शनिवार, 28 नवंबर 2009

दस्तक के बाद

साड़ियाँ
सारा कमरा बनारसी साड़ियों, सूट के कपड़ों, बच्चों के कपड़ों, शाल, स्वेटर और जेवरों से अटा पड़ा था.
बहुत प्यारी-प्यारी साड़ियाँ थी नीले रंग की कांजीवरम साड़ी तो बहुत ही प्यारी थी. मनीष, निशि , रीना और सीमा इन चारों के ऊपर कपड़े खरीदने की ज़िम्मेदारी थी, जिसे इन लोगों ने बखूबी निभाया था.
' मम्मी- चलो सबको कपड़े दिखा दूं , और बाँट दूं '
यह जानने के लिए तो सभी उत्सुक थे, की कौन से कपड़े किसके हिस्से में आने वाले हैं. सो एक आवाज़ में ही सारे लोग कमरे में जमा हो गए थे.
"ऐ सीमा , ये नीले रंग की साड़ी तो बहुत प्यारी है, मैं तो यही लूंगी. मम्मी देखो ये पांच बनारसी और दो कांजीवरम साड़ियाँ शुची के लिए थी हैं न?"
"बहुत बढियां हैं. सुनील ने ही पसंद की है न ? बस शुची को भी पसंद आएगी."
" ये दो साड़ियाँ निशि के लिए और ये एक साड़ी और दो सूट के कपड़े रीना के लिए ये दो साड़ियाँ सीमा के लिए..............................
"ये कपड़े मेरे, ये सुनील के, ये के बच्चों के ..........."
साड़ियाँ तो सारी बँट गई मेरे लिए तो कोई साड़ी निकली ही नहीं. भूल गया है क्या मनीष? अरे हाँ अभी वो प्याजी रंग की साड़ी तो रखी है शायद वही मेरे लिए लाये होंगे ये लोग.
" मम्मी ये साड़ी तुम्हारी- रंग अच्छा है न , तुम्हारे लिहाज से तो ठीक ही है "
मनीष एक एकदम हलके क्रीम कलर की सिल्क की साड़ी मेरी तरफ बढ़ा रहा था और मैं? मैं न उसे ले पा रही थी और ना ही कुछ कह पा रही थी . मैं क्या इतनी बूढी हो गयी हूँ? क्या मैं अब कामदार साड़ियाँ पहनने के लायक नहीं रह गयी हूँ ? इन लोगों ने यह कैसे मान लिया की मेरी इच्छाएं मर गयी हैं जो कुछ ये पहना देंगे मैं पहन लूंगी? सीमा, निरीह भाव से मुझे देखने लगी थी.
" ये एक कांजीवरम साड़ी बच रही है.........
" अरे वाह ! बच रही है तो क्यों न मैं ही लेलूँ"
' निशि मैं सोच रही थी कि ये साड़ी भाभी के लिए ठीक रहेगी"
" मम्मी के लिए? अरे अब इस उम्र में मम्मी इसे क्या पहनेंगी? है न मम्मी?"
" हाँ तुम्ही ले लो."
कह दिया था मैंने लेकिन मन बेहद दुखी हो गया था . उम्र के साथ-साथ इच्छाएं भी मर जाती हैं ; ऐसा हमारे युवा होते बेटे, बेटियाँ, बहुएं क्यों सोचने लगते हैं? फिर मैं अभी पचपन की ही तो हूँ. फिर मुझे अच्छे अच्छे कपड़े, साड़ियाँ पहनने का शौक भी बहुत है. अनावश्यक श्रृंगार तो मुझे वैसे ही पसंद नहीं है. पैंतीस वर्ष बीत चुके हैं हम लोगों के वैवाहिक जीवन को . मैं बीस की थी जब हमारी शादी हुई थी एक बेहद सौम्य , सरल और आकर्षक व्यक्तित्व के धनी अनिल मुझे मिले थे. बेहद प्यार करने वाले . मैं खूब सज-संवर के रहूँ, अनिल की यही इच्छा रहती थी. अब तो अनिल भी बेहद चुप-चुप से हो गए हैं. घर में जो कुछ हो रहा है उसे बस निर्लिप्त भाव से देखते रहते हैं.
मन कैसा अजीब सा हो गया था. अपने भीतर आंसुओं का सैलाब सा उमड़ता महसूस किया था मैंने. धत! कैसी पगली हूँ मैं! ठीक ही तो कहते हैं लड़के. भला अब इस उम्र में मैं कामदार साड़ियां पहनूंगी? सांत्वना दी थी मन को. अब जिनके साथ रहना है, उस नई पीढ़ी के साथ एडजस्ट करके ही चलना होगा, वर्ना उनका क्या है, मैं ही आंसू बहाती , मानसिक व्यथा लिए रहूंगी.
शाम को अनिल ने ऑफिस से लौटते ही मुझे आवाज़ दी थी.
"तुम्हारे लिए साड़ी लाया हूँ. वैसे मनीष तो ले ही आया होगा लेकिन ये मेरी तरफ से. शादी वाले दिन यही पहनोगी तुम."
बेहद प्यारी गुलाबी रंग की ज़री के काम वाली सिल्क साड़ी थी.
" लेकिन अब इस उम्र में ये साड़ी पहनते अच्छी लगूंगी क्या?"
"क्यों? इस उम्र से तुम्हारा क्या मतलब है? तुम बूढी हो गई हो क्या? अरे तुम तो अपनी बहू से कहीं ज्यादा अच्छी लगती हो, अभी भी."
और दिन भर के जमा हुए आंसूं सारे बाँध तोड़ के बह निकले थे. अनिल की साड़ी को आँखों से लगा, फूट-फूट के रो पड़ी थी मैं. और अनिल पूरे वाकये से अनजान, परेशान , मेरे रोने से हतवाक खड़े थे. उनकी समझ में नहीं आ रहा था की अचानक मुझे क्या हुआ? लेकिन मैं जानती थी की अब इस साड़ी को लेकर मेरा और अनिल का अच्छा ख़ासा मज़ाक बनाया जाएगा. " बुढापे का प्रेम" कह कर खिल्ली उड़ाई जायेगी. खुद हमारे बच्चे ही हमारा मज़ाक उड़ायेंगे.
जब तक ये तीनों होस्टल में रह कर पढ़ रहे थे, तब तक हम लोगों को अपनी उम्र का अहसास ही नहीं था. लेकिन अब कदम-कदम पर हमें उम्र का अहसास कराया जाता है.
घडी ने चार बजने का संकेत दिया था. अरे!! तो क्या सारी रात मैंने जागते हुए ही गुज़ार दी? मैं अपने प्रति ही ग्लानि से भर उठी थी. सच तो है. बुढ़ापा तो आ ही गया है मेरा. मैं महसूस नहीं कर पाती लेकिन देखने वाले तो महसूस करते हैं न. बच्चे मेरी उम्र के हिसाब से काम करते हैं तो इसमें गलत क्या है? आखिर मैं अपनी उम्र को स्वीकार क्यों नहीं कर पाती? और सचमुच मन को बड़ी शान्ति मिली थी इस विचार मात्र से.
" मम्मी, कितनी देर से जगा रही हूँ. आठ बज रहे हैं. तुम्हारे बिना तो कुछ होने का नहीं. उठो न जल्दी."
रीना जगा रही थी. चाय पर सब मेरा ही इंतज़ार कर रहे थे. लेकिन सब मेरी और ऐसे क्यों देख रहे हैं? आज आठ बजे तक सोती रही तो जैसे कोई अनहोनी हो गई! सब तो रोज़ ही आठ बजे तक सोते हैं. मन फिर उदास हो गया था. आखिर ये सब मुझे समझते क्या हैं? इन सब के लिए मेरी हैसियत क्या है?
घर में शादी का माहौल था. वातावरण में खिलखिलाहटें और कहकहे घुले-मिले रहते थे. लेकिन मेरा मन खिन्नता से भरा रहता था. सबसे झल्ला के बोलती थी. हमेशा बडबडाती रहती थी. और शायद इन सभी के हंसी-ठहाकों के बीच मैं ही तनाव पैदा करती थी.
कल बारात जाने वाली थी. घर में बड़ा अच्छा लग रहा था. सुनील भी हल्दी लगाए पूरे घर में घूम रहा था. बहुत खुश था लड़का. आखिर शुचि से किया हुआ वायदा जो पूरा हो रहा था उसका. मैं भी खुश थी क्योंकि मैंने तय कर लिया था की मैं अनिल की लाई कामदार साड़ी ही पहनूंगी. चाहे कोई कुछ भी कहे.
बड़े जतन से अपने बालों में छिटकी चांदी को डाई करके काले बालों में मिलाया. चेहरे को मलाई से चमकाया. बारात उसी शहर में जानी थी सो सारे काम इत्मीनान से निपटा रही थी. ज़री से जगमग होती साड़ी पहनी. उसके साथ मैच करते आभूषण भी पहने. और अब बेहद खुश थी की मैं निशि से ज्यादा अच्छी लग रही हूँ. अनिल ने मुझे देखा, बोले कुछ नहीं( लो भला!! तारीफ़ तक नहीं कर सकते?) बच्चों ने भी कुछ नहीं कहा. न कहें. जलते हैं मुझसे. घर के अन्य मेहमान तो तारीफों का पुलिंदा बाँध रहे हैं न? यही काफी है. अपनी सज्जा के बल पर लगभग पांच वर्ष छुपा लिए थे मैंने अपनी उम्र के . और अब अपनी भावी समधिन , जिनकी सुन्दरता के बहुत कशीदे सुनील काढता रहता है, का मुकाबला करने को तैयार थी.
बारात
बारात शुचि के दरवाजे पर पहुँच गई थी. मेरी नज़रें बस शुचि की माँ को ही तलाश कर रही थीं. जो भी गहनों, जडाऊ साड़ी से लकदक महिला दिखती , तो मैं सोचती की यही है क्या शुचि की माँ?
" हम सब की और से ढेरों ढेर बधाईयाँ, शुभकामनाएं स्वीकार कीजिये."
इस आवाज़ ने तन्द्रा भंग की थी मेरी.
अरे!!! यही है क्या शुचि की माँ? सिल्क की क्रीम, लाल बोर्डर की साड़ी पहने, माथे पर सिन्दूर की लाल बड़ी सी बिंदी लगाये, बालों को एक ढीले से जूड़े के रूप में लपेटे, सर पर पल्लू लिए हुए मेरे सामने एक बेहद सौम्य महिला खड़ी थी. मेरे दोनों हाथ अपने आप अभिवादन में जुड़ गए. उनहोंने बड़े प्यार से मेरे हाथों को थाम लिया था, और भीतर ले चलीं थीं.
उस सादगी भरे व्यक्तित्व में कैसा गज़ब का आकर्षण था! वहां ढेरों जडाऊ साड़ियों के बीच उनका सादा वस्त्रों में लिपटा मोहक व्यक्तित्व अलग ही दिपदिप कर रहा था. मेरे मुंह से शर्म के मारे शब्द ही नहीं निकल रहे थे. वे भी तो मेरी ही उम्र की हैं, लेकिन कितनी सरल, सौम्य और सादगी से भरपूर. एक मैं हूँ, जो अपनी उम्र को ताक पे रख के गहनों, साड़ियों के पीछे दौडती फिरती हूँ.
मेरे गहने मुझे काटने लगे थे. मेरी भारी साड़ी जो अभी तक अपने रेशमी अहसास से मुझे आनंदित कर रही थी, अब चुभने लगी थी. मुझे लग रहा था की मेरे सफ़ेद बाल जिन्हें मैंने बड़े जतन से काला किया है, अपनी पूर्णता के साथ झलकने लगें. मैं वही मनीष की लाई साड़ी पहन लूं.
सचमुच बच्चे सही मूल्यांकन करते हैं हमारा, हमारी उम्र का और उसके हिसाब से होने वाले प्रत्येक कार्य का. आज मुझे अपनी उम्र का भरपूर अहसास हुआ था. मैं खुद उसे महसूस करना चाहती थी आज, अभी, इसी वक्त.
मुझे लगा था की बुढ़ापा दस्तक देने लगा है. नहीं..........दस्तक देने के बाद आधा सफ़र भी तय कर चुका है..

रविवार, 8 नवंबर 2009

मेरी पसंद

निहत्थे आदमी के हाथ में हिम्मत ही काफ़ी है,
हवा का रुख बदलने के लिये चाहत ही काफ़ी है.

ज़रूरत ही नहीं अहसास को अल्फ़ाज़ की कोई,
समुन्दर की तरह अहसास में शिद्दत ही काफ़ी है.

बडे हथियार लेकर लेकर जंग में शामिल हुए लोगों
बुराई से निपटने के लिये कुदरत ही काफ़ी है.

किसी दिलदार की दीवार किस्मत में नहीं तो क्या
ये छप्पर, झोपडे , खपरैल की यह छत ही काफ़ी है.

माधव कौशिक

( "अंगारों पर नंगे पांव" से साभार)