बुधवार, 8 जुलाई 2009

बड़ी हो गई हैं ममता जी....

दुलहिन ओ दुलहिन ..............देखना ज़रा , मटके वाली निकली है क्या ?"
अम्मां जी का ध्यान पूजा से हट कर मटके वाली की आवाज़ पर चला गया था, और आदतन उनकी जुबां "दुलहिन -दुलहिन " पुकारने लगी थी .
बस यही आदत ममता जी को बिल्कुल पसंद नहीं . अब पूजा करने बैठीं हैं तो पूरे मन से भगवान को याद कर लें . भगवान का भजन कर रहीं हैं ; माला फेर रहीं हैं , लेकिन कान और ध्यान गली में है . अस्सी पार कर चुकीं है , लेकिन घर -गृहस्थी से मोह-भंग अभी तक नहीं हुआ। पूरे दिन ........दुल्हिन ये कर लो दुल्हिन वो कर लो.... उफ़!! तंग हो जाती हैं ममता जी। आख़िर उनकी उम्र भी तो अब लड़कपन वाली नहीं रही। तीन-तीन युवा बेटे-बेटियों की माँ हैं, लेकिन अम्मा जी अभी तक नई नवेली दुल्हन की तरह नचाये रहती हैं। उनकी जुबान पर बस दो ही नाम रहते हैं , एक तो भगवान का दूसरा ममता जी का।
वैसे अम्मा जी भी क्या करें, ले दे कर इकलौती बहू हैं हैं ममता जी। अपनी सारी इच्छाएं, सारे शौक अपनी इस इकलौती बहू में ही तो साकार करती आईं हैं वे। और ममता जी भी बस! अम्मा की आवाजों पर चाहे कितना भी क्यों न झल्लाएं, लेकिन उनका हर काम अम्मा जी से पूछ कर ही होता है। सब्जी क्या बनेगी? मठरी में मोयन कितना देना है? सब अम्मा जी ही बताती हैं। जबकि तीस वर्ष पुरानी दुल्हन पचास वर्षीया ममता जी के हाथ अब अम्मा जी की विधियों के अनुसार ही अभ्यस्त हो चुके हैं। लेकिन तब भी ममता जी की पूछने की और अम्मा जी की बताने की आदत सी हो गई है।
रोज़मर्रा की साधारण सी सब्जी भी बनानी होगी, तो अम्मा जी विधि बताना शुरू कर देंगीं। और झल्लाती हुई ममता जी का बडबडाना शुरू हो जाएगा- " अरे आता है मुझे, सब्जी बनाना। बुढापा आ गया है मेरा! ........................लेकिन रोज़-रोज़ सब्जी की वही विधि बताने का सिलसिला ख़त्म नहीं कर पा रहीं अम्मा जी। रट गईं हैं सारी विधियां " लेकिन इस बड़बड़ाहट का स्वर बस उतना ही ऊंचा होता जितना उन्हें स्वयं सुनाई दे . इसीलिये तो पिछले तीस सालों से अम्मा जी का विधि बताना और ममता जी का बडबडाना एक साथ जारी है . अम्मा जी के सामने ममता जी ने उनका कभी विरोध नहीं किया। कोई भी पकवान भले ही ममता जी अपनी विधि से बनाएं लेकिन उसकी भी विधि अम्मा से पूछना और फिर उस विधि को पूरा सुनना शायद ममता द्वारा अम्मा जी के प्रति सम्मान प्रकट करने का ही एक तरीका है।

पचास वर्शेया ममता जी पूरे दिन अम्मा की आवाज़ पर यहाँ-वहां होतीं रहतीं हैं। खीजती भी रहतीं हैं, लेकिन अम्मा का "दुल्हिन" शब्द जैसे उनमें नव-वधु के जैसी ऊर्जा का संचार करता रहता है। अपनी बढ़ती उम्र का अहसास ही नहीं हो पाता उन्हें। माँ को इस कदर काम में जुटे देख कर कभी-कभी बच्चे भी दादी को छेड़ देते हैं-" दादी , अब तो पूजा पाठ में ध्यान लगाओ। कुछ दिनों में ही माँ की भी बहू आ जायेगी, तब भी तुम ऐसे ही 'दुल्हिन-दुल्हिन' करती रहोगी? अरे तुम्हारी बहू अब सास बनने वाली है, अब उनमें भी तो कुछ सास वाले गुन आने दो'

लेकिन अम्मा पर कोई असर नहीं होता। उल्टे झिड़क देतीं-' अरे हटो रे....अपनी बहू को उसे जैसे रखना हो रखे, मुझे तो बहुएँ बहुओं की तरह ही अच्छीं लगतीं हैं। फिर तुम्हारी माँ बूढी हो गई है क्या? अभी उसकी उमर ही क्या है? फिर अभी तो मैं बैठी हूँ, उसकी बड़ी-बूढी। अभी खेलने-खाने दो उसे। बड़े आए सास बनाने वाले..........
और अपनी माँ ' के खेलने-खाने ' की कल्पना मात्र से बच्चे हँसते-हँसते लोट-पोत हो जाते। फिर शुरू हो जाता अम्मा जी का बड़-बड़ाना जो देर तक चलता ।
कितना मना करती हैं ममता जी ,लेकिन इन बच्चों को उन्हें छेड़ने में ही में आता है . अभी पिछले रविवार को ही बच्चों ने मन्दिर जाने का प्लान बनाया । मन्दिर जा रहे थे सो अम्मा को तो जाना ही था। बच्चों ने जिद पकड़ ली - अम्मा अपनी नई चप्पलें ही पहनना। नहीं तो जब भी मन्दिर जाती हो अपनी वही स्पेशल टूटी चप्पल निकालती हो।' अम्मा ने बहुत मना किया लेकिन बच्चों की, 'कोई मिल गया तो?' जैसी दलीलों के आगे अम्मा भी परास्त हो गईं। अपनी नई चप्पलें पहन के चल दीं। मन्दिर के अन्दर पहुंचाते ही भगवान् के ध्यान के स्थान पर चप्पलों की चिंता ने अपनी जगह बना ली। हर दो मिनट के अन्तराल पर -' कोई चप्पल न चुरा ले कहीं' का भजन अम्मा करतीं रहीं। मन्दिर से निकलने पर वही हुआ जिसका अम्मा को डर था। चप्पलें अपनी जगह पर नहीं थीं। किसी ने पार कर दीं थीं। अब क्या था! अम्मा लगीं ज़ोर-ज़ोर से चोर और उसके खानदान को कोसने! जैसे- तैसे उन्हें चुप कराया गया। नंगे पाँव चलने में उन्हें दिक्कत हो रही थी, लेकिन किसी की भी चप्पल पहनने से उनहोंने इनकार कर दिया। मारे गुस्से के रिक्शे पर भी नहीं बैठीं। बच्चों ने बहुत समझाया, लेकिन बच्चों से ही तो नाराज़ थीं वे। जैसे-तैसे घर आया और गेट खोलने से पहले ही बच्चों की लानत-मलामत शुरू हो गई। जैसे चप्पलें नहीं कोई अनमोल खजाना चोरी हो गया हो।


लेकिन ये क्या? घर के बरामदे में कदम पाँव रखा ही था, की अम्मा जी की चप्पलें उनका इंतज़ार करती मिलीं। अब तो पूरा मामला अम्मा जी और ममता जी दोनों को ही समझ में आ गया। और अब तक संजीदगी का अभिनय करते बच्चे लोट-पोत हो रहे थे और अम्मा जी कभी इसका तो कभी उसका कान पकड रहीं थीं।

" दुलहिन...." सोच-विचार में डूबी ममता जी की तंद्रा अम्मा की आवाज़ से भंग हुई।

"दुलहिन कल करवा-चौथ है, थोड़ा सा चावल तो भिगो दो लड्डू के लिए।" "ठीक है" कह ममता जी चल दीं।

"दुलहिन....करवा वाली निकली है... खरीद तो लो"

उफ़......उफ़......उफ़........

कुछ काम अम्मा ख़ुद क्यों नहीं कर लेतीं? करवा वाली जा रही है, तो उसे रोक लें, खरीद लें। लेकिन नहीं। बाहर आराम कुर्सी पर बैठ कर "दुलहिन-दुलहिन " करना उन्हें ज़्यादा पसंद है। पता नहीं कब बड़ी हो पाएंगी ममता जी! लेकिन प्रत्यक्ष में हाथ का काम छोड़ कर बाहर पहुँच चुकीं थीं , ममता जी।

सुबह से अम्मा जी की ताकीदें शुरू हो गईं थीं। अरे दुलहिन, ज़रा जल्दी से नहा-धो लेना। और देखो, प्यासी न रहना। नहा के दूध कॉफी जो पीना हो, पी लेना। न भूखा रहना है, न प्यासा। ममता जी को याद है, पच्चीस साल पहले जब ममता जी ब्याह के आईं थीं और उनकी पहली करवा-चौथ पड़ी थी, तो अम्मा जी ने अपने स्वभाव के विपरीत न केवल उन्हें पानी पीने को कहा बल्कि फलाहार भी जबरन ही करवाया।

पिछले पच्चीस सालों से ये सिलसिला जारी है। कोई भी व्रत हो, अम्मा की ताकीदें शुरू हो जातीं हैं। और ममता जी सर झुकाए नई-नवेली दुल्हन की तरह आज्ञा का पालन करती जातीं। " दुलहिन भारी साड़ी पहनो, पायल पहनो......पूजा की तैयारी ऐसे करो...वो काम वैसे करो..." फिर आदेश , फिर झल्लाना, और फिर पालन। लगता था जैसे ये सिलसिला आजन्म चलता रहेगा। प्रकृति के साथ-साथ ।

लेकिन ऐसा कभी हुआ है?

ममता जी स्तब्ध हैं!! समझ ही नहीं पा रहीं की ये क्या हुआ!! अब वे क्या करें? हर पल आदेश देने वाली अम्मा जी चली गईं? लेकिन ऐसे कैसे जा सकतीं हैं? रात में तो अच्छी- भली थीं। खाना भी खाया था। लेकिन ऐसी कैसी सोयी की अब उठने को भी तैयार नहीं? किससे पूछें? क्या करें?

कमरे में अम्मा जी का पार्थिव शरीर रखा है। लोग आ रहे हैं, जा रहे हैं। अम्मा जी को ले जाने की तैयारियां हो रहीं हैं। ममता जी अब भी बेखयाली में हैं। कोई क्या कह रहा है, उन्हें सुनाई ही नहीं दे रहा। उन के कानों में तो बस " दुलहिन-दुलहिन" की आवाजें आ रहीं हैं।

अमा जी को ले गए हैं लोग। खाली घर, खाली दिल, खाली दिमाग और कान?? नहीं.......कान खाली नहीं हैं। ममता जी ने खूब ज़ोर से अपने कान बंद कर लिए हैं, कहीं "दुलहिन" शब्द बाहर न निकल जाए।

अम्मा के जाते ही अचानक ही बहुत बड़ी हो गईं हैं ममता जी। उम्र के पचासों वर्ष जैसे घेर कर खड़े हो गए हैं उन्हें। बड़प्पन का यह अहसाह चाहा था उन्होंने? यकीनन नहीं।

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

विलोम

मुट्ठी भर दिन
चुटकी भर रातें,
गगन सी चिंताएँ,
किसको बताएं?
जागती सी रातें,
दिन हुए उनींदे,
समय का विलोम
कैसे सुलझाएं?
भागती सी सड़कें,
खाली नहीं आसमान,
दो घड़ी का सन्नाटा ,
हम कहाँ से पायें?