रविवार, 14 फ़रवरी 2010

बातों वाली गली

बातों वाली गली
सामने वाले घर में सामान उतरता देख अचानक ही सोया पड़ा मोहल्ला जाग सा गया. चहल-पहल बढ़ गई. हर घर के दरवाज़े से एक अदद सिर थोड़ी-थोड़ी देर में बाहर निकलता, सामने वाले घर कि टोह लेता और फिर अन्दर हो जाता.

दोपहर तक सारा सामान उतर चुका था और सामने वाले घर के दरवाज़े भी बंद हो गए थे. कोई खास खबर न मिल पाने के कारण पड़ोस कि खोजी महिलाएं खासा दुखी और परेशान दिखाई दे रही थीं. शाम के इंतज़ार में इन महिलाओं ने अपनी दोपहर की नींद भी खराब कर ली.


अनु जिस मोहल्ले में रहती है, वो शहर का सबसे पुराना मोहल्ला है, जहाँ घर आज की नई कॉलोनियों की तरह व्यवस्थित नहीं हैं. उसके घर के बगल से जो गली अन्दर की ओर जाती है, वहीँ रहतीं हैं मिसेज गुप्ता, यानि गुप्ताइन, यानि पूरे मोहल्ले का चलता-फिरता रेडियो. हर घर की खबर उनके पास. कब, कहाँ, क्या हुआ क्यों हुआ, झगडा, प्रेम सब. सब जानती हैं वे.


शाम चार बजे से मिसेज गुप्ता के दरवाज़े पर पड़ोस की बतरस प्रेमी महिलाओं की पंचायत शुरू होती जो शाम साढे छह के बाद ही ख़त्म होती, सबके पतियों के ऑफिस से लौटने के बाद. हर महिला के हाथ में कोई न कोई काम होता, लेकिन ये काम एक रत्ती आगे न बढ़ता. बढ़तीं तो केवल बातें. एक बात में से दस बातें निकलतीं. बात का रूप ही बदल जाता.


अनु बहुत डरती है इस पंचायत से. असल में न तो उसका स्वभाव मेल खाता है इन महिलाओं से, और न ही उसके पास समय है. वैसे समय होता तब भी उस सभा में तो नहीं ही जाती अनु.


शुरू में जब अनु इस मोहल्ले में आई थी, तब सारी महिलाएं मिलने आईं थीं. उसे लगा कि कितना अच्छा मोहल्ला है. लेकिन जल्द ही उसकी गलतफहमी दूर हो गई, जब ये महिलाएं रोज़ आकर उसके लॉन में बैठक जमाने लगीं. नई थी, एकदम से कुछ कह भी नहीं सकती थी. इन महिलाओं का जैसे ही निंदागान शुरू होता, अनु को कोफ़्त होने लगती. क्यों नहीं इन्हें यहाँ आने से रोक देती?
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बातों वाली गली
पहले दिन ही मिसेज़ शर्मा ने बड़े ठसके से ऐलान किया था-
"पहले यहाँ सिंह साब रहते थे, और तब से हमारी बैठक का अड्डा यही है, सो अच्छा हुआ कि आप इतने अच्छे स्वभाव की निकलीं. हमारा अड्डा बना रहेगा."


कब तक बर्दाश्त करती अनु? कुछ दिनों बाद ही उसने इस बैठक को उपेक्षित करना शुरू कर दिया. कोई न कोई बहाना बना, बैठक से गायब हो जाती. धीरे-धीरे उसकी बेरुखी रंग लाने लगी. महीने भर बाद ही बैठक स्थल परिवर्तित हो गया., तो अनु ने चैन की सांस ली.
ये अलग बात है कि इस पूरे प्रकरण के बाद अनु को घमंडी और नकचढ़ी टाइप के विशेषणों से सम्मानित होना पड़ा.


इस शहर की मिडिल क्लास मानसिकता से अनु को बहुत कोफ़्त होती है. पडोसी न हुए, सीसीटीवी कैमरे हो गए. हर बात पर नज़र.............
सुनील के ऑफिस से लौटने के बाद शाम सात बजे अनु और सुनील घूमने जाते थे. इधर दोनों अपने गेट से निकले, और उधर तमाम आँखें सक्रिय हो गईं. लम्बे समय से महिला मंडली में चर्चा का विषय अनु ही थी.

"आदमी ऑफिस से आया नहीं की निकल पड़ी घूमने. बेचारा बड़ा सीधा लगता है...."
" हुंह.....सीधा.....खुद ही ले जाता है..."
" देखो तो कैसी सज-धज के निकलती है. अरे हम भी कभी इनकी उम्र के थे, लेकिन क्या मजाल सबके सामने इनसे बात भी कर लें! घूमना तो बहुत दूर की बात है."
फिर मंडली की ही कोई महिला ये बातें अनु को बता जाती.
कोई आया नहीं कि पड़ोसनें टोह लेने लगतीं. कौन है? कहाँ से आया है? क्यों आया है?
बहुत कोफ़्त होती है अनु को.................


लेकिन जब से सामने वाले घर में नए किरायेदार आये हैं , अनु बहुत राहत महसूस कर रही है. कारण, मोहल्ले की सारी महिलाओं का ध्यान उस पर से हट कर नए किरायेदार की टोह लेने में लग गया था.
इधर कई दिनों से नए किरायेदार के घर नियमित रूप से अलस्सुबह या फिर देर रात आने वाली काली गाडी पड़ोस में चर्चा का विषय बनी हुई थी. महिला-मंडल परेशान था. कई महिलाएं गाडी के समय पर मुंह अँधेरे जागने लगीं , तो कई देर रात तक . नतीजतन, उन्होंने इस खबर को पुख्ता किया की देर-सबेर आने वाली ये गाडी, सामने वाली किरायेदारिन को लेने आती है. अब तो क्या कहने!!!
मोहल्ले में एक बार फिर रौनक छा गई. महिलाओं के टोही दस्ते अपने काम पर जुट गए.


सामने वाला घर चूंकि अनु के एकदम सामने था, सो औपचारिकतावश अनु ने नए पडोसी को अपने घर खाने पर आमंत्रित किया था. तभी उसे मालूम हुआ था की शचि, यानि नई किरायेदारिन, रेडियो में उदघोषिका के पद पर कार्यरत हैं, रेडियो कॉलोनी में घर न मिलने की वजह से यहाँ घर लेना पड़ा. और ये भी कि उन्हें शिफ्ट ड्यूटी करनी होती है, सुबह की ड्यूटी होती है तो साढे पांच बजे लेने , और शाम की शिफ्ट होती है तो रात साढे ग्यारह बजे छोड़ने आकाशवाणी की गाडी आती है. उस दिन खूब बातें हुईं अनु और शचि कीं.
पड़ोस की महिलाओं ने बहुत कोशिश की शचि के घर में घुसने की, लेकिन उसकी व्यस्त और अनियमित दिनचर्या के चलते सफल न हो सकीं.


सुबह सब्जी वाले की आवाज़ सुन के अनु बाहर आई तो देखा गली की दो-तीन महिलाएं पहले से ही वहां मोल-भाव कर रहीं थीं. अनु को देख आपस में खुसुर-फुसुर करने लगीं.
बहुत कोफ़्त होती है अनु को ऐसी खुसुर-फुसुर से...........
सब्जी लेकर लौटने लगी तो मिसेज़ गुप्ता ने आवाज़ दी-
" अरे डिंकू की मम्मी, वो सामने वाली शर्माइन तो दिखाई ही नहीं देतीं, कहाँ रहती हैं, आपको तो मालूम होगा.." कहते-कहते उनके चेहरे पर कुटिल मुस्कान तैर गई.
" नहीं मुझे नहीं मालूम." कह के अनु ने पीछा छुड़ाना चाहा, जाने को हुई तो उसे आवाज़ आई-
" अरे दिखे कहाँ से बेचारी!!! अपने यार-दोस्तों से फुरसत मिले तब न....जब देखो तब गाडी हाजिर..न सुबह देखे न शाम.....पता नहीं कहाँ से आ गए ये लोग मोहल्ला गन्दा करने...."
क्या!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
उफ्फफ्फ्फ़ !!!!!!!!!!!!


क्या कह रही हैं ये!!!!
किसी के बारे में कोई भी राय क़ायम कर लेंगीं? और सच्चाई की मोहर भी लगा देंगीं? हे ईश्वर!!! इन मंदमति महिलाओं ने तो ये दुष्प्रचार पूरे मोहल्ले में कर दिया होगा! एक अच्छी भली महिला के चरित्र पर कैसे कीचड उछाला जाता है, देख रही थी अनु......
क्या करे अब अनु??
बड़ी मुश्किल से दिन गुज़रा था उसका . शाम होते ही चल पड़ी थी अनु महिला-मंडल के अड्डे पर.
सारी महिलाऐं पशोपेश में........आज ये लाट साहिबा यहाँ कैसे?? का भाव लिए, प्रश्नवाचक नज़रों से देखती हुईं...


अनु ने उन्हें बहुत देर तक असमंजस में नहीं रहने दिया. सधी हुई आवाज़ में कहना शुरू किया उसने-" मैं आज बहुत ज़रूरी बात कहने और एक आग्रह करने आई हूँ. हमारी नई पड़ोसन के बारे में आप सबने जो राय क़ायम की है, जिन अफवाहों को फैलाया है, प्लीज़ अब उन्हें ख़त्म करने का काम भी करें, क्योंकि आप में से कोई भी नहीं जानता कि कभी सुबह, कभी दोपहर तो कभी रात में जो आवाज़ रेडियो के माध्यम से आपके घरों में गूंजती है , और जिन शचि दीदी के फरमाइशी कार्यक्रम की मिसेज़ सिंह दीवानी हैं, ये वही शचि हैं.
रेडियो की ड्यूटी के कारण आप उन्हें देर-सबेर आते-जाते देखते हैं. और हाँ वो संदिग्ध गाडी आकाशवाणी की गाडी है जो उन्हें लेने आती है. सो प्लीज़......."
हांफने लगी थी अनु.


और सामने बैठा महिलाओं का हुजूम हतप्रभ था, नि:शब्द भी.

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

मेरी पसंद....

लीक पर वे चलें.....
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Sarveshwar Dayal Saxena

लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने,
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं

साक्षी हों राह रोके खड़े
पीले बाँस के झुरमुट
कि उनमें गा रही है जो हवा
उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं

शेष जो भी हैं-
वक्ष खोले डोलती अमराइयाँ
गर्व से आकाश थामे खड़े
ताड़ के ये पेड़;
हिलती क्षितिज की झालरें
झूमती हर डाल पर बैठी
फलों से मारती
खिलखिलाती शोख़ अल्हड़ हवा;
गायक-मण्डली-से थिरकते आते गगन में मेघ,
वाद्य-यन्त्रों-से पड़े टीले,
नदी बनने की प्रतीक्षा में, कहीं नीचे
शुष्क नाले में नाचता एक अँजुरी जल;
सभी, बन रहा है कहीं जो विश्वास
जो संकल्प हममें
बस उसी के ही सहारें हैं ।

लीक पर वें चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं ।

-सर्वेश्वरदयाल सक्सेना