मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

नई उम्मीदों की आहट है- “खिड़कियों से….

जब भी लघु कथाएं पढ़ती हूं, तो चकित होती हूं कि कैसे कोई इतनी बड़ी-बड़ी बातें, जिन्हें लिखने में कहानीकार पृष्ठ दर पृष्ठ भरता चला जाता है, चंद शब्दों में व्यक्त कर पाता है? वो भी इस विशेषज्ञता के साथ कि भाव कहीं भी अपना अर्थ नहीं खोते. दीपक मशाल उन्हीं चंद लघुकथाकारों में से हैं, जो अपनी बात बहुत थोड़े से शब्दों में इस खूबसूरती से बयां कर देते हैं कि पाठक चमत्कृत हुए बिना नहीं रह पाता.  
                                                   दीपक मशाल… ये नाम लेखन की दुनिया के लिये नया नहीं है. साहित्य और उससे जुड़े पाठक इस नाम से बखूबी परिचित हैं. वे अखबारों में, पत्रिकाओं में या फिर अन्तर्जाल पर उनकी रचनाएं पढ़ते रहे हैं. फर्क़ सिर्फ़ इतना है कि अपनी इस पुस्तक “ खिड़्कियों से…” में उन्होंने अपनी बिखरी पड़ी लघुकथाओं को एक जगह कर दिया. उन्हीं के शब्दों में “ठौर दे दिया” . “खिड़कियों से” मेरे पास आ तो गयी थी समय से या शायद कुछ विलम्ब से लेकिन इस पर कुछ लिखने में मुझे ही कुछ अधिक विलम्ब हो गया, जो नहीं होना चाहिये था. विभागीय व्यस्तताओं के चलते ये किताब अब तक पढ़ी ही नहीं जा पा रही थी जबकि समय मिलते ही पढ़ने की उम्मीद में ये मेरे साथ घर से ऑफ़िस और ऑफ़िस से घर का चक्कर लगा रही है एक महीने से. बल्कि मेरे स्टाफ़ ने ही इसे काफ़ी कुछ पढ़ डाला मुझसे पहले. अब जब किताब उठाई तो एक बैठक में पढ़ डाली और लिखने भी बैठ गयी. असल में कोई भी किताब अपने बारे में खुद ही लिखवाती है, ऐसा मेरा मानना है. कई किताबें ऐसी होती हैं, जिन्हें पढ़ के उन पर लिखने का खयाल तक मन में नहीं आता. और कुछ किताबें ऐसी होती हैं, जिन्हें पढ़ने के बाद  आप लिखे बिना रह ही नहीं सकते. वे खुद पर लिखे जाने के लिये उकसाती हैं. “खिड़कियों से…” एक ऐसा ही लघुकथा संग्रह है.
“खिड़कियों से…” लघुकथा संग्रह में कुल 91 लघुकथाएं हैं. सभी कथाएं हमारे आस-पास के परिवेश को उजागर करती हैं. हर कहानी से पाठक खुद को जुड़ा हुआ महसूस करता है. जहां एक ओर कहानी  ’बिरादरी’ समाज में व्याप्त थोथे दम्भ को उजागर करती है तो ’यक़ीन’ व्यक्तियों की अलग-अलग मानसिकता को बखूबी उकेरती है. कहानी मरहम “ जा के पांव न फटी विबाई, वो का जाने पीर पराई” कहावत को चरितार्थ करती है. ’सूदसमेत’ इंसानी फ़ितरत की बहुत सूक्ष्म पड़ताल करती है. कई बार लोग इस कहानी के ’उस’ की तरह ही सोचते हैं यदि ऑफ़िस में खन्ना जैसा एटिट्यूड वाला दूसरा अधिकारी आ जाये तो. लेकिन ये भी सच है, कि सभी मातहत/सहयोगी कर्मी, प्यार ’उस’ के जैसे मिलनसार व्यक्ति को ही करते हैं. ’ठेस’ बीमार पुरुष मानसिकता का खुलासा करती है. कहानी ’अपने जैसा’ लोकतंत्र के मौजूदा हाल पर करारा व्यंग्य है. ’बीमा’ पाठक को भीतर तक झकझोरने में सक्षम लघुकथा है. ये एक ऐसी
मनोवैज्ञानिक कथा है जिसे बहुत से बेटों ने झेला होगा. पश्चिमी देशों में रिश्ते हमेशा से अंकल/आंटी में सिमटे रहने वाले रिश्ते अब सीधे-सीधे नाम लेने पर उतर आये हैं. छोटा, बड़ा हर इंसान एक दूसरे का नाम लेता है. पता ही नहीं चलता, कौन किसका क्या है?  भारतीय समाज , जो अपने सम्बोधनों की आत्मीयता के लिये जाना जाता रहा है, अब अंकल-आंटी पर पहुंच चुका है. इसी विषय पर लघुकथा ’ प्रगति’ तगड़ी चोट करती है. ’लहू से गाढ़े’ कथा अलग ही तरह से चमत्कृत करती है.
पसीजे शब्द, माचिस, जानवर, फ़ेलोशिप, बेचैनी, अच्छा सौदा, मुआवज़ा, बौने मन, सभी कथाएं अपने कथ्य को बखूबी पाठक के सम्मुख रखती हैं. सभी कथाओं पर ज़िक्र करना सम्भव नहीं है, वरना हर कथा अपने अलग अन्दाज़ में, एकदम अलग भाव से लिखी गयी है. किसी भी कथा में भाव का, कथानक का दोहराव नहीं हुआ है, जबकि लघुकथा में ऐसा होना कोई बड़ी बात नहीं है. कथा ’सोने की नसैनी’ पुरातन काल से लेकर आज तक , हमारे समाज में चली आ रही बेटी के जन्म की विडम्बना को दर्शाती है. बच्चों पर विद्यालयों का भाषाई आतंक स्पष्ट महसूस किया जा सकता है लघुकथा ’आतंक’ में. ’शिकार’ रोंगटे खड़े कर देने वाली बेहद क्रूर सच्चाई है आज की. निश्चित रूप से ऐसी विभीषिका राजतंत्र हो, या लोकतंत्र  सबमें एक जैसी हैं. बंटवारा, निमंत्रण, कुएं में भांग, अंगुलियां, खेल-ए-लोकतंत्र, ताकतवर,  सभी अपने-अपने मंतव्य को स्पष्ट करती हैं. कहानी ’डर’ का अंत पढ़ कर  पाठक अचानक ही चौंक जाता है. पूरी कहानी में कहीं भी ये आभास ही नहीं होता कि बुज़ुर्ग दम्पत्ति किसी दूसरे की प्रॉपर्टी पर कब्जा जमाये हैं. कमाल का सटायर. सभी लघुकथाएं  एक से बढ़कर एक हैं. इतनी सारी कथाओं पर अलग-अलग चर्चा सम्भव नहीं है. कुछ काम मैं पाठकों पर छोड़ देना चाहूंगी.  
आज जब नई कहानी की विधा को आधुनिक लेखन का पैरोकार मान लिया गया है, नित नये लेखक उलझी हुई भाषा में लिखने को गम्भीर लेखन की निशानी समझने लगे हैं, ऐसे में दीपक मशाल जैसे युवा लघुकथाकार अपनी सरल भाषा और सहज शैली से पाठकों को अवाक करते हैं. पाठकों तक दीपक की बात बहुत आसानी से पहुंचती है. कई कथाएं चंद शब्दों में ही बड़ी-बड़ी बातें व्यक्त करने में सक्षम हैं. पुस्तक के बारे में लिखते हुए प्रसिद्ध कथाकार उदय प्रकाश लिखते हैं- “ इक्कीसवीं सदी के पिछले दो दशकों में लघुकथा का जो विकास हुआ है, दीपक मशाल का इस परिदृश्य में आगमन एक नया कथा-मोड़ है.” अपने प्राक्कथन में रामेश्वर काम्बोज ’हिमांशु’ लिखते हैं- ’दीपक मशाल की ये लघुकथाएं इतना तो आश्वस्त करती हैं कि आने वाले समय में लेखक और अधिक नए विषयों का संधान करेगा और शिल्प के क्षेत्र में भी नए द्वार का उद्धाटन करेगा.’ कथाकारद्वय द्वारा ऐसा कहना ही दीपक मशाल की प्रशस्ति और उनकी कथाओं के  लघुकथा-संसार में स्वागत का उद्घोष सा है.  दीपक मशाल को लगातार और सार्थक लेखन के लिये शुभकामनाएं.
“रुझान प्रकाशन” से प्रकाशित “ खिड़कियों से….” लघुकथा संग्रह  का कलेवर बहुत शानदार है. आवरण पृष्ठ बढ़िया है. प्रिंटिंग बहुत अच्छी है. कम समय में ही “रुझान” ने स्थापित प्रकाशकों के बीच  अपनी जो जगह बनाई है वो काबिल-ए-तारीफ़ है. ’रुझान’ को भी अनेकानेक शुभकामनाएं. यह पुस्तक सीधे प्रकाशक से मंगवाने के साथ-साथ फ्लिप कार्ट और अमेज़न पर भी क्रय हेतु उपलब्ध है.

पुस्तक : खिड़कियों से…….
लघु कथा संग्रह
लेखक : दीपक मशाल
प्रकाशक : रुझान प्रकाशन
एस- 2, मैपल अपार्टमेंट, 165
ढाका नगर, सिरसी रोड
जयपुर, राजस्थान- 302012
Mob- 9314073017
मूल्य : 150 रुपये मात्र.
ISBN : 9788193322727