जिन्हें अच्छे बुरे हर हाल में रब याद आता है
भुलाना चाहता हूं मैं मगर सब याद आता है
तेरी यादों ने बख़्शा है जो मन्सब याद आता है
सितम बे-महर रातों का मुझे जब याद आता है
इन्हीं तारीकियों में था जो नख़्शब याद आता है
हर इक इंसान उलझा है यहां अपने मसाइल में
परेशां और भी होंगे किसे कब याद आता है
दलीलों के लिए तो सैकड़ों पहलू भी हैं लेकिन
जो सोचूं तो मुझे अच्छा बुरा सब याद आता है
वहां की सादगी में दर्स है रिश्तों की अज़मत का
जिसे तुम गांव कहते हो वो मकतब याद आता है
लिया है काम ऐसे भी सियासत ने अक़ायद से
उठाने हों अगर फ़ितने तो मज़हब याद आता है
हैं बंदे तो सभी लेकिन वो मोमिन हो गए ’शाहिद’
जिन्हें अच्छे बुरे हर हाल में रब याद आता है
शाहिद मिर्ज़ा "शाहिद"