मंगलवार, 16 अगस्त 2011

करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान...

"नमस्ते अम्मां जी"
" कौन? अरे कमला! आओ-आओ"
खुद को समेटती हुई कमला, सुधा जी की बग़ल से होती हुई सामने आई और पूरे श्रद्धाभाव से उनकी चरण-वंदना की.
" आज इस तरफ़ कैसे?"


" मामी के हियां आई थी, उनकी बिटिया का गौना रहा. हम तो पहलेई सोच लिये थे कि लौटते बखत आपसे मिलनई है. "
कमला ने विनीत मुस्कान बिखेरी, और वहीं सुधा जी के सामने ज़मीन पर बैठ गई.
" अरे यहां बैठो न !"
बग़ल में पड़े दीवान पर हाथ ठोंक कर इशारा किया सुधा जी ने. लेकिन कमला सुधा जी के इस
आग्रह की असलियत जानती थी, सो उसने फिर खुद को निम्नतम स्तर पर लाते हुए हाथ जोड़ कर उनका आग्रह ठुकरा दिया और-
" अरे नीचे कहां? ये कालीन तो बिछा है न, इधरई नीक लगे है बैठना." जैसा अभ्यस्त डायलॉग भी फ़ेंक दिया.
सुधा जी ने भी निश्चिंत निश्वास छोड़ा.
ऊपर बैठने का न्यौता देने के बाद वे हमेशा शंकित हो उठती थीं कि कहीं कोई कमला, श्यामकली, या सुक्खी उनकी बग़ल में बैठ ही न जाये.
" फुल्ली के पापा काल बिहान भये गिर गये रहे अम्मां जी. एतना मना करते हैं उनै लेकिन सुन्तई नईं हैं. "
कमला ने अपने दुख-दर्द सुनाने शुरु कर दिये थे और सुधा भी पूरी चिन्ता के साथ सुन रही थीं.
" अरे रे रे... फिर चोट-वोट तो नहीं लगी? कैसे गिर गये? "
" अब का बताई अम्मां जी.........."
कमला धाराप्रवाह शुरु हो गई थी कमला की कथा रफ़्तार पकड़े, उसके पहले ही सुधा जी ने अपने पैर-दर्द का प्रसंग छेड़ दिया था, बल्कि यूं कहें कि पैर दर्द की बात कमला के कान में डाल दी, और इत्मीनान से चप्पल उतार के सामने पांव फैला लिये . कमला ने भी आदतानुसार सुधा जी का पांव हल्के-हल्के दबाना शुरु कर दिया.
निधि को मालूम था कि अब ऐसा ही होगा. मुफ़्त में कमला-कथा का श्रवण सुधा जी कर ही नहीं सकतीं थीं. सुधा जी जब चार लोगों में बैठी होती थीं, तोसमानता, जातिभेद जैसे विषयों पर बड़े अच्छे विचार प्रस्तुत करतीं थीं, लेकिन उन्हें व्यवहार में लागू नहीं कर पाती थीं. बस इसीलिये निधि को बड़ी कोफ़्त होती है, सुधा जी के उदारमना भाषणों से. जो कर नहीं सकतीं , उसके लिये झूठी बातें क्या बनाना? सुधा जी की कथनी और करनी
में बहुत अन्तर था.
नाश्ता करने बैठतीं तो इस चिंता में कि कहीं निधि ज़्यादा नाश्ता न दे दे, एक खाली प्लेट मंगवातीं, अपनी प्लेट में से थोड़ा सा पोहा निकाल आगे को सरका देतीं और रमा को कहतीं -
" ले रमा , पहले नाश्ता कर ले"
कुछ ऐसे भाव से जैसे मोहन थाल परोस दिया हो.
उतने से नाश्ते को देख के निधि शर्म से पानी-पानी हो जाती.
बची हुई मिठाई हफ़्तों सहेजे रहतीं सुधा जी. जब फ़फ़ूंद दिखाई देने लगती तो बड़े एहसान के साथ कहतीं-
" रमा, ये मिठाई लेती जाना, और हाँ, खाने लायक़ न हो, तो किसी जानवर को डाल देना."
फिर पानी-पानी हो जाती निधि.
कल से रमा चार दिन की छुट्टी पर जा रही थी. रमा के छुट्टी लेने के विचार मात्र से निधि के हाथ-पांव फूलने लगते हैं. निधि को सुबह आठ बजे ऑफ़िस के लिये निकलना होता है, सो सुबह का खाना बनाना उसके लिये मुश्किल था. लिहाजा उसने खाना बनाने के लिये विमला का नाम प्रस्तावित किया तो सुधा जी ने तुरन्त खारिज़ कर दिया. तुरन्त बोलीं-
" अरे! उसका बनाया खाना हम कैसे खा सकते हैं?"
बहुत कोफ़्त हुई थी निधि को. उसी के साफ़ किये बर्तनों में खाना पकाते हैं, उसी का भरा पानी पीते हैं, आटा गूँध सकती है वो, लेकिन खाना नहीं बना सकती!!
समझ में नहीं आतीं निधि को ऐसी बातें.
कई बार निधि ने सुधा जी को समझाने की कोशिश की लेकिन हर बार उसे खुद की समझाइश से ज़्यादा मजबूत सुधा जी के इरादे दिखाई दिये.
छटपटा रही थी निधि सुधा जी को इस घेरे से बाहर लाने के लिये.
सुबह कुमुद दीदी का फोन आया, कि वे कोलकता जा रही हैं, लौटते हुए दो दिन निधि के पास भी रुकेंगीं. निधि की तो जैसे मुँह मांगी मुराद पूरी हो गई. उसे लगा कि अब कुमुद दीदी के साथ मिल के कुछ तो करेगी ही वह.
चार दिन इंतज़ार में बीते . आज कुमुद दीदी यानि सुधा जी की इकलौती बेटी आ गई थीं. कुमुद दीदी की ख़ासियत ये थी कि वे सुधा जी की, मां होने के नाते किसी भी ग़लत बात में हां में हां नहीं मिलाती थीं. बल्कि उन्हें समझाने की भरपूर कोशिश करती थीं.
सुबह शोर-शराबे में बीती. देर से खाना हुआ, तो रात का खाना बाहर खाने का प्लान बना.
खाने-पीने की शौकीन सुधा जी को बाहर खाने से कभी परहेज नहीं रहा है. आज भी सब तैयार होने लगे तो निधि ने चिन्ता जताई -
" दीदी, मम्मी के लिये तो खाना बनवाना होगा न?"
" अरे हां रे. मम्मी, तुम्हारे लिये क्या बनना है? रमा को बता दो. तुम तो होटल में कुछ खाओगी नहीं........."
तिरछी मुस्कान के साथ कुमुद दी ने ऊंची आवाज़ में पूछा.
"क्यों? हम क्यों नहीं खायेंगे? हमारा आज व्रत थोड़े ही है."
सुधा जी ने थोड़े अचरज से पूछा." अरे,
लेकिन वहां होटल में पता नहीं किसने खाना बनाया हो... ?
अब वहां कोई पूछेगा तो नहीं कि कुक किस जाति का है? कोई भी बना सकता है."
कुमुद दी गम्भीर हो के बोलीं.कोशिश करके हंसी दबानी पड़ रही थी निधि को.


" वैसे मम्मी, तुम तो पता नहीं कहां कहां के होटलों में खाना खा चुकी हो, कुक के बारे में पहले ही पता लगा लेती हो क्या?"
सुधा जी अवाक!


" अरे नहीं भाई. कहीं कोई ऐसा भी करता है?"
" मगर तुम्हें तो ऐसा करना चाहिए. घर में इतनी छुआछूत और बाहर कुछ नहीं? तुम्हारा तो धर्म नष्ट-भ्रष्ट हो गया न?"
" फिर अगर बहर खा सकती हो तो घर में इतना परहेज क्यों?"
कोई जवाब नहीं था
सुधा जी के पास. रात भर पता नहीं क्या सोचती रहीं सुधा जी; लेकिन सुबह निधि ने सुना, विमला से कह रही थीं-
" विमला, रमा जब छुट्टी पर जाये, तब तू खाना बना दिया कर. निधि को दिक्कत हो जाती है इत्ते सबेरे से......"
निधि जानती है, किसी भी इंसान को एक पल में नहीं बदला जा सकता. लेकिन
बदलने की लगातार कोशिशें की जायें तो सकारात्मक परिणाम तो मिलने ही हैं.


रविवार, 14 अगस्त 2011

वो दिन के जिसका वादा है......

मेरा पसंदीदा गीत है ये, राष्ट्रगीत की तरह.....




हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन के जिसका वादा है
जो लौहे-अज़ल में लिखा है
जब ज़ुल्मो-सितम के कोहे-गराँ
रुई की तरह उड़ जायेंगे
हम महकूमों के पाँव तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहले-हिकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ऐ-ख़ुदा के का'बे से
सब बुत उठवाये जायेंगे
हम अहले-सफ़ा, मरदूद-ऐ-हरम
मसनद पे बिठाये जायेंगे
सब ताज उछाले जायेंगे
सब तख्त गिराए जायेंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो गायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी हैं, नाज़िर भी
उट्ठेगा अनलहक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी खल्के-खुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
० फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

रविवार, 7 अगस्त 2011

करत-करत अभ्यास के,

"नमस्ते अम्मां जी"
" कौन? अरे कमला! आओ-आओ"
खुद को समेटती हुई कमला, सुधा जी की बग़ल से होती हुई सामने आई और पूरे श्रद्धाभाव से उनकी चरण-वंदना की.
" आज इस तरफ़ कैसे?"
" मामी के हियां आई थी, उनकी बिटिया का गौना रहा. हम तो पहलेई सोच लिये थे कि लौटते बखत आपसे मिलनई है. "
कमला ने विनीत मुस्कान बिखेरी, और वहीं सुधा जी के सामने ज़मीन पर बैठ गई.
" अरे यहां बैठो न !"
बग़ल में पड़े दीवान पर हाथ ठोंक कर इशारा किया सुधा जी ने. लेकिन कमला सुधा जी के इस आग्रह की असलियत जानती थी, सो उसने फिर खुद को निम्नतर स्तर पर लाते हुए हाथ जोड़ कर उनका आग्रह ठुकरा दिया और
" अरे नीचे कहां? ये कालीन तो बिछा है न, इधरई नीक लगे है बैठना." जैसा अभ्यस्त डायलॉग भी फ़ेंक दिया.
सुधा जी ने भी निश्चिंत निश्वास छोड़ा.
ऊपर बैठने का न्यौता देने के बाद वे हमेशा शंकित हो उठती थीं कि कहीं कोई कमला, श्यामकली, या सुक्खी उनकी बग़ल में बैठ ही न जाये.
" फुल्ली के पापा काल बिहान भये गिर गये रहे अम्मां जी. एतना मना करते हैं उनै लेकिन सुन्तई नईं हैं. "
कमला ने अपने दुख-दर्द सुनाने शुरु कर दिये थे और सुधा भी पूरी चिन्ता के साथ सुन रही थीं.
" अरे रे रे... फिर चोट-वोट तो नहीं लगी? कैसे गिर गये? "
" अब का बताई अम्मां जी.........."
कमला धाराप्रवाह शुरु हो गई थी कमला की कथा रफ़्तार पकड़े, उसके पहले ही सुधा जी ने अपने पैर-दर्द का प्रसंग छेड़ दिया था, बल्कि यूं कहें कि पैर दर्द की बात कमला के कान में डाल दी, और इत्मीनान से चप्पल उतार के सामने पांव फैला लिये . कमला ने भी आदतानुसार सुधा जी का पांव हल्के-हल्के दबाना शुरु कर दिया.
निधि को मालूम था कि अब ऐसा ही होगा. मुफ़्त में कमला-कथा का श्रवण सुधा जी कर ही नहीं सकतीं थीं.
सुधा जी जब चार लोगों में बैठी होती थीं, तो समानता, जाति-भेद जैसे विषयों पर बड़े अच्छे विचार प्रस्तुत करतीं थीं, लेकिन उन्हें व्यवहार में लागू नहीं कर पाती थीं. बस इसीलिये निधि को बड़ी कोफ़्त होती है, सुधा जी के उदारमना भाषणों से. जो कर नहीं सकतीं , उसके लिये झूठी बातें क्या बनाना? सुधा जी की कथनी और करनी में बहुत अन्तर था.
नाश्ता करने बैठतीं तो इस चिंता में कि कहीं निधि ज़्यादा नाश्ता न दे दे, एक खाली प्लेट मंगवातीं, अपनी प्लेट में से थोड़ा सा पोहा निकाल आगे को सरका देतीं और रमा को कहतीं -
" ले रमा , पहले नाश्ता कर ले"
कुछ ऐसे भाव से जैसे मोहन थाल परोस दिया हो.
उतने से नाश्ते को देख के निधि शर्म से पानी-पानी हो जाती.
बची हुई मिठाई हफ़्तों सहेजे रहतीं सुधा जी. जब फ़फ़ूंद दिखाई देने लगती तो बड़े एहसान के साथ कहतीं-
" रमा, ये मिठाई लेती जाना, और हाँ, खाने लायक़ न हो, तो किसी जानवर को डाल देना."
फिर पानी-पानी हो जाती निधि.
कल से रमा चार दिन की छुट्टी पर जा रही थी. रमा के छुट्टी लेने के विचार मात्र से निधि के हाथ-पांव फूलने लगते हैं. निधि को सुबह आठ बजे ऑफ़िस के लिये निकलना होता है, सो सुबह का खाना बनाना उसके लिये मुश्किल था. लिहाजा उसने खाना बनाने के लिये विमला का नाम प्रस्तावित किया तो सुधा जी ने तुरन्त खारिज़ कर दिया. तुरन्त बोलीं-
" अरे! उसका बनाया खाना हम कैसे खा सकते हैं?"
बहुत कोफ़्त हुई थी निधि को. उसी के साफ़ किये बर्तनों में खाना पकाते हैं, उसी का भरा पानी पीते हैं, आटा गूँध सकती है वो, लेकिन खाना नहीं बना सकती!!
समझ में नहीं आतीं निधि को ऐसी बातें.
कई बार निधि ने सुधा जी को समझाने की कोशिश की लेकिन हर बार उसे खुद की समझाइश से ज़्यादा मजबूत सुधा जी के इरादे दिखाई दिये.
छटपटा रही थी निधि सुधा जी को इस घेरे से बाहर लाने के लिये.
सुबह कुमुद दीदी का फोन आया, कि वे कोलकता जा रही हैं, लौटते हुए दो दिन निधि के पास भी रुकेंगीं. निधि की तो जैसे मुँह मांगी मुराद पूरी हो गई. उसे लगा कि अब कुमुद दीदी के साथ मिल के कुछ तो करेगी ही वह.
चार दिन इंतज़ार में बीते . आज कुमुद दीदी यानि सुधा जी की इकलौती बेटी आ गई थीं. कुमुद दीदी की ख़ासियत ये थी कि वे सुधा जी की, मां होने के नाते किसी भी ग़लत बात में हां में हां नहीं मिलाती थीं. बल्कि उन्हें समझाने की भरपूर कोशिश करती थीं.
सुबह शोर-शराबे में बीती. देर से खाना हुआ, तो रात का खाना बाहर खाने का प्लान बना.
खाने-पीने की शौकीन सुधा जी को बाहर खाने से कभी परहेज नहीं रहा है. आज भी सब तैयार होने लगे तो निधि ने चिन्ता जताई -
" दीदी, मम्मी के लिये तो खाना बनवाना होगा न?"
" अरे हां रे. मम्मी, तुम्हारे लिये क्या बनना है? रमा को बता दो. तुम तो होटल में कुछ खाओगी नहीं........."
तिरछी मुस्कान के साथ कुमुद दी ने ऊंची आवाज़ में पूछा.
"क्यों? हम क्यों नहीं खायेंगे? हमारा आज व्रत थोड़े ही है."
सुधा जी ने थोड़े अचरज से पूछा.
" अरे, लेकिन वहां होटल में पता नहीं किसने खाना बनाया हो... ? अब वहां कोई पूछेगा तो नहीं कि कुक किस जाति का है? कोई भी बना सकता है."
कुमुद दी गम्भीर हो के बोलीं.
कोशिश करके हंसी दबानी पड़ रही थी निधि को.
" वैसे मम्मी, तुम तो पता नहीं कहां कहां के होटलों में खाना खा चुकी हो, कुक के बारे में पहले ही पता लगा लेती हो क्या?"
सुधा जी अवाक!
" अरे नहीं भाई. कहीं कोई ऐसा भी करता है?"
" मगर तुम्हें तो ऐसा करना चाहिए. घर में इतनी छुआछूत और बाहर कुछ नहीं? तुम्हारा तो धर्म नष्ट-भ्रष्ट हो गया न?"
" फिर अगर बहर खा सकती हो तो घर में इतना परहेज क्यों?"
कोई जवाब नहीं था सुधा जी के पास.
रात भर पता नहीं क्या सोचती रहीं सुधा जी; लेकिन सुबह निधि ने सुना, विमला से कह रही थीं-
" विमला, रमा जब छुट्टी पर जाये, तब तू खाना बना दिया कर. निधि को दिक्कत हो जाती है इत्ते सबेरे से......"
निधि जानती है, किसी भी इंसान को एक पल में नहीं बदला जा सकता. लेकिन बदलने की लगातार कोशिशें की जायें तो सकारात्मक परिणाम तो मिलने ही हैं.