गुरुवार, 26 मार्च 2009

ज्ञातव्य

Thursday, March 26, 2009

"अरे वाह साहब! ऐसा कैसे हो सकता है भला!! इतनी रात तो आपको यहीं हो गई, और अब आप घर जाके खाना क्यों खायेंगे?"
’देखिये शर्मा जी, खाना तो घर में बना ही होगा। फिर वो बरबाद होगा।’
’लेकिन यहां भी तो खाना तैयार ही है। खाना तो अब आप यहीं खायेंगे।’
पापा पुरोहित जी को आग्रह्पूर्वक रोक रहे थे। हद करते हैं पापा! रात के दस बज रहे हैं, और अब यदि पुरोहित जी खाना खायेंगे तो नये सिरे से तैयारी नहीं करनी होगी? और फिर इतनी ठंड!! पता नहीं पापा क्यों मां से बिना पूछे ही क्यों लोगो को आये दिन खाने पर जबरन रोक लेते हैं! ये पुरोहित जी तो आये दिन! कहा नहीं कि जल्दी से खाने पर बैठ जाते हैं! अगर वे ही सख्ती से मना कर दें तो......
’राजू......ओ राजू........’
’ऐ राजू भैया, सो गये क्या?’
’हां’
’अच्छा!! हां कह रहे हो और सो भी गये हो? पापा बुला रहे हैं, सुनाई नहीं दे रहा?’
’तुम सुन रही हो ना! तो बस तुम्हीं चली जाओ। मैं तो तंग आ गया पापा की इन आदतों से।’
सर्दियों में रज़ाई छोडना बडा कठिन काम होता है, शायद इसीलिये राजू भैया बिस्तर में घुसने के बाद अब उठना नहीं चाह रहे थे।
’ राजू..... अन्नू कोई सुन रहे हो.....?’
’ आई पापा........ ।’ आखिरकार उठना मुझे ही पडा था।
’अन्नू बेटा ज़रा जल्दी से पुरोहित अंकल के लिये खाना तो लगा दो।’
इतना गुस्सा आया था पुरोहित जी पर! मना करने के लिये मुंह में ज़ुबान ही नहीं है जैसे! लेकिन कर क्या सकती थी? बस मन में ही भुनभुनाती अंदर चली आई। मां रसोई में सब समेटने के बाद अब पापा के आदेश पर असमंजस में बैठी थी।इन पुरोहित जी के किस्मत तो देखो... केवल एक कटोरी पालक की सब्जी बची है! और कुछ भी नहीं! घर की बात हो तो अलग, अब किसी गैर को केवल पालक रोटी तो नहीं दी जा सकती न!! दही भी खत्म।
’मम्मा...जो है वही दे दो। कुछ बनाना मत।’
’ नहीं बेटा ऐसा खाना दूंगी तो अपनी ही तो नाक कटेगी। चार जगह कहते फिरेंगे......’
’मतलब बनाओगी?? तुम लोगों की इसी मेहमान नवाज़ी से तो......’
पैर पटकती कमरे में आ गई।
’अन्नू, क्या आदेश हुआ पापा का?’
’होगा क्या? वही खाना खिलाओ।’ हमेशा ही ज्यों-ज्यों रात गहराती जाती है, त्यों-त्यों पापा का खाना खिलाने का विचार भी गहराता जाता है। सोचते नहीं कि बच्चों को दिक्कत होगी। अरे तुम्हें क्या हो गया? आंखे फाड-फाड के क्या देख रहे हो?’
’तुम्हारे वश का तो कुछ है नहीं, सिवाय चिडचिडाने के अच्छा हो कि तुम मम्मी की मदद करो।’
’तुम्हारे पापा भी हद करते हैं....’ मम्मी भी कमरे में आ गईं थीं।
’तो क्या हुआ मम्मा... पापा का होटल तो हमेशा ही खुला रहता है, तुम्हारे जैसा बिना मुंह का कुक जो है उनके पास।’ राजू भैया रज़ाई में घुसे-घुसे भाषण दे रहे थे। उनका क्या! ऐसे रज़ाई में घुस कर तो मैं भी बढिया भाषण दे सकती हूं। मेरी जगह रसोई में मम्मी के साथ काम करवायें तो जानूं! देर होती देख पापा भी अंदर आ गये थे-
’क्यों खाना नहीं है क्या?’
’ये अब पूछ रहे हैं आप? मान लीजिये खाना नहीं है, तब? किसी को ज़बर्दस्ती रोकने की क्या ज़रूरत है?’
’तुम लोग तो बस बहस करने लगते हो। मैं उन्हें ज़बर्दस्ती क्यों रोकूंगा भला? मैंने तो बस एक बार कहा था( वाह पापा!! क्या झूठ बोला है!)।
’चलो... अब मैं कुछ बनाती हूं।’ ’अरे तुम कुछ बनाओ मत, जो है सो दे दो’ कह कर पापा फिर चले गये। मम्मी आटा गूंध रहीं थीं, मालूम है, पूडियां बनेंगीं इतनी रात को गरमागरम पूडियां खाने के बाद कोई क्यों ना रुके? ज़रूरत है तो बस रोकने की। एक बार ठंडा खाना परोस तो दें....लेकिन नहीं अपनी नाक बचाये रखने के लिये सब करना होगा। अभी सब्जी भी बनेगी....ये मम्मी-पापा भी ना! दिल खोल कर खर्च करेंगे, और फिर घर के बेहिसाब खर्चों के लिये रोयेंगे भी। जब देखो तब मेहमान-नवाज़ी.... आज वैसे भी महीने की पच्चीस तारीख है। महीने का अंत तो वैसे भी बहुत तंग होता है किसी भी ऐसे व्यक्ति के लिये, जो शुद्ध वेतन में शाही तरीके से रहना चाहता हो। हमारा घर भी उन्हीं में शुमार है।
ठंडे पानी से हाथ धोते ही सारा शरीर कांपने लगा था, मेरे हर एक कंपन में से पुरोहित जी के लिये चुनिंदा गालियां निकल रहीं थीं। आनन-फानन मम्मी ने शानदार डिनर तैयार कर दिया था। खाना खिलाते-खिलाते साढे ग्यारह हो गये थे।
अपनी पोजीशन बनाये रखने के लिये इस तरह खर्चक रना मुझे और राजू भैया दोनों को ही सख्त नापसंद था। खर्च करते समय तो ये दोनों ही बिना सोचे-समझे खर्च करते हैं फिर बजट गडबडा जाने पर एक दूसरे को दोष देते हैं। खैर...... फिर भी घर की गाडी चलती रहती है। लेकिन इधर मैं और भैया दोनों ही पापा के खर्च करने के तरीके से नाखुश थे, लिहाजा पापा ने भैया को घर चलाने की ज़िम्मेदारी सौंप दी है। राजू भैया ने भी चैलेंज किया है कि वे इतने ही पैसों में बेहतर व्यवस्था करेंगे।
बडी ज़िम्मेदारी थी....अब दिन के खाली समय में हम दोनों महीने के हिसाब का ही जोड बिठाते रहते।
’देख अन्नू, ये पापा की तनख्वाह के अट्ठारह हज़ार रुपये हैं.... और ये हैं दूध, बिजली, राशन सब्जी, फल, धोबी, पेपर, बाई, टेलीफोन के बिल.......’
’हूं.....’ मैं पत्रिका से सिर नहीं हटना चाह रही थी....
’ अब हिसाब की शुरुआत कैसे करें?’
’हूं......’
’क्या हूं-हूं लगा रखी है। मैं यहां सिर खपा रहा हूं और तुम..... चलो इधर।’
किसी प्रकार बजट बना। सारे खर्चे निकालने के बाद केवल दो हज़ार रुपये हमारी बचत में थे, जिनसे कोई भी फुटकर खर्च होना था।यानि हम लोगों का जेबखर्च नदारद!! दूसरे खर्चे ज़्यादा ज़रूरी हैं!!
राजू भैया इस लम्बे-चौडे खर्चे को देख कर बडे दुखी थे।
’यार अन्नू ,मुझे तो कुछ रुपये चाहिये ही। एकदम खाली जेब कैसे रह सकता हूं?’
’तो तुम सौ रुपये ले लो। लेकिन तब सौ ही मैं भी लूंगी। मेरे खर्चे नहीं हैं क्या?’
उसी शाम भैया ने अपना फरमान ज़ारी किया था,खर्चों में कटौती बावत। नया बजट!एसा बजट तो वित्त-मंत्रालय भी पेश नहीं करता होगा! कोई उधारी नहीं...सब कैश पर। हर आदेश पर मम्मी-पापा ने सिर हिला के सहमति जताई। सारी कटौतियां शिरोधार्य कीं।
महीना थोडी सी तंगी के साथ गुज़रा था। अब हमारे यहां आये दिन मिठाई-पार्टियां नहीं होती थीं। आने-जाने वालों को चाय-चिप्स में ही प्रसन्न होना पडता था। इससे हमें एक बडा फायदा ये हुआ कि केवल प्लेट से प्रेम रखने वालों का आना-जाना एकदम कम हो गया। पापा भी अब ज़रूरी होने पर ही लोगों को खाने पर रोकते थे, वो भी हमलोगों को बताकर। लेकिन खर्च हमारे पास आ जाने के कारण हम लोगों की हालत खस्ता हो गई थी। कारण? अब हम किसी भी चीज़ की ज़िद कर ही नहीं सकते थे!! पूरा खर्च हमारे पास था। यदि कहते भी तो पापा बडे आराम से कह देते पैसे तो तुम्हारे पास ही हैं, जो चाहो ले लो। लेकिन बजट था कि कुछ अतिरिक्त खर्च की अनुमति ही नहीं देता था। इसी बीच राजू भैया का एम।ई। के लिये सेलेक्शन हो गया। बहुत खुश थे भैया। दो साल बाद शानदार नौकरी..... पापा-मम्मी ने उनसे नये कपडे बनवा लेने को कहा था। चलो इसी बहाने मेरा भी एक सूट तो बन ही जायेगा...
राजू भैया अपना सामान लगा रहे थे, और मैं सोच रही थी कि कल उन्हें जाना है और अभी तक वे नये कपडे तो लाये ही नहीं। तभी उन्होंने मदद के लिये मुझे बुलाया- दौड के पहुंची, देख कर दंग रह गई कि कहीं भी जाने से पहले हमेशा नये कपडे खरीदने वाले राजू भैया, आज सारे पुराने कपडे खुद से प्रेस करके लगा रहे हैं।
’भैया नये कपडे क्यों नहीं लाये?’
नहीं यार! अभी ज़रूरत ही नहीं थी। ’
क्या कह रहे हो भैया? तुम और ये पुराने कपडे???
’ अन्नू, हम लोग कर्ज़ से लदे रहने के लिये हमेशा मम्मी-पापा को दोष देते थे, अपने आपको, अपनी आदतों को देखते तक नहीं थे। अपनी इस तनख्वाह में पापा घर चलाते या हमारी बडी-बडी फ़रमाइशे पूरी करते! उधार कपडे और अन्य सामान शायद वे इसीलिये लेते थे ताकि हमारी ज़रूरतें पूरी होती रहें। हमलोगों को अपनी चादर की लम्बाई तो अब मालूम हुई है,जब्कि खुद ओढ कर देखी। और पहली बार मैने जाना कि राजू भैया इतने गंभीर भी हो सकते हैं। शायद बडे हो गये हैं।

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

आस-पास बिखरे लोग

"क्या हुआ?”

"पता नहीं"

"तो फिर आप यहां क्या कर रहे हैं?"

"जो आप कर रहे हैं"

नीली कमीज़ वाले के पूछने पर सफेद कमीज़ वाले ने बेहद रूखा पर मुंहतोड जवाब दिया था। चौरहे पर भीड दोगुनी हो गई थी। लोग अलग-अलग टोलियां बनाये खडे थे। नीली कमीज़ वाले की जिग्यासा अभी तक शांत नहीं हुई थी,सो वह कभी इस टोली कभी उस टोली में खडा हो, घटना को समझने की कोशिश कर रहा था। और अब जाके ,इतनी देर बाद उसे समझ आया कि सामने वाले घर में बहू जल मरी या मार दी गई।

’अरे साहब!घर के लोगों ने खुद ही जला दिया, और अब नाटक फैला रहे हैंकि बहू खुद ही जल मरी।’

’ये तो बडी बुरी बात है। यहां इतनी बडी दुर्घटना हो गई और आप सब खडे-खडे तमाशा देख रहे हैं।’ नीली कमीज़ वाला अपनी पेंट ऊपर चढाते हुए बोला।

’हम सब तो तमाशा देख रहे हैं,आप ही कुछ क्यों नहीं करते?’

’मुझे तो पूरी घटना ही नहीं मालूम थी।’

’अब तो मालूम हो गई? अब कुछ करिये।’

’अरे नहीं साहब, ये विवाद का वक्त नहीं है। इस केस पर विचार करना चाहिये। ’

बात बिगडती देख नीली कमीज़ वाला खिसिया कर फिर अपनी पेंट ऊपर चढाने लगा।

’पहले अपनी पेंट तो सम्भाल लो, फिर केस सम्भालना।’ ज़ोरदार ठहाका हवा में तैर गया। नीली कमीज़ वाला वहां से खिसक गया था।

’यार वो वाली फिल्म देखी उसमें भी सास बहू को बडा दुख देती थी।’

’मैं तो ऐसी रोनी फिल्में देखता ही नहीं। क्या फ़ायदा?’

’और कौंमेडी फ़िल्म्स देखने से फ़ायदा है?’ नीली कमीज़ वाला था। लेकिन उसके सवाल का जवाब देना किसी ने ज़रूरी नहीं समझा।

’ देख यार वो गुलाबी सूट वाली लडकी.....’ ’हां यार.......बडी सुन्दर है..... चल॥ उसके पास से निकलते हैं॥’

’जनाब ये तो ठीक बात नहीं...पहली बात तो यहां बहू जला दी गई, दूसरी ये कि आपलोग मामले की गंभीरता को समझने की बजाय लड्की को छेडने का प्लान बना रहे हैं...कोई आपकी बहन को ऐसा ही कहे तो?’

’कौन स्साला मेरी बहन तक पहुंच रहा है? लडके ने पलटकर देखा तो नीली कमीज़ वाला अपनी बात कहने के बाद अब उसकी गंभीरता समझ रहा था, दूसरे लडके बीच-बचाव ना करते तो शायद बुरी तरह पिट जाता नीली कमीज़ वाला।

सामने वाले घर से ज़ोर-ज़ोर से रोने की आवाज़ें आने लगीं थीं, पुलिस के दो सिपाही आ रहे थे, शायद इसीलिये। भीड फिर तितर-बितर हो गई थी। लोगबाग सिपाहियों के पीछे-पीछे उस घर की बाउन्ड्री में घुस गये थे। बाकी तमाशबीन घर के बाहर ही भीड लगाके खडे थे। चौरहे पर अब इक्के-दुक्के लोग ही घूम रहे थे।

’बडा बुरा हुआ साहब! और लोगों को तो देखो, कुछ करते ही नहीं। ’

अरे श्रीमान जी यदि मैं इस मोहल्ले में रहता होता, तो इन लोगों को बचने न देता। पता नहीं इस मोहल्ले के लोग कैसे डरपोक हैं...कैसे सब देख-सुन रहे हैं, और चुप हैं।’

’लो भला!! देख तो आपके साथ ही रहे हैं। जितना आपको मालूम है, उतना ही हमें भी... घटना कोई सबके सामने तो हुई नहीं॥ कयास हैं केवल....’

’घटना का पता कैसे लगा? मतलब कब हुई...??मुझे तो कुछ खास नहीं मालूम, लेकिन जब शोर उठा उस वक्त मैं यहीं अपने घर के बाहर ही था। सामने वाले घर में तेज़ रेडियो बज रहा था।रोने की आवाज़ें सुनाई दीं, तो उसी घर के छुटके बच्चे से जो बाहर ही था, पूछा तो बोला कि छोटी भाभी जल के मर गईं। कमरे में बंद हैं। मेरे पूछने पर कि कब से बंद हैं, बोला दस-पन्द्रह मिनट से। अब साहब! दस-पन्द्रह मिनट में तो आदमी पूरी तरह जल भी नहीं पायेगा, उन्होंने मरा हुआ कैसे डिक्लेयर कर दिया?’

’अरे वाह!! भई कमाल की जानकारी है आपके पास तो!!!’ बताने वाला घबरा गया था।

दोनों सिपाही बाहर आ गये थे, और अब मोहल्ले वालों से पूछताछ कर रहे थे।

’क्यों भैये...तुमने लडकी के रोने-चिल्लाने की आवाज़ें तो सुनीं होंगीं?’

’ऐं.....कहां....मैं तो आज उठा ही बहुत देर से हूं।’

’क्यों भाई साहब, आप तो ऊपर ही रहते हैं, आप ने तो ज़रूर सुनी होंगीं।"

’मैं.........मैंने कहां सुनी........मैं तो अभी-अभी बाहर से लौटा हूं।’

’श्रीमान जी, आप को तो बडी अच्छी जानकारी है, आप ही उन पुलिस वालों को कुछ क्यों नहीं बताते?’

’मैं?? अरे सब सुना-सुनाया है, मैने कुछ देखा थोडे ही है...’ और वे वहां से खिसक गये थे। और अब धीरे-धीरे सारे लोग खिसकने लगे थे। पता नहीं कब कौन पुलिस की चपेट में आ जाये......!!! पुलिस वाले भी खानापूर्ती के लिये ऊट्पटांग बयान दर्ज़ कर वापस चले गये थे।

पोस्ट्मार्टम हुआ, रिपोर्ट आत्महत्या सिद्ध कर रही थी। और लोग अपने-अपने घरों में ज़ोर-शोर से कहते नज़र आ रहे थे कि ये हत्या है, लेकिन बाहर किसी के पूछने पर तत्काल अपनी बात से मुकर जाते, पुलिसिया झंझटों से बचने के लिये।

और एक महत्वपूर्ण केस दब गया था, उचित जानकारी के अभाव में.....।

गुरुवार, 19 मार्च 2009

वातावरण
धुन्ध का वातावरण है इन दिनों,
खौफ़ में सारा जहां है इन दिनों।
ढूंढ्ने से भी अब नहीं मिलता इंसां,
जानवर की खाल में सब इन दिनो।
रात सपने में सच आया,
झूठ से वह डर गया है इन दिनों।
जा रहे थे हम तो सीधे ही मगर,
खुद को चौरस्ते पे पाया इन दिनों।
कर रहे थे बरसों से हिफ़ाजत जिनकी हम,
दुश्मनों की भीड में उन को भी पाया इन दिनों।
आज ज़रा जब गौर से देखा खुद का चेहरा,
शक्ल अनजानी लगी है इन दिनों।
कितनी बातें, कितनी यादें ज़ेहन में दफ़्ना दी हैं,
अब तो उन की लाश बची है, इन दिनों।
सोचा था यादों के पंछी पिंजरे में रख लूंगी मैं,
लेकिन देखा कानूनों की,धूम मची है इन दिनों.

मंगलवार, 17 मार्च 2009


तिलक-होली
होली बीते छह दिन हो गये, लेकिन बात है कि दिल से जाती ही नहीं.... असल में बात "तिलक-होली" से सम्बंधित है.. मध्य-प्रदेश का जल-संकट अब जग-ज़ाहिर है, नये सिरे से बताने की बात नहीं. इसी जल-संकट के मद्देनज़र प्रदेश सरकार होली के दस दिन पहले से तिलक-होली का राग अलाप रही थी. प्रदेश के सभी अखबारों में बडी-बडी अपीलें-केवल तिलक लगायें-जल बचायें छाये हुए थे. अच्छा ही लगा...भीषण जल संकट से जूझने वाले सतना शहर के लिये तो ये ज़रूरी भी है कि पानी की हर बूंद बचाई जाये. होली के दिन उम्मीद थी कि शास्कीय जल प्रदाय शायद केवल एक घंटे को हो... लेकिन गज़ब तो तब हुआ जब सुबह सात बजे से लेकर दोपहर दो बजे तक पानी की सप्लाई होती रही. शहर के सैकडों टोंटी रहित सार्वजनिक नल नाली में बेशकीमती जल बहाते रहे.... क्या तिलक होली की सार्थकता तब नहीं होती, जब पानी नियत समय के बाद सप्लाई ही न किया जाता?? ये कैसा पानी बचाओ अभियान है???

गुरुवार, 12 मार्च 2009

ऐसे बीती होली...........
बडा रंगीला त्यौहार है होली!!!! रंगीला?? हां..कभी था. अब तो साल दर साल रंग फीके पडते जा रहे हैं.अब तो कई साल हुए हुरियारों की टोली देखे हुए.. फागों का मौसम तो कब का बीत गया..पता नहीं कहां गये वो ईसुरी की रस भीगी फागें गाने वाले..खैर... अभी कुछ साल पहले तक अडोस-पडोस के लोग, जो उम्र में मुझ से छोटे हैं, होली पर प्रणाम करने और अबीर लगाने तो ज़रूर ही आ जाते थे,लेकिन इस बार तो उन सब का भी पता नहीं...और दिनों की अपेक्षा कुछ ज़्यादा ही सन्नाटा पसरा रहा शहर में.बीच बीच में बच्चों की कुछ टोलियां अरूर होली का अहसास दिलातीं रहीं...
त्यौहारों पर मार केवल मंहगाई की नहीं है,बल्कि तथाकथित आधुनिकता की भी है.पर्व विशेष की पारम्परिकता को यदि दरकिनार कर दिया जाये तो त्यौहार में फिर कुछ बचता ही नहीं.अब आधुनिकता के नम पर ऐसी परम्पराओं को भी खत्म किया जा रहा है,जिनसे समाज को कोई नुक्सान कभी था ही नहीं;बल्कि ये तो जीवन में रस घोलने का काम करती थीं.भारत के रीति-रिवाज़ों को समझने और समझाने में मददगार थीं.अफ़सोस की आज इन त्यौहारों की रीतियों को "रूढियां" कहने वालों की कमी नहीं है, जबकि वास्तविक रूढियां, जिन्हें जड से हटाया जाना चाहिए आज भी अपनी जगह पर मौज़ूद हैं.... कोई संकल्प है हमारे पास इन्हें मिटाने का????