गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

अनिश्चितता में....

अनिश्चितता में....
ट्रेन धडधडाती हुई प्लेटफार्म से आ लगी थी। ट्रेन के आते ही लोगों की गहमागहमी अचानक ही बढ़ गई थी। यहाँ से वहां लाल यूनिफार्म में दौड़ते कुली , डिब्बे में जगह लेने को बेताब यात्री। और इस भीड़ से घिरा मैं। मैंने भी अपना सूटकेस और बैग सम्हाला और एक डिब्बे की तरफ़ चल पड़ा। रिज़र्वेशन तो था नहीं सो जनरल डिब्बे में ही घुसना था, सो घुस गया. खड़े होने लायक जगह मिल गई थी। प्लेटफार्म पर अब वे ही लोग रह गए थे जो अपने मित्रों, या रिश्तेदारों को छोड़ने आए थे ,और अब ट्रेन के चलते ही हाथ हिलाने लगे थे। इस डिब्बे में केवल मैं ही ऐसा व्यक्ति था, जिसे कोई छोड़ने नहीं आया था। ऐसा नहीं है की मेरे घर में कोई है ही नहीं मां-पापा,दो भाई सब हैं,लेकिन इन सब के होते हुए भी मैं कितना अकेला हो गया हूँ। इसी अकेलेपन से बचने, पता नहीं कहाँ जा रहा हूँ मैं............

'भाई साहब आप चाहें तो यहाँ बैठ जाएँ, मैं अगले स्टेशन पर ही उतारूंगा...' कोई छोटा सा स्टेशन आने वाला था । पहली बार मेरी किस्मत ने साथ दिया था। ऐसी ठसाठस भरी ट्रेन में जगह मिल गई थी। आराम से बैठ कर एक मैगजीन के पन्ने पलटने लगा था। ट्रेन पूरी रफ्तार पकड़ चुकी थी। मेरा घर , मेरा शहर बहुत पीछे छूट गया था।
पिछले कुछ महीनों में घर के माहौल में जो परिवर्तन आया था, वह निश्चित रूप से दुखदायी था। यह परिवर्तन भी तो अचानक ही आया था। और इसकी तह में राजू, मेरे छोटे भाई की नौकरी लग जाना था। राजू की बी.ई.की डिग्री रंग लाई थी, उसका सेलेक्शन शहर के ही एक प्रतिष्ठित संस्थान में हो गया था। राजू मुझसे दो साल छोटा है। पढने में तेज़ है, इसमें कोई शक नहीं , लेकिन मैं भी तो एम्.एस.सी करके बैठा हूँ, वो भी ७५% लाकर। ये अलग बात है, की अब इस तरह की डिग्रियों से कुछ होता नहीं। शायद इसीलिए पिछले दो सालों से बेकार बैठा हूँ। लगातार कई प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठता रहता हूँ,लेकिन हासिल क्या होता है?मैं ख़ुद से परेशान हूँ। राजू को छः महीने की ट्रेनिंग पर बाहर जाना था बस उसके जाते ही घर के माहौल में जिस तेज़ी के साथ परिवर्तन हुआ, उसे देखते, मह्सूते हुए घर में रह पाना बड़ा मुश्किल था, मेरे लिए। अभी भी नौकरी का कोई ठीक-ठिकाना न होते हुए भी मैं लखनऊ जा रहा हूँ, अपने एक दोस्त के पास , जिसने अपने ऑफिस में कोई काम की बात कर के रखी है। कुछ भी मिलेगा, कम से कम अपने आवेदन पत्र तो ख़ुद के पैसों से खरीद सकूंगा।

अभी एक महीने पहले तो पापा ने साफ़-साफ़ कह दिया था। उस दिन पापा बड़े गुस्से में थे। कारण, बैंक का रिज़ल्ट आ गया था, और में उस में भी नहीं निकल सका था। दुनिया भर के सफल लड़कों के उदाहरण दे-दे कर डांटते रहे कितनी बातें सुनाई। गुस्से में उनके मुंह से निकल ही गया, "आख़िर कब तक खिलाऊंगा तुम लोगों को?" लोगों को? लोग अब थे ही कहाँ? राजू की नौकरी लग गई थी , छोटा भाई अभी पढ़ रहा था। यानि पापा अब सिर्फ़ मुझे ही खिलने में असमर्थ थे? मैं ही घर के लिए बोझ बन रहा था। उसी दिन मैंने सोच लिया था की अब पापा से पैसे नहीं मांगूगा कभी। और पड़ोस के एक लड़के को ट्यूशन पढ़ने लगा था। महीने के अंत में पाँच सौ रु.मिल गए थे मुझे।

वे मेरी भागदौड के प्रारम्भिक दिन थे जब मैं सोचता था की नौकरी लगते ही मैं राजू को एम्.ई.ज़रूर करवाऊंगा, लेकिन मैं सोचता ही रह गया और राजू की नौकरी भी लग गई। एक दिन मुझे उदास देख कर राजू ने कहा था , की "भइया, आप अपने बैंक ड्राफ्ट के लिए हमेशा चिंता करते रहते हो न, बस छः महीने बाद मेरी पोस्टिंग हो जायेगी तब फ़िर तुम आराम से कितने भी आवेदन करते रहना.....पैसों की कोई चिंता नहीं..." मैं राजू का चेहरा देखता रह गया। हांलांकि उसने एकदम सरलता से ही ये कहा था, लेकिन मुझे लगा की कहाँ मैं इसे एम्.ई.करवाने की बात करता था और अब यही मुझे आवेदन-पत्रों के लिए पैसे देगा!! यानी राजू को पूरा भरोसा था, की इन छः महीनों में उसके भइया की नौकरी कहीं भी नहीं लगने वाली। और अब जब राजू तीन दिन बाद घर लौट रहा है, मैं जा रहा हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ,की उसके आते ही घर के सारे सदस्य मेरी उपेक्षा करते हुए जताएंगे की मैं बेरोजगार हूँ। निश्चित रूप से मैं इस उपेक्षा को बर्दाश्त नहीं कर सकता। वैसे भी मैं राजू के सामने जाने में अजीब शर्म सी महसूस कर रहा था।

ट्रेन लखनऊ स्टेशन पर आकर लग गई थी । नीचे खड़े लोग तेज़ी से ऊपर आना चाह रहे थे , और अन्दर से उतरने वाले उन्हें धकियाते, झिडकते नीचे उतर रहे थे। जल्दी से जल्दी स्टेशन से बाहर निकल घर पहुँचने को सबके बेताब कदम । लेकिन मुझे कहीं जाने की जल्दी नहीं है।

ट्रेन ने सरकते-सरकते फ़िर गति पकड़ ली है, और प्लेटफार्म छोड़ अपने गंतव्य को बढ़ गई है, लेकिन मैं अभी तक प्लेटफार्म पकड़े हूँ, क्योंकि मुझे तो अपना गंतव्य भी ज्ञात नहीं।

(कल आठ दिवसीय प्रवास पर कानपुर जा रही हूं, इस बीच मेरी ये पुरानी कहानी ही पढिये न, इसे पूर्व में बहुत कम पढा गया था, चाहती हूं कि इसे भी आप सब पढें और अपनी राय से अवगत करायें. मेरी इस धृष्ट्ता को माफ़ करेंगे न?)