मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

भदूकड़ा (भाग-पांच)


सुमित्रा जी का रहन सहन सब शुरु में ही जान गये थे. बड़े भाईसाब ने ताकीद कर दिया था सबको कि इतने बड़े अफ़सर के घर की पढ़ी-लिखी लड़की है सो कोई भी उल्टी-सीधी बात न हो उससे. तहसीलदार साब ने बड़े नाज़ों से पाला है अपनी बेटियों को, इस बात का भी ख़याल रखा जाये. उसे रसोई के अलावा और कोई काम न दिया जाये. आदि-आदि. इतने बड़े काश्तकार थे तिवारी जी, लेकिन जैसा कि मैने बताया इनके परिवार के रहन-सहन का स्तर शुद्ध देहाती था, अपने ही खेतों पर काम करने वाले ढेरों मजदूरों के होते हुए भी घर की लिपाई-पुताई का काम बहुएं करतीं. दोपहर में कंडे पाथने का काम भी बहुएं ही करतीं, घर के पीछे बनी गौशाला में जा के. भगवान की दया से गौशाला में पच्चीस दुधारू गाय-भैंसें थीं. सो घर में घी-दूध पर्याप्त था, लेकिन दूध पीने के लिये केवल घर के मर्दों को या छोटे बच्चों को दिया जाता. बाकी जमा दिया जाता. रोज़ दही मथता, लेकिन क्या मज़ाल कोई मक्खन की एक डली उठा ले. सबका घी बना के बड़े-बड़े मटकों में सहेज दिया जाता. खेतिहर परिवारों में आय का ज़रिया केवल फ़सल होती है. उसी से शादी-ब्याह और अन्य कार्यक्रम सम्पन्न होते. ऐसे में घी इकट्ठा करना ज़रूरी था. वो समय बाज़ार से घी आने का नहीं था न. डालडा और रिफ़ाइंड तेल भी नहीं चलते थे. हर काम शुद्ध घी में ही होता था. रोज़ रात के खाने में घर के पुरुषों को एक-एक कटोरा दूध दिया जाता, खूब पका हुआ. छोटे बच्चों को पिलाने के लिये भी दूध मिलता लेकिन निकाल के देतीं छोटी काकी ही. बहुएं दूध-घी नहीं निकाल सकती थीं. इतने सबके बाद भी सुमित्रा जी को कोई शिक़ायत नहीं थी अपनी ससुराल से. उनकी मां ने उन्हें “स्त्री सुबोधिनी” दी थी पढ़ने को, जिसमें लिखा था कि लड़की का स्वर्ग ससुराल ही है. मायके से डोली और ससुराल से अर्थी निकलती है. पति के चरणों की दासी बनने वाली औरतें सर्वश्रेष्ठ होती हैं. आदि-आदि.... और भोली भाली सुमित्रा जी ने सारी बातें जैसे आत्मसात कर ली थीं. सब मज़े से चल रहा था अगर वो घटना न होती तो..... उस घटना ने तो जैसे सुमित्रा जी का जीवन नर्क बना दिया... ! कितनी बड़ी ग़लती हुई उनसे.... लेकिन अब क्या? अब तो हो गयी.
“ मम्मी..... ये लो तुम्हारा नया मोबाइल. सबके पास स्मार्ट फोन था घर में तुम्हें छोड़ के. लो पकड़ो. अब इसमें व्हाट्स एप के ज़रिये तुम सारे रिश्तेदारों से जुड़ी रहोगी. उनके फोटो-शोटो भी देख पाओगी.”
ऑफ़िस से घर आते ही अज्जू ने सुमित्रा जी को खुशखबर दी.  
“लेकिन बेटा ये टच स्क्रीन वाला फोन हम कैसे चला पायेंगे?”
“क्यों नहीं चला पाओगी? अरे जब पापा चला लेते हैं तो तुम्हें क्या दिक़्क़त है? हाथ में तो लो. पास में रहेगा तभी न चलाना सीखोगी.”
सुमित्रा जी ने मोबाइल हाथ में ले के देखा. बढ़िया सेट था. सीख लेंगीं अज्जू से लिखना, फोटो भेजना , दूसरे के फोटो देखना सब.
“मम्मी तुम्हारी फेसबुक पर भी आईडी बना दूंगा. वहां सुरेश, रमेश भैया लोगों की आईडी है, तो आप अपने गांव के सारे रिश्तेदारों की तस्वीरें तो देख ही लेंगीं कम से कम. भैया लोग बड़ी मम्मी की तस्वीरें भी पोस्ट करते रहते हैं. पूरा खानदान है फेसबुक पर हमारे ददिहाल और ननिहाल का. होना ही चाहिये था.”
“ तो तुमने अब तक क्यों नहीं दिखाईं किसी की तस्वीरें?
“येल्लो.... एक बार दिखा देता तो रोज़-रोज़ का टंटा न हो जाता? फिर तुम्हें रोज़ दिखाओ कि किसने क्या पोस्ट किया.” ठठा के हंस दिया अज्जू.  
(क्रमश:)

रविवार, 23 दिसंबर 2018

भदूकड़ा (भाग चार)


“सुनिये, वो कुंती आयेगी एकाध दिन में...!” कहते हुए सकुचा गयीं सुमित्रा जी.
“कौन, कुंती भाभी? हां तो आने दो न. उन्हें कौन रोक पाया है आने से? अरे हां, तुम अपनी चोटी, साड़ियां, और भी तमाम चीज़ों का ज़रा खयाल रखना ” होंठों की कोरों में मुस्कुराते हुए तिवारी जी बोले. “सब चीज़ों का खयाल रखने पर भी तो कुछ न कुछ हो ही जाता है....!” अपने आप में बुदबुदाईं सुमित्रा जी.
वैसे मुझे मालूम है कि आप कहां अटके हैं. “कुंती भाभी” इस सम्बोधन में न? सोच रहे होंगे कि सुमित्रा की बहन को तिवारी जी भाभी क्यों कह रहे? लेकिन भाई, हम कुछ न बतायेंगे अभी. देखिये न सुमित्रा जी खुद ही अतीत की गलियों में पहुंच गयीं हैं.
तिवारी जी के ’चोटी’ का खयाल रखने को कहते ही सुमित्रा जी कहां से कहां पहुंच गयीं थीं. कुंती के आने की ख़बर पर तिवारी जी चोटी की याद ज़रूर दिला देते हैं. तब सुमित्रा जी की शादी हुए एक साल भी नहीं हुआ था. शादी तो उनकी चौदह बरस में हो गयी थी, लेकिन पांडे जी ने विदाई से साफ़ इंकार कर दिया था. बोले कि जब तक लड़की सोलह साल की नहीं हो जाती, तब तक हम गौना नहीं करेंगे. इस प्रकार सुमित्रा जी, बचपन की कच्ची उमर में ससुराल जाने से बच गयीं. तो सुमित्रा जी की शादी हुए अभी एक बरस ही बीता होगा. पन्द्रहवें में लगीं सुमित्रा जी ग़ज़ब लावण्या दिखाई देने लगी थीं. देह अब भरने लगी थी. सुडौल काया, कमनीय होने लगी थी. खूब गोरी बाहें अब सुडौल हो गयीं थीं. घनी पलकें और घनी हो गयीं थीं. हंसतीं तो पूरा चेहरा पहले गुलाबी फिर लाल हो जाता. सफ़ेद दांत ऐसे चमकने लगते जैसे टूथपेस्ट कम्पनी का विज्ञापन हो. कमर से एक हाथ नीची चोटी चलते समय ऐसे लहराती जैसे नागिन हो. लेकिन सुमित्रा जी जैसे अपने इस अतुलनीय सौंदर्य से एकदम बेखबर थीं. अम्मा तेल डाल के कस के दो चोटियां बना देतीं, वे बनवा लेतीं. वहीं कुंती तेल की शीशी उड़ेल के भाग जाती...........  
सर्दियों की दोपहर थी वो.  सुमित्रा जी का गौना नहीं हुआ था तब. आंगन में अपनी छोटी खटिया आधी धूप, आधी छाया में कर के बरामदे की ओर बिछाये थीं और मगन हो, अम्मा द्वारा दी गयी -’स्त्री-सुबोधिनी’ पढ़ रही थीं. बड़के दादा बरामदे में बैठे अपना कुछ काम कर रहे थे. दादा ऐसे बैठे थे कि उन्हें तो सुमित्रा दिख रही थी, लेकिन सुमित्रा को, बीच में आये मोटे खम्भे के कारण दादा नहीं दिख सकते थे. दादा को किताब में डूबा देख के, वहीं बैठी कुंती धीरे से तख़्त पर से उतरी और घुमावदार बरामदे की दूसरी ओर से सुमित्रा जी की खटिया के पास पहुंच गयी. उसने देखा, किताब पढ़ते-पढ़ते सुमित्रा की नींद लग गयी है. सर्दियों की धूप वैसे भी शरीर में आलस भर देती है. कुंती, सुमित्रा के सिरहाने पहुंची. तभी दादा की निगाह भी उस ओर गयी, जहां सुमित्रा लेटी थी. अवाक दादा चिल्लाते, उसके पहले ही कुंती ने वहीं कोने में रखी पौधे छांटने वाली कैंची से सुमित्रा की आधी चोटी काट डाली थी. वो पहला दिन था, जब बड़के दादा ने कुंती को खींच-खींच के दो थप्पड़ जड़े थे, और अम्मा कुछ नहीं बोलीं थीं. महीनों रोती रही थीं सुमित्रा जी, अकेले में. लेकिन तब भी उन्होंने कुंती से कुछ नहीं कहा था.
सुमित्रा जी का जब गौना हुआ, तब उसके बाद ससुराल से तीन महीने बाद ही आ पाईं. तिवारी खानदान इतना बड़ा था कि इतना समय उन्हें पूरे परिवार के न्यौते पर यहां-वहां जाते ही बीत गया. फिर नई बहू का शौक़! इस बीच सब सुमित्रा जी के भोलेपन को जान गये थे. उनके सच्चे मन को भी. सुमित्रा जी के घर का माहौल पढ़े-लिखे लोगों का था, जबकि तिवारी के परिवार में अधिकांश महिलायें बहुत कम या बिल्कुल भी नहीं पढ़ी थीं. सो सुमित्रा जी का पढ़ा-लिखा होना यहां के लिये अजूबा था. इज़्ज़त की बात तो थी ही. सगी-चचेरी सब तरह की सासें अपनी इस नई दुल्हिन से रामायण सुनने के मंसूबे बांधने लगीं. सुमित्रा जी की ससुराल का रहन-सहन भी उतना परिष्कृत नहीं था जितना सुमित्रा जी के घर का था. ये वो ज़माना था, जब दोमंज़िला मकान भी कच्चा ही हुआ करता था. घर तो खूब बड़ा था तिवारी जी का. सभी सगे-चचेरे एक साथ रहते थे. हां उन सबका हिस्सा-बांट हो गया था सो उसी घर के अलग-अलग हिस्सों में अपनी-अपनी गृहस्थी बसा ली थी सबने. तीन बड़े-बड़े आंगनों वाला घर था ये जिस का विशालकाय मुख्य द्वार पीतल की नक़्क़ाशी वाला था. खूब खेती थी. हर तरह का अनाज पैदा होता था, लेकिन रहने का सलीका नहीं था. हां, सुमित्रा जी के बड़े जेठ बहुत पढ़े-लिखे थे. स्वभाव से भी एकदम हीरा आदमी. घर में उनकी ही सबसे अधिक चलती थी. परिवार के बड़े जो ठहरे. सगे-चचेरे सब मिला के चौदह भाई और तीन बहनें थे तिवारी जी.
(क्रमश:)

शनिवार, 22 दिसंबर 2018

भदूकड़ा (भाग-तीन)


सुमित्रा जी के बड़े भाई, यानी बड़के दादा कुंती की हरक़तों को समझते थे, लेकिन स्वभाव से ये भी सुमित्रा जैसे ही थे, सो भरसक वे कुंती को समझाने की कोशिश ही करते, ये ज़ाहिर किये बिना कि वे उसकी हरक़त ताड़ गये हैं. बड़ी जिज्जी अम्मा के साथ रसोई में लगी रहती थीं, सो उन्हें फुरसत ही नहीं थी इस पूरे झमेले को समझने या सुलझाने की. रह गये दो छोटे भाई-बहन, उन्हें उतना समझ में आता था, समझने की कोशिश ही करते थे. आज का समय होता, तो बच्चे ही सबसे पहले समझते बात को. सुमित्रा जी की अम्मा थीं तो तेज़ तर्राट लेकिन बच्चों के ऐसे मामलों में उलझने का उनके पास टाइम न था, जिन्हें शैतानियां कहते हैं. जब शिक़ायतें हद से ज़्यादा बढ़ जातीं, तो छहों बच्चों को लाइन से खड़ा करके दो-दो चमाट लगातीं, और सबके कान पकड़, पढ़ने बिठा देतीं. बस हो गयी उनकी ज़िम्मेदारी पूरी. खूबसूरत तो अम्मा भी बहुत थीं. खूब गोरी, दुबली-पतली अम्मा, लम्बी भी खूब थीं. सुमित्रा उन्हीं को तो पड़ी थी. पांच बच्चे ग़ज़ब के सुन्दर और अकेली कुंती.............. बोलने वाले भी ऐसे कि कुंती के मुंह पे ही कह जाते- ’मां-बाप इतने सुन्दर हैं, फिर जे कुंती किस पे पड़ गयी ?’ उनके बोलने में इतनी चिन्ता होती, जैसे कुंती को ब्याहने की ज़िम्मेदारी तो उन्हीं के सिर पर है. अब आप ये न कहने लगना कि लड़कियां केवल ब्याहने के लिये होती हैं क्या? अरे भाई ब्याहने का उदाहरण इसलिये दिया, कि वो समय लड़कियों को बहुत जल्दी ब्याह देने का था. ग्यारह-बारह की हुई नहीं कि शादी की चिन्ता शुरु. बाऊजी का गुस्सा सब जानते थे सो उन तक कोई शिक़ायत पहुंचती ही नहीं थी. फिर भी कुंती की चंचलता से वे वाकिफ़ तो थे ही.
मोबाइल अब तक हाथ में ही ले के बैठी सुमित्रा जी की तंद्रा, सब्ज़ी वाले की आवाज़ से भंग हुई. तिवारी जी भी हाथ में अखबार लिये अन्दर तक आ गये थे. 
“क्या बात है सुमित्रा जी? सब्ज़ी वाला कितनी देर से आवाज़ लगा रहा और आप हैं कि यहां होते हुए भी सुन नहीं पा रहीं.”  तिवारी जी ने अपनी बात कुछ इस भाव से पूरी की जैसे उन्हें ड्राइंग रूम से उठ के अन्दर तक आने में मीलों का सफ़र तय करना पड़ा हो. हां एक बात ज़रूर है, तिवारी जी ने सुमित्रा जी को हमेशा सुमित्रा ’जी’ और आप कह के ही सम्बोधित किया है. दोनों के बीच मामूली बहसें होती रही हैं, लेकिन इन बहसों ने लड़ाई का रूप कभी नहीं लिया. तिवारी जी भी जानते हैं, सुमित्रा जी ने क्या-क्या भोगा है. कितनी मुश्क़िलों से बाहर निकली हैं और कितने दिनों बाद सुकून की ज़िन्दगी पाई है.
  “किसका फोन था मम्मी?’ अज्जू, सुमित्रा जी का छोटा बेटा भी आ गया था कमीज़ की बांहें फ़ोल्ड करते हुए.उसका भी ऑफ़िस जाने का टाइम हो गया था.


“अरे किसी का नहीं भाई.”
’किसी का नहीं? तुम बात तो कर रही थीं फोन पर. चलो कोई न.’ मुस्कुराते हुए अज्जू नाश्ते के लिये डायनिंग टेबल की कुर्सी खींच बैठ गया था.
’कमला..... नाश्ता दे दो अज्जू को.’ ये जानते हुए कि कमला ने अज्जू को बैठते देख लिया है, तब भी सुमित्रा जी ने आदेश दिया.
’वो कुंती मौसी का फोन था बेटा.’
’हूं........’ मन ही मन मुस्कुराया अज्जू. जानता था मम्मी बतायेंगी ही. वैसे वो भी जान गया था कि फोन किसका रहा होगा.
’क्या कह रही थीं? आना चाहती होंगीं, या बीमार होंगीं, या बहुत परेशान....’ सुमित्रा जी के बताने के पहले ही अज्जू ने फोन की रटी रटाई वजहें गिनानी शुरु कर दीं.
 ’कुंती मौसी और परेशान!! हम लोग जानते तो हैं मम्मी उनकी आदत. उनकी वजह से दूसरे ही परेशानी उठाते हैं. वे ही सबको परेशान करती हैं, वो खुद कब से परेशान होने लगीं? और हां, अब तुम उन्हें बुला न लेना, वरना हम सब भी परेशान हो जायेंगे.’ अज्जू की आवाज़ में विनय की जगह विवशता ही ज़्यादा थी. जानता था, मम्मी करेंगीं वही, जो चाह लेंगीं. न पापा की चली है कभी, न बच्चों की. रूपा दीदी मम्मी को समझा-समझा के हार गयीं. शादी हो गयी और अपनी ससुराल चली गयीं, लेकिन मम्मी को कुंती मौसी के मामले में न समझा सकीं. दीपा तो अज्जू से भी छोटी है, सो उसकी सुनता कौन है? कोशिशें तो दीपा ने भी कीं, लेकिन उसे मम्मी ने हमेशा ये कहते हुए कि- ’ तुम छोटी हो, छोटों की तरह बात करो. हमसे बड़ी न हो जाओ’ उसकी बोलती बंद रखी. कुंती मौसी के लिये चार बातें वो केवल अज्जू या रूपा के कान में ही कह पाती है. 
परिस्थितियां समझ रहे हैं न आप? सुमित्रा जी का कुंती के प्रति प्रेम भी समझ में आ गया होगा. लेकिन ऐसा क्यों है? कुंती की इतनी नफ़रत का जवाब सुमित्रा जी हमेशा प्रेम से देती हैं!! कहीं उन्होंने “घृणा पाप से करो, पापी से नहीं” वाला आदर्श वाक्य अपने जीवन में तो नहीं उतार लिया? या कोई और कारण? कहीं सुमित्रा जी की कोई कमज़ोरी....... अरे न न.... आप लोग भी न. दिमाग़ बहुत दौड़ाते हैं. सही दिशा में दिमाग़ दौड़े, तो फिर भी ठीक, आप लोग तो हर बात में ग़लत पहले खोज लेते हैं. सुमित्रा जी की कोई कमज़ोरी..... तौबा तौबा!! असल में सुमित्रा जी जैसा इंसान तो खोजे खोजे न मिलेगा आपको. फिर? अरे यार..... क्या फिर-फिर लगा रखी है? जो होगा सो पता चलेगा न? बहुत हड़बड़िया हैं आप. हुंह!
(क्रमश:)
सभी तस्वीरें- गूगल सर्च से साभार


शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

भदूकड़ा- भाग दो


उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कस्बे की कहानी है ये. कस्बा छोटा, लेकिन रुतबे वाला था. और उससे भी अधिक रुतबे वाले थे वहां के तहसीलदार साब - केदारनाथ पांडे. लम्बी-चौड़ी कद काठी के पांडे जी देखने में तहसीलदार कम, थानेदार ज़्यादा लगते थे. बेहद ईमानदार और शास्त्रों के ज्ञाता पांडे जी बेटों से ज़्यादा अपनी बेटियों को प्यार करते थे. उनकी शिक्षा-दीक्षा, कपड़े, मनोरंजन हर चीज़ का ख़याल था उन्हें. अंग्रेज़ों के ज़माने के तहसीलदार पांडे जी, वैसे तो काफ़ी ज़मीन-जायदाद के मालिक थे, उनके अपने पुश्तैनी गांव में उनकी अस्सी एकड़ उपजाऊ ज़मीन थी, हवेलीनुमा मकान था, लेकिन सरकारी नौकर, वो भी तहसीलदार होने के कारण उनका अलग ही रसूख़ था. सुमित्रा, कुंती और सत्यभामा उनकी तीन बेटियां थीं. यही वे सुमित्रा जी हैं, जिनका ज़िक्र हमने ऊपर किया. बड़ी ख़ूबसूरत थीं सुमित्रा जी. अभी भी हैं, लेकिन अपनी युवावस्था में तो कहना ही क्या. लगता था जैसे भगवान ने बड़ी फ़ुरसत से बनाया है उन्हें. तीखे नाक-नक़्श, दूधिया सफ़ेद रंग, खूब घने और लम्बे बाल. अच्छी लम्बाई और उतने ही अच्छे स्वास्थ्य के कारण पिता हमेशा उन्हें ’भदूकड़ा’ (पहलवान) कह के पुकारते. मंझली बेटी कुंती को गढ़ते समय भगवान थोड़ी हड़बड़ी में थे शायद. अति साधारण चेहरे वाली कुंती, केवल मर्दाना चेहरा लिये थी, बल्कि मर्दों जैसे अक्खड़ गुण भी थे उनके. जैसे भगवान ने ग़लती से लड़की बना दिया उन्हें. लड़कियों वाली कोमलता, उनके स्वभाव में कहीं भी नहीं थी. बड़ी-बड़ी शैतानियां करना, और फिर उसमें सुमित्रा जी का नाम लगा देना कुंती का प्रिय शगल था. वो तो माता-पिता, और बड़े भाई लोग सुमित्रा का स्वभाव जानते थे, सो कुंती का झूठ पकड़ा जाता वरना सुमित्रा तो उठते-बैठते कटघरे में ही खड़ी रहतीं.
 पांडे जी ने समय से बेटियों का दाख़िला स्कूल में करवा दिया था. स्कूल जाने वाली लड़कियां तब कम ही होती थीं, उस पर कस्बा-प्रमुख की बेटी, सो स्कूल से एक बाई सुमित्रा और कुंती को लेने आती. अगल-बगल के घरों की और लड़कियों को भी लाभ मिलता बाई के साथ का, सुमित्रा-कुंती के कारण. स्कूल में भी बगल वाले बच्चे की टाटफ़ट्टी ग़ायब कर देना, उसकी साफ़-सूखतीपट्टी’ (स्लेट) पर खड़िया से ढेर सारी आड़ी-तिरछी लकीरें खींच देना, जैसी तमाम बदमाशियां करती कुंती थीं, और नाम सुमित्रा का लगा देतीं. दोनों बहनों में बहुत अन्तर होने के कारण, दोनों एक ही कक्षा में पढ़ती थीं. सुमित्रा सुनतीं तो अवाक रह जातीं. टीचर से  अपनी सफ़ाई में कुछ कहने को मुंह खोलने ही वाली होतीं कि बगल में खड़ी कुंती उनका हाथ दबा देती. उनकी ओर अनुनय भरी नज़र से देखती और सुमित्रा चुपचाप कुंती के किये अपराध अपने सिर पर ले लेतीं.   टीचर बेरहमी से उनकी दोनों हथेलियों पर बेंत जड़ती.  बेंत की चोट सुमित्रा की गुलाबी-कोमल हथेलियों को लाल कर देती. सुमित्रा की हथेली पर पड़ने वाला हर बेंत का लाल निशान, कुंती की आंखों में अजब  चमक पैदा करता. छुट्टी के बाद जब दोनों लड़कियां घर पहुंचतीं, तो कुंती घर के दरवाज़े पर पहुंचते ही सुबकना शुरु कर देती, जो भीतर पहुंचते-पहुंचते रुदन में तब्दील हो जाता. आंखों से आंसू भी धारोंधार बह रहे होते. रो-रो के मां को बताया जाता कि ’बहन जी’ ने आज सुमित्रा की ज़रा सी ग़लती (!) पर कितनी बेरहमी से पिटाई की और इस पिटाई से कुंती को कितनी तकलीफ़ हुई. कुंती हिचक-हिचक के पूरी बात बता रही होती और सुमित्रा अवाक हो उसका मुंह देखती रह जाती! कुंती की ये हरकत सुमित्रा को दोतरफा दंड दिलाती. एक तो स्कूल में, दूसरी डांट उसे मां से पड़ती. और सुमित्रा बस इतना ही कह पाती कि उसने कुछ नहीं किया था. लेकिन वो ग़लती से भी कुंती का नाम लेती. कभी नहीं बताती कि शैतानी तो कुंती ने की थी.
                                         सुमित्रा द्वारा कुंती को हर ग़लती पर यों बचा लिया जाना, कुंती को अगली शैतानी के लिये उत्साहित करता. शैतानी भी वो, जिसमें सुमित्रा को फंसाया जा सके. पांडे जी जब भी सुमित्रा के किसी काम की तारीफ़ करते तो कुंती को आग लग जाती. जल-भुन के कोयला हुई कुंती , सुमित्रा की हर तारीफ़ के बाद, की गयी तारीफ़ को ही मटियामेट करने की तैयारी करती. और सुमित्रा …… उन्होंने तो सपने में भी ये कभी नहीं सोचा कि कुंती उन्हें नीचा दिखाने के लिये सोची-समझी प्लानिंग पर काम करती है. हर घटना को वे बस दुर्घटना मान लेती थीं. कभी उन्होंने कुंती के लिये ग़लत सोचा ही नहीं. कोई कहता भी कि कुंती तुम्हें फंसा रही, तो वे पूरे भरोसे के साथ अगले की ख़बर को निरस्त  कर देतीं. कुंती पर उन्हें बहुत लाड़ आता था. अतिरिक्त स्नेह की वजह शायद कुंती का अतिसाधारण रंग-रूप भी रहा हो. जब-जब कोई सुमित्रा जी के रंग-रूप की तारीफ़ करता, तब तब वे भीतर ही भीतर सिमट जातीं. अपराधबोध से भर जातीं जैसे सुन्दर होने में उनका कोई हाथ रहा हो. जैसे उन्होंने जानबूझ के खुद को सुन्दर बना लिया हो. ऐसी हर तारीफ़ के बाद उनका स्नेह कुंती के प्रति और बढ़ जाता जबकि कुंती इन तारीफ़ों को सुन के मन ही मन सुमित्रा से और दूर हो जाती.  उसे  नीचा दिखाने की योजना बनाने  लगती.
क्रमश: