक्के-दुक्के लोग ही घूम रहे थे।

’बडा बुरा हुआ साहब! और लोगों को तो देखो, कुछ करते ही नहीं।
’अरे श्रीमान जी यदि मैं इस मोहल्ले में रहता होता, तो इन लोगों को बचने न देता। पता नहीं इस मोहल्ले के लोग कैसे डरपोक हैं...कैसे सब देख-सुन रहे हैं, और चुप हैं।’
’लो भला!! देख तो आपके साथ ही रहे हैं। जितना आपको मालूम है, उतना ही हमें भी... घटना कोई सबके सामने तो हुई नहीं॥ कयास हैं केवल....’

’घटना का पता कैसे लगा? मतलब कब हुई...??मुझे तो कुछ खास नहीं मालूम, लेकिन जब शोर उठा उस वक्त मैं यहीं अपने घर के बाहर ही था। सामने वाले घर में तेज़ रेडियो बज रहा था।रोने की आवाज़ें सुनाई दीं, तो उसी घर के छुटके बच्चे से जो बाहर ही था, पूछा तो बोला कि छोटी भाभी जल के मर गईं। कमरे में बंद हैं। मेरे पूछने पर कि कब से बंद हैं, बोला दस-पन्द्रह मिनट से। अब साहब! दस-पन्द्रह मिनट में तो आदमी पूरी तरह जल भी नहीं पायेगा, उन्होंने मरा हुआ कैसे डिक्लेयर कर दिया?’
’अरे वाह!! भई कमाल की जानकारी है आपके पास तो!!!’

बताने वाला घबरा गया था।दोनों सिपाही बाहर आ गये थे, और अब मोहल्ले वालों से पूछताछ कर रहे थे।
’क्यों भैये...तुमने लडकी के रोने-चिल्लाने की आवाज़ें तो सुनीं होंगीं?’
’ऐं.....कहां....मैं तो आज उठा ही बहुत देर से हूं।’
’क्यों भाई साहब, आप तो ऊपर ही रहते हैं, आप ने तो ज़रूर सुनी होंगीं।"
’मैं.........मैंने कहां सुनी........मैं तो अभी-अभी बाहर से लौटा हूं।’
’श्रीमान जी, आप को तो बडी अच्छी जानकारी है, आप ही उन पुलिस वालों को कुछ क्यों नहीं बताते?’
’मैं?? अरे सब सुना-सुनाया है, मैने कुछ देखा थोडे ही है...’

और वे वहां से खिसक गये थे। और अब धीरे-धीरे सारे लोग खिसकने लगे थे। पता नहीं कब कौन पुलिस की चपेट में आ जाये......!!! पुलिस वाले भी खानापूर्ती के लिये ऊट्पटांग बयान दर्ज़ कर वापस चले गये थे। पोस्ट्मार्टम हुआ, रिपोर्ट आत्महत्या सिद्ध कर रही थी। और लोग अपने-अपने घरों में ज़ोर-शोर से कहते नज़र आ रहे थे कि ये हत्या है, लेकिन बाहर किसी के पूछने पर तत्काल अपनी बात से मुकर जाते, पुलिसिया झंझटों से बचने के लिये।और एक महत्वपूर्ण केस दब गया था, उचित जानकारी के अभाव में.....।