गुरुवार, 21 मई 2009

अज्ञात

यादों की नागफनी सी चुभती रात,
होंठों पर पथराती अंतस की बात।
सब कुछ विष बोरा सा ,सब कुछ बदरंग,
ख़त्म नहीं होता है , दर्द का प्रसंग।
( यह रचना भी बुद्धिनाथ मिश्र की है, जो याद रहती है.)

रविवार, 10 मई 2009

"ऐसी होती है माँ"

तेरे दामन में सितारे हैं, तो होंगे ऐ फलक,
मुझको अपनी माँ की मैली ओढ़नी अच्छी लगी।

लबों पे उसके कभी बददुआ नहीं होती,
बस एक माँ है जो मुझसे खफा नहीं होती।

ये ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता,
मैं जब तक घर न लौटूं, मेरी माँ सज़दे में रहती है।

( माँ के लिए कही गई मुन्नवर राना की इन पंक्तियों से बेहतर मुझे कोई और रचना नही लगती)

शुक्रवार, 1 मई 2009

'हवा उद्दंड है'


"अन्नू..... उठ जाओ, छह बज गए हैं।"
मम्मी की आवाज़ के साथ ही मेरी आँखें खुल गई थीं। क्या मुसीबत है! ऐसे कडाके की ठण्ड में उठना होगा! यदि इस वक्त ज़रा भी आलस किया तो 'बस ' के समय तक तैयार होना बड़ा मुश्किल होगा। बस का ख्याल आते ही एक झटके से रजाई फ़ेंक उठ खड़ी हुई थी मैं। सर्दियों में तो सचमुच ही सुबह उठना बहुत अखरता है। भइया और गिन्नी मेरी छोटी बहन को सोते देख बड़ी ईर्ष्या होती है, उनसे। भइया तो वैसे भी धुरंधर सुबक्कड़ हैं। यदि उन्हें दस बजे ऑफिस न जाना हो, तो बारह बजे तक सोते ही रहें।
जब तक मुझे नौकरी नहीं मिली थी, सोचती थी की कितना शुभ दिन होगा, जब मुझे नौकरी मिलेगी! तब नौकरी के समानांतर चलने वाली अन्य समस्याओं पर गौर ही कहाँ किया था! उनकी जानकारी ही कहाँ थी मुझे!शुरू के दिनों में कैसे उत्साह से गई थी कॉलेज , और अब!!अब तो जाने के नाम से ही कांटे से उग आते हैं शरीर पर ।
जैसे-तैसे नाश्ता कर, बस-स्टॉप की ओर भागी थी। बस अभी आई नहीं थी। बस-स्टॉप पर एक विशालकाय इमली का पेड़ था, जिसकी छाया में हम रोज़ अप-डाउन वाले बस का इंतज़ार किया करते थे। लेकिन मुझे वहां खड़ा होना बड़ा अजीब लगता था। मेरा पूरा वक्त घड़ी देखते या फिर अपने बैग को दोनों हाथों में बारी-बारी से बदलते बीतता।
मुझे स्टॉप पर पहुंचे अभी दो मिनट ही हुए होंगे, की एक लड़का बड़ी तेज़ सायकलिंग करता हुआ मेरे बहुत करीब से गुज़र गया ; इतने करीब से की मैं चौंक कर दो कदम पीछे हट गई। यदि मैं पीछे न हटती तो निश्चित रूप से वह सायकिल मुझ से टकरा जाती। मेरे इस तरह पीछे हटने पर , थोडी ही दूरी पर खड़े तीन-चार लड़के हो-हो कर हंसने लगे। क्रोध और विवशता से बस होंठ भींच कर रह गई मैं।
आजकल के किशोरवय प्राप्त लडके इतने असभ्य और उद्दंड हो गए हैं की इनके लिए कुछ कहने को मेरे पास तो शब्द ही नहीं हैं.लगता है, आजकल की हवा ही उद्दंड हो गई है। जिस लड़के को छूती है, उसी के पर निकल आते हैं।
बस आ गई थी। भीड़ का रेला बस की ओर दौड़ पड़ा था। इस रेलमपेल में दबी हुई मैं भी किसी तरह बस में चढ़ने में सफल हो गई थी। सारी सीट्स भर चुकीं थीं । खड़े रहने के सिवा कोई चारा न था। आगे एक प्रौढ़ सज्जन खड़े थे, सो उसी जगह को उपयुक्त समझ कर मैंने भी अपने लिए वहीं जगह बना ली थी। एक झटके के साथ बस चल पड़ी थी। इस बस का टाइम ऐसा था की साइंस कॉलेज वाले अधिकतर लड़के-लड़कियां इसी बस से जाते थे। ड्राइवर जब ब्रेक लगाता तो कुछ इस तरह की बस को जोरदार झटका लगता , जिससे बस में खड़ा प्रत्येक व्यक्ति असंतुलन की अवस्था में आ जाता और इस समय पीछे खड़े लड़के मौके का फायदा उठाते हुए लड़कियों को अपने हाथ का सहारा दे लेते, जबकि आगे खड़े लड़कों पर लड़कियां ख़ुद ही जा गिरतीं। ड्राइवर को झटकेदार ब्रेक की ताकीद लड़कों की ही थी।
अचानक ही बस की रेलिंग पर कसे हुए अपने हाथ के ऊपर किसी दूसरे हाथ का स्पर्श पा मैंने देखा , तो उन्हीं प्रौढ़ सज्जन का हाथ था। वे पीछे खड़े किसी व्यक्ति से बातें कर रहे थे। उनका सर पीछे की ओर घूमा हुआ था। अनजाने में ही उनका हाथ आ गया होगा ऐसा सोचकर मैंने अहिस्ता से अपने हाथ को ज़रा आगे खिसका लिया था। लेकिन दो मिनट बाद ही उसी हाथ का स्पर्श मैंने फिर महसूस किया। पलट करब देखा ,तो वे सज्जन पूर्ववत बातें करने में मशगूल थे। हाथ हटाना चाहा तो उनके हाथ की पकड मजबूत हो गई, मेरे हाथ पर। घबरा के फिर उनकी ओर देखा तो उन्हें अपनी ओर घूरता पाया। एक जोरदार झटके के साथ मैंने अपना हाथ रेलिंग पर से हटा लिया, ये जानते हुए की हाथ हटाने से मैं ख़ुद असंतुलित हो जाउंगी। मैं उन तथाकथित 'सज्जन ' से कुछ भी कह कर बस में ख़ुद आकर्षण का केन्द्र नहीं बनना चाहती थी। लड़कियों की यही तो त्रासदी है की लोग उन्हीं से छेड़खानी करते हैं और फिर यदि इसे वे ज़ाहिर करती हैं तो लोग उन्हें ऐसी नज़रों से देखते हैं, जिन्हें झेल पाना बड़ा मुश्किल होता है।
लेकिन इस व्यक्ति की हरकत पर मैं अचम्भित थी। कम से कम पचास वर्ष की उम्र तो होगी ही उनकी। फिर क्या किशोरवय के लिए की गई मेरी विवेचना ग़लत हो गई? किशोर होते लड़कों को तो उनका अपनी उम्र से होता नया-नया परिचय उद्दंड बना देता है, लेकिन इनके लिए क्या कहूं? ये तो वृद्धावस्था की ओर अग्रसर हैं!इस प्रकार क्या ये कभी अपनी मेरी ही उम्र की बेटी को कहीं अकेली भेज पायेंगे? क्या ये अपनी उम्र के लोगों पर विश्वास कर पायेंगे? ऐसे 'सज्जनों' की हमारे यहाँ कमी नहीं है , जो लड़कियों के आत्मबल का शमन करते हैं।
मैं अपने कॉलेज की अनुशासन-प्रिय व्याख्याता,बस की भीड़ में इतनी निरीह, दब्बू हो जाती हूँ की बस के बाहर आकर समझ ही नहीं पाती की मैं इस तरह दोहरा व्यक्तित्व कैसे वहन करती हूँ। शायद उम्र पाने के बाद अपनी इस असहायावस्था से मुक्त हो सकूं।
उन 'सज्जन 'की हरकतों में कमी नही आई थी। वे निरंतर अपने कंधे का स्पर्श मेरे कंधे को दे रहे थे । और उन्हें एक झन्नाटेदार थप्पड मारने की मेरी इच्छा भी बलवती हो उठी थी। बस में भीड इतनी थी कि आगे भी नहीं जा सकती थी। तभी ज़रा आगे एक सीट खाली हुई, और वहां बैठी महिला ने मुझे बुला लिया। शुक्र है भगवान का, वरना थोडी ही देर में मै उस व्यक्ति को एक थप्पड रसीद कर ही देती। मेरा स्टॉप आ गया था। बड़ी राहत महसूस की थी मैंने।
बस के रुकते ही मैं अपने बैग को सम्हालती दरवाज़े की ओर बढी थी । आगे बैठे लडकों की नज़रें मैं अपने चेहरे पर स्पष्ट महसूस कर रहे थी. सिर नीचा किये मैं तेज़ी से नीचे उतर गई. दो कदम आगे बढने पर ही मुझे सुनाई दिया, कोई गा रहा था-" उमर है सतरह साल इतनी लम्बी चोटी है...." और मुझे खयाल आया कि आज देर हो जाने की वजह से मैने अपने लम्बे बालों की चोटी को नीचे से खुला ही छोड दिया था. मेरे हाथ यन्त्रवत चोटी लपेटने को उठे लेकिन नहीं अब और नहीं.... अब इस समय मैने उसे यों ही लहराने दिया, उद्दंड हवा के विरोध में.