और अपनी आंखों को भी अश्कबार मत करना ।
के ख्वाहिशें कभी तुम बेशुमार मत करना।
हरे हैं खेत इन्हें रेगज़ार मत करना ।
के दुश्मनों पे भी तुम छुप के वार मत करना।
इनायतों से मुझे ज़ेर बार मत करना।
ज़मीर अपना मगर दाग़ दार मत करना।
अमल करो न करो शर्मसार मत करना ।
सुनहरे वादे हैं बस ऐतबार मत करना।
बिना पे शक की कभी इश्तहार मत करना ।
(यह ग़ज़ल मेरी परम मित्र इस्मत जैदी की है। ख़ास बात यह है कि लंबे समय तक इस्मत केवल गद्य की विधा में ही लिखती रहीं। तमाम आलेख और कहानियां उनके नाम पर दर्ज हैं। लेकिन इधर कुछ समय से उन्होंने पद्य की विधा में लिखना शुरू किया है और माशा अल्लाह क्या खूब किया है। )