रविवार, 8 अगस्त 2010

रमणीक भाई नहीं रहे.......

"रमणीक भाई ठक्कर नहीं रहे "....... अखबार के नगर पृष्ठ का मुख्य समाचार था ये आज .
' अरे!! रमणीक भाई नहीं रहे!! अब क्या होगा? ' समाचार पढ़ के आभा चिंतित हो उठी.
' क्या होगा माने ? आखिर जिंदा रहने की भी कोई लिमिट होती है. अट्ठासी साल के तो हो ही गए थे, और कितना जिंदा रहते? '
आम ख़बरों की तरह इसे भी अभय ने सहजता से स्वीकार कर लिया था. अस्वीकार की कोई गुंजाइश तो आभा के पास भी नहीं थी, लेकिन चिंता अब उसे ठक्कर परिवार की थी, जिसकी कमान पूरी तरह रमणीक भाई के हाथ में थी.
इस उम्र में भी गजब की फुर्ती और दिमाग था उनके पास. क्या मजाल कि दो दुकानों में से किसी एक पर भी कोई गड़बड़ हो जाए? साठ - साठ साल के लड़के हो गए, लेकिन अभी भी पिता की दी हुई "खर्ची" पर निर्भर !
कहीं भी आना-जाना रमणीक भाई ही तय करते थे. वो चाहे बहुओं को मायके जाना हो, किसी शादी-ब्याह में , या फिर किसी गमी में ही क्यों न जाना हो. रमणीक भाई तय करेंगे, कि बहुएं कब मायके जाएँ . आने-जाने के लिए और अन्य खर्चों के लिए पैसा भी देंगे .
घर में सबको "खर्ची" देंगे, मगर एक एक पैसे का हिसाब भी लेंगे.
कभी-कभी आभा को बड़ी ईर्ष्या होती थी, ठक्कर परिवार के बहु-बेटों से. सोचती थी, कि क्या किस्मत पाई है, इन लोगों ने. इतनी उम्र हो गई, लेकिन कोई ज़िम्मेदारी नहीं. सारा काम पिता सम्हालते हैं. न राशन की चिंता, न महीने भर के 'बिलों' की. एक वो है, जिसे वेतन बाद में, बिल पहले मिलने लगते हैं. आभा की शादी के एक साल बाद ही उसके ससुर ने अभय से साफ़ शब्दों में कहा था कि अब अपने परिवार की ज़िम्मेदारी वो खुद उठाए. अपने फैसले खुद ले. कब तक उन पर निर्भर रहेगा?
एक वो थे, एक रमणीक भाई हैं!!
शहर के प्रतिष्ठित कपडा व्यवसायी थे रमणीक भाई. ग्राहकों का विश्वास इस कदर, कि चालीस साल पुराने ग्राहक भी उनकी दुकान से ही कपडा लेना पसंद करते थे.
तीन बेटे हैं रमणीक भाई के, जिनमें से दो अब बुज़ुर्ग हो चुके हैं, तीसरा बुजुर्गियत की पायदान पर है. बड़ी समझ-बूझ के साथ रमणीक भाई ने तीनों बेटों के लिए शानदार घर बनवाये, एक ही अहाते में. न केवल घर बनवाये, बल्कि एकदम एक जैसा फर्नीचर भी बनवाया. हर्षा बेन जब
आभा को अपना घर और फर्नीचर दिखाने ले गईं थीं, तो लौट के कई दिनों तक आभा को ठीक से नींद नहीं आई थी. मन ही मन पता नहीं कितना झल्लाई थी अपने ससुर पर, साथ ही अभय पर, जो अपनी कमाई से घर खरीदने का सपना संजोये बैठा है.
पता नहीं कब खरीदेगी अपना घर.
इतना सब करने के बाद भी रमणीक भाई के बेटे खुश नहीं हैं हैं. कारण? उनकी पत्नियां नाखुश, तो बेटे कैसे खुश रह सकते हैं?
हर्षा बेन जब भी आभा के पास आतीं, तो ससुर की शिकायतों का पुलिंदा साथ लातीं. सुनते-सुनते आभा थक जाती, लेकिन हर्षा बेन की जुबान न थकती.
" अरे आभा दी, कामना मैके जा रही थी, तो बाबू ने बीस हज़ार दिए थे, मेरे को जाना है, तो दस दिखाने लगे. मैं तो बोल दी, मेरे को जानाई नईच है."
" दस-दस हज़ार खर्ची देते हैं, कैसे होगा इतने में? समझतेइच नईं हैं."
शिकायत करते हुए हर्षा बेन की गोरी नाक लाल हो जाती.
आभा को अचरज होता-
" लेकिन भाभी दस हज़ार में महीने भर के खर्चे ..... कैसे होता होगा? "
" अरे नईं आभा दी. पूरा राशन तो बाबू ही भरवाते हैं. बिजली का बिल, टेलीफोन का बिल, बाइयों की तनख्वाह, बच्चों की स्कूल फीस सब बाबू........................."
हर्षा बेन गिनातीं जा रहीं थीं, और आभा सोच में डूबती जा रही थी कि जब सब बाबू ही करते हैं , तो दस हज़ार जो केवल जेबखर्च है, कम कैसे पड़ जाता है? यहाँ दस हजार में तो लोग पूरा घर चलाते हैं........ कितनी निश्चिन्त ज़िन्दगी है, ठक्कर परिवार की.....सारे तनाव बाबू के....
तब भी कहाँ संतुष्ट है तीनों बेटे-बहुएं?
आभा अभी भी चिंता में है, अब क्या होगा ? जो लड़के उनके रहते अलग-अलग कारोबार करने को फडफडा रहे थे, अब आज़ाद हो गए...
एक महीना हो गया था . इस बीच व्यस्तता कुछ ऐसी बढ़ी , कि न आभा हर्षा बेन की खबर ले सकी, और न ही हर्षा बेन ने कोई खबर दी. कल अचानक ही हर्षा बेन बाज़ार में दिखीं तो आभा पहचान ही नहीं पाई.
" क्या हुआ हर्षा भाभी? तबियत ठीक नहीं है क्या? "
" तबियत तो ठीक है, लेकिन बाकी सब खराब है. बड़ी दूकान मंझले भैया बाबू के साथ सम्हालते थे, और छोटी को दो भाई सम्हाल रहे थे, तो अब मंझले भैया ने उस दूकान पर कब्ज़ा ही कर लिया. एक पैसा भी उस दूकान के कारोबार में से देने को तैयार नहीं. अब एक दूकान में हम दो परिवार कैसे चलेंगे?
कितना खर्च है घर का, अब समझ में आ रहा..." बाज़ार में ही अपना दुखड़ा रोने लगीं थीं वे.
हर्षा भाभी के चेहरे पर उभर आई झांइयों का राज, आभा की समझ में आ गया था.
" बाबू हमेशा व्यापार का काम खुद देखते रहे, सो इन भाइयों को पता ही नहीं, क्या कैसे करना है? "
हमेशा बाबू की योजना पर काम करते रहे, कभी खुद तो कोई योजना बनाई ही नहीं......"
नाक के साथ-साथ कान भी लाल हो उठे थे हर्षा बेन के.
सच है. कर्मचारी की तरह काम करने और मालिक की तरह व्यापार चलाने में बहुत अंतर है.
आभा समझ ही नहीं पा रही थी, कि बाबू ने अच्छा किया या बुरा? बेटों को व्यापारिक मामलों से दूर रखा, अपने पैरों पर खड़ा ही नहीं होने दिया, अब? साठ वर्ष की उम्र तक पिता पर निर्भर रहने वाले बेटे अब मुनीम और दूकान के दूसरे नौकरों पर निर्भर हैं! उनके अपने बच्चे भी व्यापारिक बुद्धि के नहीं हैं.
क्यों किया बाबू ने ऐसा? क्यों नहीं अपने बच्चों को स्वतन्त्र व्यक्तित्व बनने दिया? अपना दबदबा क़ायम रखने के एवज़ में, अपने ही बच्चों को अपंग कर दिया?
आभा को लगा, कितनी सुखी है वो, अपने छोटे से परिवार और सीमित आय में भी. पहली बार आभा ने कृतज्ञ नज़रों से देखा पापा की तस्वीर को....

चित्र गूगल सर्च से साभार.