शनिवार, 25 अप्रैल 2009

ईश्वर की इच्छा

हर अच्छे काम का श्रेय

लेते हम अपने सर,

और गलतियों को

मढ़ देते ईश्वर पर।

क्या करता है वह

हमेशा काम ग़लत?

तो फिर कोई

क्यों पूजे उसकी मूरत?

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

अनुभव

"पढियेगा बार-बार हमें

यूं ना फेंकिये,

हम हैं इंसान,

शाम का अखबार नहीं हैं"

( बुज़ुर्गों के प्रति......)

मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

चाह..........

"एक बार और जाल

फ़ेंक रे मछेरे,

जाने किस मछली में,

बंधन की चाह हो।"

(जब 18 साल की थी तब बुद्धिनाथ मिश्र आकाशवाणी छतरपुर की कौन्सर्ट में आए थे , उसी वक्त ये रचना उन्होंने सुनाई थी, तब से उनकी ज़बरदस्त प्रशंसक हूँ .)

रविवार, 19 अप्रैल 2009

अलग-अलग दायरे...

"हल्लो नीरू "

'अरे !तुम आ गईं!.... आओ-आओ' मैं हाथ की झाडू वहीं छोड़ खड़ी हो गई थी, शर्म से पानी-पानी।

'तुम काम कर रहीं थीं, मैंने डिस्टर्ब कर दिया न,जल्दी आ के?'

'नहीं यार....वो तो आज इतवार है न, बस इसीलिए सफाई का काम देर तक चलता रहता है। अरे बैठो न!'

राजी अपनी आदत के अनुसार धम्म से सोफे पर गिर गई,लेकिन इस धम्म के साथ ही एक जोरदार खटका भी हुआ, और मैं दरवाजे से बाहर देखने लगी। जानती थी,की राजी के ज़ोर से बैठने के कारण ,सोफे में मैंने जो अभी-अभी लकडी की तख्ती जोड़ी थी , निकल गई है।

'तुम बैठो, मैं ये कचरा निकाल के आती हूँ।' और मैं जल्दी-जल्दी कचरा समेटने लगी। ये राजी भी तो समय से एक घंटा पहले ही आ गई है। वरना इस एक घंटे में तो मैं सफाई कर लेती, बच्चों को तैयार कर देती। अब पता नहीं कहाँ गंदे से खेल रहे होंगे!खैर अब जो होगा देखा जाएगा। हाथ धोकर मैं फिर से ड्राइंग रूम (?) में आ गई थी।

'नीरू डियर , पता नहीं तुम इतना सब कैसे कर लेती हो! मेरी तो सच्ची, बिल्कुल आदत ही नहीं है। ज़रा सा कुछ करना पड़ जाए तो बेहद थक जाती हूँ।'

'यहाँ तो मैं अकेली हूँ न, बस इसीलिए आदत सी पड़ गई है, हमारी बाई भी तो कल ही छुट्टी लेकर गई है।'

कहते-कहते हिचक सी गई थी मैं...लगा की राजी सब समझ रही है, की हमारे यहाँ बाई थी ही कहाँ !

'मम्मी-मम्मी.....देखो, मीतु ने मेरे ऊपर मिटटी डाल दी.....'

'मम्मी गीतू ने पहले डाली थी....'

गीतू-मीतु एक दूसरे की शिकायत लिए, सर से पैर तक मिटटी में नहाये हुए ड्राइंग रूम में खड़े थे। मेरे तो आंसू ही आ गए। इससे लाख दर्जे साफ -सुथरे तो रोज़ रहते हैं।

'राजी, ज़रा इनके कपड़े बदल दूँ, अभी आई। ' अन्दर आकर में बच्चों के कपड़े बदलने लगी थी।

'मम्मी, हम लोग कहीं जा रहे हैं क्या?'

'नही तो...'

'फ़िर ये नए वाले कपड़े क्यों पहना रही हो?' उफ़!!! सारी इज्ज़त धुलवा कर ही दम लेंगे ये बच्चे!! लेकिन वे भी क्या करें, आश्चर्य तो उन्हें होगा ही, मैं उन्हें वे कपड़े घर में पहनने ही कहाँ देती थी। जैसे-तैसे इशारे से उन्हें समझाया की चुप रहें। ड्राइंग-रूम में आते ही राजी ने पूछा-

'सुनील नहीं दिखाई दे रहे...'

'पता नहीं कहाँ निकाल गए..'(बाज़ार गए हैं, कुछ नाश्ता लेने, मुझे अच्छी तरह पता है) ये सुनील भी तो बस! सुबह से कह रही थी की कुछ मिठाई वगैरह ले आयें.....अब इस राजी के सामने ही आयेंगे।

'तुम्हारा घर छोटा है, पर सुंदर है। तुम साफ भी तो खूब रखती हो।'

'चर्र......................'

'अरे क्या हुआ??'

'कुछ नहीं, तुम्हारे सोफे की कोई कील निकली थी शायद...साड़ी फंस गई है मेरी॥'

'रुको मैं निकाल देती हूँ...' कहती हुई मैं सोफे के पाए की कील में फँसी राजी की साड़ी निकालने के लिए झुकी। लेकिन हाय री किस्मत!!! मेरे ज़रा झुकते ही मेरी साड़ी का पल्लू लटक आया,और यत्न से छुपाई गई सीवन साफ़ दिखाई देने लगी। ये राजी भी तो.....इतनी जल्दी आने की क्या ज़रूरत थी? साड़ी भी तो नहीं बदल पाई मैं॥

'तुम्हारी साड़ी फट गई है, लाओ मैं सिल देती हूँ....'

'अरे नहीं यार..... वैसे भी मैं इसे कई बार पहन चुकी हूँ, इसके रिटायरमेंट के दिन हैं....'(इतनी अच्छी साड़ी... और इसका रिटायरमेंट!!)

'पापा आ गए....पापा आ गए.....'

सुनील आ गए थे,पुराना लंबा थैला साइकल पर लटकाए हुए। राजी की निगाह थैले पर ही अटकी रह गई थी। और मुझे भी सुनील नहीं थैला ही दिखाई दे रहा था। मुस्कुराते हुए सुनील थैले सहित ड्राइंग-रूम में आ गए। राजी के नमस्कार का उत्तर दे, मुझे आंखों ही आंखों में चिढाते से सुनील अन्दर चले गए। मैं तिलमिला के रह गई थी। मेरे अन्दर की हलचल मेरे चेहरे पर भी आ गई थी शायद,राजी ने पूछ ही लिया,

' क्या बात है, परेशान लग रही हो?'

'अरे नहीं यार, मैं भी कैसी भुल्लकड़ हूँ, तुम्हें आए इतनी देर हो गई और मैंने पानी तक को नहीं पूछा! अभी आई'

सुनील आराम से अन्दर बैठे थे। गुस्से के मारे मैंने उनकी तरफ देखा तक नहीं, लेकिन सुनील भी कम नहीं हैं, दूसरी बार मेरे वहाँ से निकलते ही इतनी ज़ोर से चोटी खीची की ढेर सारा पानी ट्रे में गिर गया। इनका बचपना अभी तक गया नहीं। कोई गुस्सा हो भी तो कैसे? चाय बनाने अन्दर आई तो पीछे से राजी की आवाज़ आई-

'मैं अन्दर आ सकती हूँ नीरू?'

'हाँ-हाँ क्यों नहीं........'

कहते-कहते मैंने एक नज़र बेड पर डाली, और अपने मम्मी-पापा को ढेर सा शुक्रियादा किया जिन्होंने ये सारा सामान मुझे दिया था,वरना सुनील की तनख्वाह में तो महीने के आखिरी दिन जैसे-तैसे ही कटते हैं...

सुनील के लाये हुए नाश्ते को प्लेट में लगा के लाई , तभी पता नहीं कहाँ से दोनों बच्चे भी प्रकट हो गए। और बेड से लग कर खड़े हो गए। अब तो कोई इशारा भी नहीं कर सकती थी मैं।

'आओ-आओ मीतू, गीतू तुम भी खाओ।'

दोनों मेरी ओर देखने लगे मेरे लेलो-ले लो कहते ही दोनों मिठाई की प्लेट पर टूट पड़े। उफ़!! कितने गंवार हैं दोनों!किसी प्रकार उन्हें बाहर भेजा तो जाते-जाते मीतू ने अपने धक्के से टेबल पर रखा पानी का गिलास ही गिरा दिया.पूरे कमरे में पानी फैल गया,और गीतू ने जाते-जाते नमकीन की प्लेट से ऐसा मुट्ठा भरा,की बेड रूम से लेकर बाहर तक नमकीन का रास्ता ही बनाती गई।

'अच्छा नीरू, अब मैं चलूँ.... आज मार्केट भी जाना है'

राजी को उसकी गाडी तक छोड़ आई थी। अबतक घटी सारी बातें सोच-सोच कर मुझे रोना आ रहा था।

'नीरू जल्दी खाना लगाओ यार, तुम्हारी सहेली ने तो भूखा मार दिया'

'आज तो हद ही कर दी तुम लोगों ने। सारी गरीबी उसे ही दिखानी थी?ये बच्चे भी बस!!नाश्ता देखते ही ऐसे टूट पड़े जैसे कभी खाने को ही न मिलता हो।'

'ठीक भी तो है नीरू। हमारे बच्चे कब-कब मिठाई खाते हैं?बच्चों को दोष देना एकदम ग़लत है। दरअसल सच तो ये है की सभी व्यक्ति अपने तबके के लोगों में ही घुल-मिल पाते हैं। मित्रता उनके बीच ही कायम रह सकती है, जिनमें बनावट नहो, दिखावा नहो। और एक दूसरे को समझने की क्षमता हो।'

उपदेश देकर सुनील बाहर चले गए थे। और मैं बैठी-बैठी सोच रही थी, की अब इस बिखरे हुए घर को सहेजने में कम से कम एक घंटा तो लगेगा ही।

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

तमन्ना..

हर तमन्ना
यहां पूरी नहीं होती,
ख्वाब जो देखा
उसकी तावीर नहीं होती।
करना है तसल्ली ,
बस इस ख़याल से;
खुदा होता है मगर उसकी
दीदारे-राह नहीं होती।

गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

दो का नोट

"मम्मी तुम भी कमाल करती हो! भला दो रुपये लेकर मेला जाया जा सकता है?"
"क्यों? दो रूपये ,रुपये नहीं होते? फिर तुम्हें झूला ही तो झूलना है, इसमें तो दो बार झूल लोगी..."
"अच्छा!!! किस जमाने में हो तुम? दो रूपये में तो झूले वाला झूले की तरफ देखने भी नहीं देगा।"
"लेकिन............"
"कुछ नहीं...रख लो तुम अपना ये नोट...मैं नहीं जाउंगी मेला-ठेला। सबसे कह दूँगी की मेरी मम्मी के पास पैसे ही नहीं हैं......क्योंकि बेचारी वो प्रोफेसर ही तो हैं...."
दो रूपये का नोट ,जो नीलू ने मेरी ओर तैश में आकर फ़ेंक दिया था, फडफडाता हुआ कमरे में चक्कर लगा रहा था। नीलू ने अपने कमरे में जाकर भड़ से दरवाज़ा बंद कर लिया था। नीलू मेरी चौदह बरस की बेटी अभी से कितनी व्यंग्य भरी बातें करने लगी है....उसका इतना बढ़-चढ़ कर बोलना , शायद मेरे अधिक लाड -प्यार का ही नतीजा है. अभी जिस तरह नीलू इस दो के नोट को मेरी ओर उछाल कर गयी, क्या मैं अपनी माँ के साथ ऐसा कर सकती थी?मैंने अपने बच्चों को अधिक लाड-प्यार सिर्फ इसलिए दिया,की वे भी मेरी तरह माँ के प्यार से वचित न रह जाएँ। लेकिन इसका बदला मुझे जिस तरह मिल रहा है, वो मैं देख रही हूँ, महसूस कर रही हूँ,लेकिन इस स्थिति से उबरने का प्रयास नहीं कर रही। यह जानते हुए, की मैं बच्चों की जिन आदतों को शाह दे रही हूँ, वे मेरे,रवि के और ख़ुद बच्चों के लिए हितकर नहीं हैं।
दो का नोट अब कमरे में मेरे डबलबेड के पाये से लग कर स्थिर हो गया है। इस दो के नोट से मेरी किशोरावस्था का गहरा सम्बन्ध है। बचपन में तो हाथ पर दस पैसे से ज़्यादा कभी आए ही नहीं। पन्द्रह बरस की हुई तब से कहीं भी जाऊं,मेला, बाज़ार, या सालगिरह; दो का नोट मेरे साथ चलता मेरी मुट्ठी में कसमसाता। कभी उसके खर्च होने की नौबत ही नहीं आती थी, क्योंकि दो रुपये में उस वक्त भी केवल मूंगफली ही मिल सकती थी.फिर भी उसने मेरा साथ नहीं छोड़ा। शायद इसीलिये दो के नोट से मेरी गहरी आत्मीयता है।
"मम्मी , और रुपये दे रही हो? मेरी समझ में नहीं आता की कभी-कभी तुम्हें क्या हो जाता है?मैं कहीं भी जाऊं, तो तुम दो का लाल नोट ही क्यों हिलाने लगाती हो मेरे सामने ? मेरी फ्रेंड्स देखो, इतने बड़े-बड़े घर कि लड़कियां है, खूब खर्च करतीं हैं। फिर मैं भी तो गरीब नहीं हूँ। मैं ही क्यों हाथ बांधे रहूँ?"
नीलू की किसी भी बात का उत्तर देने की , डांटने की मेरी इच्छा ही नहीं हुई। नीलू मेरे कुछ भी न बोलने से और खीझ गई थी। उसकी सहेलियां भी आ गईं थीं। और अब नीलू मेरी अलमारी के पास थी। बड़े इत्मीनान से उसने सौ का एक नया नोट निकाला।
" मम्मी मैं ये सौ रुपये ले जा रही हूँ, पूरा खर्च नहीं करूंगी। "
कहने को तो कह गई है, की पूरा खर्च नहीं करुँगी, लेकिन लौटने पर बीसों खर्चे होंगे उसकी जुबां पर। मेरी सहेलियां भी सभी बड़े घरों की थीं और खर्चीली भी। उनके बीच मैं अपने आप को बेहद हीन महसूस करती। ये बड़े घर की बेटियाँ मेरी दोस्त थी, तो केवल इसलिए क्योंकि पढाई में ये सब मेरी बराबरी नहीं कर सकतीं थी।
मुझे अच्छी तरह याद है, मैं बी.एससी। प्रथम वर्ष में थी,हमारे शहर में मेला लगा था सबने वहाँ जाने का प्रोग्राम बनाया, मम्मी ने उस दिन भी मुझे दो रुपये ही दिए थे और मैं सोचती रह गई थी की इस दो के नोट का मेले में क्या करूंगी? मेले में पहुँचने के बाद मेरी फ्रेंड्स जो भी खरीदतीं मुझे कहतीं , चाट खाती, लेकिन इस सब का मेरे पास एक ही उत्तर होता, मैं चाट खाती ही नहीं, मुझे चूडियों का तो शौक ही नहीं... आदि-आदि। मेरे पास इतने पैसे ही नही होते थे की मैं ये सब खरीद सकूं। अपने दो के नोट को मुट्ठी मैं कसे वापस आ गई। एक मैं थी जो और पैसों के लिए कभी मुंह नहीं खोल पाई, एक मेरे बच्चे हैं.....इनकी स्वार्थ पूर्ति में ज़रा भी कम आई नहीं की इनकी जुबां की मिठास में भी तेज़ी से गिरावट आने लगाती है। इनके सामने मैं जो की अपने स्टाफ में बेहद सख्त मानी जाती हूँ, कुछ कह ही नहीं पाती। घर में रहती हूँ तो मेरा बचपन मुझ पर हाबी रहता है। मैं सोचती हूँ की क्या मैं अपने बच्चों में कम खर्च करने की आदत उत्पन्न कर सकती हूँ? लेकिन इस महंगाई और आधुनिकता के कदम से कदम मिलाकर चलने वाली पीढी को दो के नोट से कैसे बहलाया जा सकता है?
करने को मेरे पास कुछ था नहीं, उठी और दो के नोट को सहेज दिया सौ के नोट कि खाली हुई जगह में.

रविवार, 5 अप्रैल 2009

ज्योति सिंह

जो पहले दिया
वो याद नहीं,
पहले क्या था,
हमें याद नहीं,
तुम थे पर
मेरे साथ नहीं,
तुम्हें लेकर था,
कोई ख़याल नहीं।
वह सफर था
बड़ा अनजाना
यह है शुरुआत नई।
(ज्योति सिंह मेरी अभिन्न मित्र हैं, रचना कर्म उनका पहला शगल है, कोशिश करूंगी की उनकी रचनाएं नियमित आप तक पहुंचा सकूं.)