मंगलवार, 16 जून 2009

ओढी हुई सभ्यता

’टन-टन-टन’ के साथ घड़ी ने पाँच बजने का संकेत दिया और ऑफिस में टेबिल-कुर्सी खिसकाने,फडफडाते कागजों को फाइलों में बंद करने की आवाजों ने ज़ोर पकड़ लिया। इक्के-दुक्के जूते-चप्पलों की आवाजें मेरे बगल से हो कर गुज़र गईं। प्रत्येक व्यक्ति घर जाने की जल्दी में है। लेकिन मैं? पाँच का घंटा सुनते ही मेरे हाथ-पाँव ढीले पड़ जाते हैं। शरीर जैसे बेजान हो जाता और मैं अपना सर कुर्सी पर टिका, रिलैक्स के मूड में आ जाती। रोज़ ही ऐसा होता है। मुझे घर जाने की कोई जल्दी नहीं रहती। 'अनु, घर नहीं जाना क्या?' 'घर! आं.....हाँ जाना तो है , लेकिन सोचती हूँ एक फाइल और निपटा दूँ। बहुत काम है। 'पता नहीं मधु कब मेरे पास आकर खड़ी हो गई थी। 'छोड़ यार! ऐसे तो ये ऑफिस का काम निकलता ही चला आएगा। तू ज़्यादा ईमानदारी बरतती है न बस इसीलिए तीन-चार एक्स्ट्रा फाइल्स तेरे सर पर चढी रहती है। चल उठ न!''नहीं मधु, तुम जाओ। मैं आती हूँ। बस एक घंटे का काम और है।''क्या बात है, जल्दी ही प्रमोशन लेने के चक्कर में हो क्या? खैर जैसी तुम्हारी मर्ज़ी।मैं तो चली।' मधु चली गई थी। कहती है, प्रमोशन के लिए इतनी मेहनत करती हूँ। .....बेचारी......... । उसकी समझ में तो मैं एक सुखी- संपन्न परिवार की लड़की हूँ न! लेकिन हमारी संपन्नता को, घरेलू स्थितियों को भला मधु कैसे समझ सकती है, तब जबकि उनके ऊपर हम लोगों ने बड़ी खूबसूरती के साथ रेशमी आवरण चढा रखा हो! हर रेशमी आवरण का अस्तर खुरदुरा होता है, ये भी तो सच है न! थोड़ा सा काम अभी बाकी था। पन्द्रह मिनट और लग जायेंगे। छः बज के पाँच मिनट हो रहे थे, यानि छः बीस तक काम निपट जाएगा, और पौने सात तक मैं घर पहुँच जाउंगी। 'बिटिया सबा छः हो गए' धनीराम था।' हाँ मालूम है ।' इतनी लापरवाही से दिए गए जवाब पर धनीराम खड़ा-खड़ा कभी मुझे कभी फाइलों के ढेर को देख रहा था। बेचारा! मेरे कारण रोज़ ही धनिराम को भी लेट होना पड़ता है। मुझे तो ओवर टाइम मिल जाता है, लेकिन धनीराम को मुफ्त में ही एक घंटा लेट होना पड़ता है। धनीराम को चुप देख कर बड़ा संतोष होता है। की चलो कोई तो है, जो मुझे पलट कर जवाब नहीं देता। छः बज के बीस मिनट हो गए थे . अब मुझे घर चलना चाहिए . घर ! हाँ , घर ही कहना होगा , क्योंकि वहां मेरे पापा हैं, एक अदद सौतेली माँ हैं, और उनके तीन बच्चे हैं, मेरा भी एक भाई है, यानि सगे भाई-बहन हम दो ही हैं। बाकी तीन मेरी दूसरी माँ के हैं। घर के नाम से ही शरीर में असंख्य कांटे से उगने लगते हैं। अजीब दहशत सी होती है, घर के नाम से। हर वक्त चख-चख, एक अजीब सा तनाव वातावरण में घूमता हुआ। सबके दिमाग तनावग्रस्त और चेहरे मुरझाये हुए। बस घर का मौसम कुछ यूँ है, की बादल गरजते और बिजली चमकती रहती है। देखना तो ये होता है, की ये बिजली कब किस पर गिरती है। और हमें न चाहते हुए भी इस बिजली की आग में झुलसना पड़ता है। रह जाता है हमारे पास एक झुलसा हुआ तन और दहकता हुआ मन। बस , इसीलिए घर जाने की इच्छा ही नही होती। लेकिन घर तो जाना ही है न! एक झटके के साथ फाइल्स बंद कर कुर्सी खिसका के मैं उठ गई। बाहर निकल कर मैं धनीराम को नहीं देख रही लेकिन धनीराम मुझे देख रहा है, यह मैं अच्छी तरह महसूस कर रही हूँ। एक दिन तो धनीराम ने टोक ही दिया था , बिटिया ऑफिस से सब पाँच बजे ही चले जाते हैं , तुम क्यों काम करती रहती हो ? और मैं बस मुस्कुरा दी थी . उससे क्या कहती ?मेरे स्टाप तक जाने वाली बस जैसे मेरा ही इंतज़ार कर रही थी . अपने स्टाप पर उतरने के बाद मेरे पैर घर की ओर जाने से इनकार करने लगते हैं . और मैं उन्हें जबरन घसीटती हुई घर तक ले आती हूँ। रोज़ ही ऐसा होता है। घर के अन्दर से चिरपरिचित चीखने-चिल्लाने की आवाजें आ रहीं थीं। बबलू बाहर ही बैठा था। बात करने की गरज से पूछ लिया-'कॉलेज से आ गए?''नहीं। कॉलेज में ही हूँ।' बाप रे!!! ऐसा गुस्से भरा जवाब! समझते देर नहीं लगी की आज भी कुछ हो गया होगा। दबे पाँव अन्दर पहुँच पहुँची और धीरे से अपने कमरे में आ गई। 'नीलू, बड़ी मेम साब आ गईं हैं, उन्हें कमरे में ही चाय दे आ'- विष बुझी आवाज़ सुनाई दी। कमाल है! मैं इतनी छुपती-छुपाती दबे पाँव अपने कमरे में आई तब भी इनकी पैनी निगाहों से बच नहीं पाई। नीलू टेबिल पर चाय रख गई थी। 'साहबों जैसे ठाठ हैं। काम न धाम फ़िर भी कमरे में ही चाय चाहिए!! हम सब तो नौकर हैं। जैसा चाहा, नचा लिया! 'चाय ज़हर हो गई थी, मेरे लिए। मैंने कब कहा की मेरे लिए चाय तुम कमरे में पहुँचाओ? बल्कि मैं तो दबे पाँव इसीलिए आती हूँ , की कपडे बदल कर मैं ख़ुद चाय बना लूंगी। लेकिन बातें सुनाने के लिए चाय भी ख़ुद ही भिजवा देंगी और फिर उसी बात को तत्काल तमाम तानों के साथ सुना भी देंगीं। लो अब पियो चाय! एकदम आंसू ही आ गए मेरे तो। ओह माँ............तुम क्यों चलीं गईं? तुम समझतीं थी हम बड़े हो गए हैं, पापा भी बुढा रहे हैं तो दूसरी शादी नहीं करेंगे। लेकिन तुम ये क्यों भूल गईं , कि जिसके कारण तुमने आत्महत्या की, तुम्हारे जाने के बाद उसका रास्ता तो एकदम साफ़ हो गया न? फिर वो इस घर में क्यों न आती? और आई भी, अपने तीन बच्चों सहित। इनके आते ही हम, मैं और बबलू, दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंके गए। पापा तो अब कुछ बोल ही नहीं पाते। बस कभी-कभी रात गए मेरे कमरे में आते हैं, और मेरे पास आकर मेरे बालों को सहलाते हैं, कहते कुछ भी नहीं। बबलू ने तो जैसे अपने आप को बिल्कुल काट लिया है घर से। बस खाने और सोने का नाता ही रखा है उसने। मुझे भी उकसाता है-' तुम क्यों खटती रहती हो घर में? सुबह जितना खाना तुम बनाती हो क्या उतना हम दोनों ही खाते हैं? इस पूरी फौज का पेट भरने तुम क्यों चूल्हे में घुसी रहती हो? छोड़ दो सब काम। हम तुम होटल में खा लिया करेंगे। बनाएं देवी जी अपना, अपने पतिदेव और इस वानर सेना का भोजन। लेकिन मैं बबलू को कैसे समझाऊं! उसकी तरह फ्री स्टाइल मैं नहीं हो सकती। मज़े की बात तो ये है की सुबह का सारा काम निपटाने दोनों छोटे बच्चों को स्कूल भेजने के बाद भी मुझे सुनना पड़ता है की काम नहीं करती। 'अरे दीदी! आपने चाय नहीं पी?''ओह!! मैं भूल ही गई। ' और उस काढा हुई चाय को होठों से लगा लिया मैंने। 'कुलच्छनी है। चाय के लिए नखरे बता रही है। और घरों में देखा नहीं है, की कैसे लड़कियां काम में खटतीं हैं. काम करना पडे तो आटे दाल का भाव मालूम हो.’ मैं सोचती हूं कि काम भी मैं करती हूं और शायद इसीलिये आटे-दाल का भाव भी मुझे मालूम है. लेकिन इससे क्या? अच्छा ही हुआ जो मैं नौकरी करने लगी. वरना अब तक तो इस गाली-गलौज के कारण मैं भी नींद की गोलियां खा कर सो गई होती, मम्मी की तरह. ’पडी-पडी खाना चाहती है. पता नहीं कब तक मेरी छाती पर मूंग दलती रहेगी. भगवान इसका काला मुंह भी तो नहीं करता. ’ काला मुंह! सबके हाथ पीले होते हैं, मेरा मुं ह काला होने वाला है क्या? हे भगवान! ये दिन भर गालियों के साथ बात करने वाली मम्मी एम.ए. बी.एड हैं कोई मानेगा क्या? मेरी मां और इनमें कितना फ़र्क है! तब सचमुच ही हमारा घर आदर्श हुआ करता था. हम लोग सचमुच ही सभी-सुसंस्कृत थे। लेकिन अब? अब सभ्यता का झूठा आवरण ओढ़ना पड़ता है। सबसे चेहरे पर नकली मुस्कुराहट चिपका कर बात करनी पडती है। वरना हंसने-मुस्कुराने जैसे शब्द तो हमारे शब्दकोष से गायब ही हो गये हैं। मम्मी को गये तीन साल हो गये, और इस बीच हम लोगों ने ज़ोरदार ठहाका लगाया हो, ऐसा मुझे याद नहीं पडता।आज रविवार है . यानि छुट्टी का दिन । सबका प्यारा दिन, लेकिन यही रविवार जो कभी मुझे बेहद प्रिय था, आज काटने को दौडता है. लगता है, कहां भाग जाऊं! लेकिन कहीं भाग भी तो नहीं सकती. ’अनु तुम्हारी सहेली आई है.’ बबलू की आवाज़ थी. जाकर देखा, मधु थी. अच्छा लगा. हम लोग बातें कर रहे थे, लेकिन मैं दर रही थी, कि पता नहीं कब गालियों की खूबसूरत आवाज़ें मेरे कमरे में सुनाई पडने लगें. मधु शायद मेरे चेहरे से परेशानी पढ पा रही थी, समझ रही थी, कि मैं शायद किसी बात पर अनमनी हूं. और उसने पूछ ही लियी-’अनु जब से मैने तुम्हें जाना, तभी से तुम मुझे बेहद गुमसुम सी लगीं. एकदम चुपचाप. न हंसना, न बोलना. मैं ही हूं, जितना बोलती हूं तुम तो बस उतने का जवाब भर दे देती हो. घर का कोई कारण है, या या कोई दूसरी.....’’नहीं-नहीं...ऐसी कोई बात नहीं है. मेरे घर के सभी लोग बहुत अच्छे हैं. तुम नहीं जानतीं मधु, मेरी मम्मी दूसरी ज़रूर हैं पर मुझे कितना प्यार करतीं हैं. बहुत अच्छी हैं मेरी मम्मी.’मेरी आवाज़ रुंध गई थी. कितना बडा झूठ मैं बोल रही थी, अपने घर की पुरानी मर्यादा को बनाये रखने के लिये.



बुधवार, 10 जून 2009

सीमाबद्ध

'अरे...........क्या कर रहे हो?' जब तक मैं कुछ समझूं, तब तक सुनील मुझे एक प्यारी सी साडी में लपेट चुके थे। और मैं भी अवश, मंत्रमुग्ध सी उसमें लिपटती जा रही थी।
'अब कुछ समझ में आया की मैं क्या कर रहा था?'
'आया जनाब , लेकिन अपने स्वेटर पर तो रहम किया होता, सारे फंदे निकल गए...'
आज हमारी शादी की सालगिरह थी। दस साल हो गए, लेकिन सुनील इस दिन को सेलिब्रेट करना नहीं भूलते। जब से मैं इस घर में आई हूँ, तब से सुनील और उनके घर वालों ने मुझे अपने प्यार-स्नेह से सराबोर कर दिया है। कभी-कभी तो इतना अधिक प्यार असह्य हो जाता है, मेरे लिए। इतने प्यार-दुलार की आदि नहीं हूँ न! पाँच बरस की थी जब मेरी माँ का देहांत हुआ । अपनी कर्कशा चाची के पास ही रही। पापा ने मेरे कारण दूसरी शादी नहीं की अपने माँ-पापा की दुलारी इकलौती बेटी जो थी। उन्हें डर था, की दूसरी माँ पता नहीं मुझे प्यार दे पाएगी या नहीं? लेकिन पापा ने जिस डर से शादी नहीं की, उससे मुझे बचा पाये?
मुझे अच्छी तरह याद है, मैं आठ बरस की थी तब। रक्षा बंधन का दिन था। अपनी चचेरी बहनों नीलू-शीलू दी के साथ ही मैंने भी मेंहदी लगाई थी। सुबह सबकी हथेलियाँ मेंहदी से लाल हो रही थीं। दोनों दीदियाँ तो अपने हाथों तक पानी पहुँचने ही नहीं देना चाहती थीं। उनकी देखा-देखी मैंने भी पानी से बचने की सोच ली। अपनी छोटी-छोटी रची हुई हथेलियों को देख कर मैं फूली न समा रही थी। तभी चाची की आवाज़ आई-
'रीतू, चल ये कप धो दे ज़रा। सब को चाय दे दूँ। '
मैंने निरीह भाव से नीलू दीदी को देखा तो 'जा न..कप धो दे ।' कह कर उनहोंने मुझे झिड़क दिया। आंसू आ गए मेरे लेकिन आंसुओं को ज़ज्ब करना तो बहुत बचपन में ही सीख लिया था मैंने। शायद मेरा नन्हा मन समझ गया था की यहाँ मेरे आंसुओं की कोई कीमत नहीं।
नहा-धो कर नीलू-शीलू दी और राजू ने नए कपडे पहने थे और मैंने अपनी पुरानी फ्राक जो पापा दीवाली में लाये थे, अपने नन्हें हाथों से धोकर जिसे मैंने रात में ही तकिये के नीचे रख लिया था, पहन ली। राखी पर मेरे कपडों के लिए पापा ने पैसे भेजे थे मुझे मालूम था, लेकिन उससे क्या? उन पैसों का क्या हुआ मुझे नहीं मालूम जानने लायक उम्र भी नहीं थी। मेरे बड़े होने पर पापा ने बताया था की वे मेरे सभी खर्चों -कपडों के लिए नियमित पैसा भेजते थे, लेकिन मुझे याद नहीं पड़ता की चाची ने मेरे लिए कभी कोई कपडा ख़रीदा हो। जब पापा आते थे तो वही ज़रूरत की तमाम चीज़ें खरीद देते थे। उनमें से भी मुझे क्या मिलता था?
दोनों दीदियाँ घंटों मुझसे झूला झुलावाया करतीं थीं, और मैं भी बस इस इच्छा से की बाद में मुझे भी पाँच चक्कर झूलने को मिलेंगे, खूब तेज़ झूला झुलाती थी। लेकिन वो पांच चक्कर मुझे कभी नहीं मिलते थे। एक बार पापा ने मुझे ले जाने की बात की थी लेकिन तब चाची ने जबरन रोक लिया था, उनकी स्थाई नौकरानी न चली जाए इस डर से। मैं भी चाह कर भी जाने की बात नहीं कह पाई थी। कुछ बोलने का कभी मुझे मौका ही नहीं मिला। और शायद इसीलिये मेरे शब्द मुझसे रूठ गए थे। अब मैं चाह कर भी अपनी बात किसी को समझा ही नहीं पाती।
दिन हो या रात ज़रूरत पड़ने पर मुझे ही बुलाया जाता था। ज़रा सा काम बिगडा नहीं की चाची के ज़ोरदार थप्पड़ चेहरा लाल कर देते थे। अपनी माँ की दुलारी छुईमुई सी मैं, चाची के डर से काम और भी ज़्यादा बिगडते,मार और ज़्यादा पडती। इसी तरह डांट, फटकार,मार और झिड़कियों के बीच बचपन बीता मेरा। कालेज में आ गई थी मैं । उन्ही दिनों नीलू दी की शादी हो गई थी और शीलू दी के लिए जोर -शोर से लड़का ढूँढा जा रहा था . लेकिन कहीं भी बात तय नहीं हो पा रही थी . जो दो चार लडके शीलू दी को देखने आये थे, वे मुझे पसंद कर गये। इन बातों से शीलू दी मुझसे और अधिक चिढने लगीं थीं। चाची का सारा गुस्सा भी मुझ पर ही निकलता था। लेकिन अब मेर युवा होता मन विद्रोह करना चाहता था। लेकिन विद्रोह करके जाती कहां? पापा तो इतने तटस्थ हो गये थे कि मुझे महसूस ही नहीं होता था कि वे मेरे पापा हैं। हर महीने पैसे भेज कर ही उनहोंने अपने दायित्व की इतिश्री कर ली थी।
उन्हीं दिनों सुनील के यहां शीलू दी की शादी की बात चली थी। और हर बार की तरह इस बार भी जब सुनील पैवार सहित शीलू दी को देखने आये तो मुझे पसन्द कर चले गये। लेकिन इस बार सुनील पिछले लडकों की तरह चाचा के मना करने पर मान नहीं गये वरन ज़िद ही कर ली मुझे ब्याहने की। पापा को भी सुनील पसंद आये और फ़िर आनन-फ़ानन मेरा ब्याह हो गया। शायद पापा को भी जल्दी थी, मुझे उस घर से निकालने की।
बस इस तरह मैं सुनील की ज़िन्दगी में आ गई और तब से ही सुनील ने पलकों पर बिठाया है मुझे। हर दुख-दर्द को बराबरी के साथ महसूस किया है उन्होंने।
’अरे!! देवी जी अभी तक यहीं विराजमान हैं?’ बुरी तरह चौंक गई थी सुनील की आवाज़ पर।
’रीतू, हमारी शादी को दस साल हो गये लेकिन तुम्हारी ये चौंकने-सहम जाने की आदत अभी तक गई नहीं। तुम्हारे इस तरह सहम जाने से मुझे बहुत दुख होता है। तुम ये क्यों भूल जाती हो कि तुम अब उस कारागार में नहीं अपने घर में हो। जो कि पूरी तरह तुम पर आश्रित है। इस घर का प्रत्येक सदस्य तुम्हारा मुंह जोहता है, तुम किसी की मोहताज नहीं हो। तुम्हें इस तरह सिमटते देख कर लगता है, कि मेरे प्यार में ही कोई कमी है जो तुम अभी तक अपने भीतर समाये भय को बाहर नहीं निकाल पाईं।’
मैं तुम्हें कैसे समझाऊं सुनील कि जिसे शैशव से लेकर युवावस्था तक केवल मार-डांट ही मिली हो कडी से कडी सज़ा ही जिसके हिस्से में आई हो, उसके मन से भय इतनी आसानी से कैसे निकल सकता है? पहले सबकी डांट से सहमी रहती थी, अब तुम्हारे अत्यधिक प्यार से सहमी रहते हूं। प्लीज़ सुनील, मुझे इतना अधिक प्यार मत दो कि मैं उसे बर्दाश्त ही न कर पाऊं। मुझे सीमाबद्ध प्यार चाहिये, दे पाओगे सुनील?
मेरी आंखों से अविरल अश्रुधारा बह चली थी, जिसे सुनील कुछ समझे, कुछ नहीं।

सोमवार, 1 जून 2009

मेरी पसंद के खजाने से...

टूटते लम्हों को मुट्ठी में जकड़ने वालो,
क्या मिलेगा तुम्हें,परछाईं से लड़ने वालो।
उम्र भर बैठ कर रोना कोई आसान नहीं,
अपनी यादें भी लिए जाओ,बिछड़ने वालो.