रविवार, 6 नवंबर 2011

विरुद्ध.....

(अपने दूसरे ब्लॉग " अपनी बात..." पर मैने श्री हरिशंकर परसाई जी से जुड़ा अपना संस्मरण पोस्ट किया तो उसमें वसुधा में प्रकाशित कहानी का भी ज़िक्र आया. मेरे कई मित्रों ने उस कहानी को पोस्ट करने का आग्रह किया. तो लीजिये, आप सबकी फ़रमाइश पर ..... १९८७ में लिखी और वसुधा में परसाई जी द्वारा प्रकाशित कहानी)

बहुत
दिनों के बाद आज पापा के ठहाके सुनाई दे रहे थे. दिन भर की थकान के बावजूद भाभी फिर किचन में व्यस्त दिखाई दे रही थीं.सबके चेहरों पर छाई खुशी, बस देखने लायक़ थी. और सच कहूं तो मेरा मन भी आज बेहद हल्का हो आया था.
पिछले कुछ वर्षों से पापा मेरे विवाह को लेकर इतने चिंतित और परेशान थे कि उनकी हालत देखते हुए मुझे भी लगता था कि कैसे भी , कहीं भी मेरा रिश्ता तय हो जाये, अन्यथा शादी की मेरी इच्छा तो उसी दिन मर गई थी ,जिस दिन पापा ने मुझे मांगने आये सुनील की झोली को मेरे बदले ढेर सारी लताड़ और अपमानजनक शब्दों से भरदिया था. मैं भी पीछे हट गई थी . परिपक्व अवस्था होने के कारण डर गई थी शायद पापा कोभी तरह भटकना, परेशान होना, वैवाहिक कॉलम देखना मंजूर था, लेकिन सुनील के साथ रिश्ता मंजूर नहींथा. इसके पीछेसुनील का विजातीय होना ही मुख्य कारण रहा हो शायद.

भी दस दिन पहले ही तो ताऊ जी का पत्र आया था कि शर्मा जी को उन्होंने मेरी तस्वीर और मुझसे सम्बन्धित सारी जानकारियां दे दी हैं. और वे लोग ग्यारह तारीख को मुझे देखने रहे हैं

हमेशा की तरह घर को फिर नये सिरे से व्यवस्थित किया गया.सोफ़ों पर नये कवर, कुशन, बेड शीट्स सब बदलदिये गये. नयी क्रॉकरी और स्टील के नये बर्तन, जिन्हें देख के कोई भी कह सकता था कि इनका इस्तेमाल अभी तक नहीं हुआ है, निकाले गये. घर के सभी लोग उत्साहित थे, एक मुझे छोड़ के. मैं पूरी तरह तैयार थी ये सुनने के लिये कि- " हम घर पहुंच कर पत्र लिखेंगे". पत्र का मजमून भी मुझे मालूम था. हमेशा ऐसा ही होता है. तब, जबकि मैं सुन्दर ही कही जाती हूं. शकल-सूरत ठीक-ठाक ही दी है भगवान ने.और फिर हमारे मम्मी-पापा ने क्या नहींसिखाया हम भाई-बहनों को?
संगीत में मेरी रुचि और गले को देखते हुए पापा ने बी.म्यूज़. की डिग्री दिलाई थी मुझे. एम.एससी. तो थी ही. सुरसधा रहे, इसके रियाज़ के लिये तानपूरा भी इलाहाबाद से मंगवा के दिया था उन्होंने.
नियत समय पर शर्मा जी आये और मेरी आशा के विपरीत , सगाई की औपचारिकता भी पूरी कर गये थे. बस, तभी से खुशी तो जैसे हमारे घर से छलकी-छलकी पड़ रही थी.

बहुत धूम-धाम से शादी की थी पापा ने. मैं भी ऐसा सुदर्शन पति पाकर एकबारगी सुनील को भुला बैठी थी.
सब कुछ ठीक होने के बाद भी बेहद बंधी-बंधी सी महसूस करती थी मैं. पता नहीं सबके व्यवहार में ऐसा क्या था,कि बड़ी सहमी-सहमी सी रहती थी. हर वक्त राहुल की पद-प्रतिष्ठा के मुताबिक रहना पड़ता था मुझे. इतनी बंध के तो कभी रही ही नहीं मैं.जब जो चाहा सो किया. सचमुच कभी-कभी तो लगता कि जबरन ओढी गई इस सभ्यता को उतार फेंकूं, और खूब ज़ोर से हंसू, खिलखिलाऊं. लेकिन . यहां तो सब मुस्कुराते हैं वो भी कड़वा सा.
एक साल होने को आया, लेकिन अभी तक राहुल की मित्र-मंडली एक-एक कर हमें कभी डिनर तो कभी लंच परआमंत्रित कर रही थी. इसी क्रम में आज हमें राहुल के जनरल मैनेजर कोहली साहब ने डिनर पर आमंत्रित कियाथा. बड़े जतन से तैयार हुई थी मैं. लाल सिल्क की साड़ी पहन कर तो मैं अपने आप पर ही मुग्ध हो उठी थी, सच्ची.
हमारे स्वागत में कोहली जी ने तो एक छोटी-मोटी पार्टी का ही इन्तज़ाम कर डाला था
राहुल के परिचितों के बीच बड़े भैया के सहपाठी, जो कि संगीत में भी बड़ी गहरी दखल रखते थे, को देख कर मुझे तो लगा कि मैं शशि दा को नहीं, बल्कि बड़े भैया को ही देख रही हूं। सच! खुशी के मारे मेरे तो आंसू ही गए. शशि दा हमेशा से ही मेरे गायन के प्रशंसक रहे हैंबस यहाँ भी उन्होंने अपनी पुरानी रागमाला शुरू कर दी और उपस्थित लोगों को मेरे बारे में विस्तार से जानकारियां देने लगे, बल्कि अतिश्योक्तिपूर्ण गुणगान करने लगे
" दोस्तों, आज हमारे बीच अंजलि जी मौजूद हैं, तो मैं उनसे आग्रह करूंगा कि वे एक गीत सुना कर हम सब को कृतार्थ करें, यदि राहुल साब को कोई आपत्ति हो, तो।"
" लो! भला राहुल को क्या आपत्ति होगी? शुरू हो जाइए भाभी जी।"
" अब तो राहुल को आपत्ति हो भी , तब भी हम आपका गाना सुनेंगे ही। "
चारों तरफ से पड़ते दवाब और इतने दिनों बाद फिर गाने की बात सुन के मेरा मन भी कुछ गाने को होने लगा था।ग़ालिब की एक सुन्दर सी ग़ज़ल सुनाई थी मैंनेहॉल तालियों कि गड़गड़ाहट से गूँज उठा थामैंने भी गर्वीली दृष्टि राहुल पर डाली, लेकिन राहुल कहीं और देख रहे थे.हाँ, उनके चहरे पर इतनी कठोरता छाई थी, कि मैं उनकी नाराजगी स्पष्ट अनुभव कर रही थीमूड ऑफ हो गया था मेराराहुल उठ के कोहली जी से विदा लेने लगे थेमुझे विदा करते लोग , एक बार फिर मुझे घेर के बधाई देने लगे थे, तभी राहुल आये थे और मेरा हाथ पकड़ कर लगभग खींचते हुए, सबको शुभरात्रि कह बाहर चल दिए थेराहुल की इस हरकत पर मुझे बड़ा आश्चर्य और अपमान भी महसूस हुआ थाकार में राहुल के पार्श्व में बैठ कर भी मुझे लगा था , कि मैं राहुल से दूर हूँ, बहुत दूर.
घर पहुंचते ही राहुल फट पड़े थे-
" क्या ज़रुरत थी तुम्हें वहां गाने की? क्या को भी बहाना नहीं था तुम्हारे पास? उस शशि दा ने ज़रा से तुम्हारे गले की तारीफ़ क्या की, तुम तो शुरू ही हो गईं? कान खोल के सुन लो, मुझे कोठेवालियों की तरह गाने वाली लड़कियां बिलकुल पसंद नहीं
क्या! कोठेवालियों की तरह!!
मैं अवाक थी. तो क्या मेरे पापा किसी कोठे के संचालक थे, जिन्होंने मुझे विधिवत संगीत की शिक्षा दिलवाई!! जैसे-तैसे अपने आप को संयत कर पूछा था मैंने-
" इस तरह गाना तुम्हारी नज़र में कोठेवालियों की तरह गाना है?"
" जी हां. महफ़िलों में गाना मैं निकृष्टम मानता हूं. एक बात और, यदि मेरे साथ रहना है तो आपको मेरी तरह रहना होगा. और तुम्हारा वो शशि दा, उसे भी मैं अच्छी तरह जानता हूं. एक नम्बर का लफ़ंगा है. तुम्हारी तारीफ़ करके इतना गदगद क्यों हो रहा था? और जिस तरह वो तुम्हें देखे जा रहा था, क्या इस तरह कोई भी शरीफ़ आदमी किसी की पत्नी को घूरता है? क्यों कर रहा था ऐसा वो? कब से पहचान है तुम लोगों की?"
ज़मीन पर गिरी थी मैं ! इतने भव्य व्यक्तित्व के पीछे इतना बौना - ओछा इंसान!! कितनी कुत्सित सोच!!!
पूरी रात राहुल के शब्दों ने सोने नहीं दिया था. मुझे और शशि दा को लेकर राहुल कितनी बड़ी बात कह गये हैं. मैं शशि दा को बचपन से जानती हूं. ये सही है कि वे किसी की भी प्रशंसा इतने खुले दिल से करते हैं कि कोई शक्की दिमाग़ आदमी ज़रूर उसे ग़लत अर्थों में ले ले, जैसा राहुल के साथ हुआ. लेकिन क्या इतने दिनों के साथ के बाद भी राहुल मुझे नहीं समझ पाये? पति-पत्नी का सम्बंध विश्वास पर ही टिका होता है.
और जिस दिन ये विश्वास टूटता है, उसी दिन दाम्पत्य जीवन से प्रेम खत्म हो जाता है. बाक़ी की पूरी विवाहित ज़िन्दगी एक सामाजिक समझौते के तहत गुज़रती रहती है.
इस घटना के बाद से तो जैसे राहुल मुखर हो उठे थे. बात-बात पर व्यंग्य करना, शक करना. यहां तक कि यदि मैं खिड़की में खड़ी हूं, तो फ़ौरन आकर नीचे देखते कि मैं किसे देख रही हूं. बल्कि मुझसे कह ही देते थे. तिलमिला के रह जाती थी मैं. अभी तक मेरे चरित्र पर किसी ने आक्षेप नहीं किया था, और अब मेरा पति ही मुझ पर शक कर रहा है!! कैसे गुज़ारूंगी इतनी लम्बी ज़िन्दगी? ये कैसा कारावास मिला था मुझे? बिना किसी अपराध के आजीवन सज़ा??
घर में शान्ति रहे, हमारे सम्बंध सामान्य बने रहें, सिर्फ़ इसीलिये मैने मम्मी-पापा के दिए हुए अपने तानपूरे को उसी दिन से छुआ तक नहीं था, जिस दिन राहुल ने संगीत के प्रति ऐसी वितृष्णा ज़ाहिर की थी. वरना उसकी धूल तो रोज़ झाड़ ही देती थी. मैने अपना संगीत छोड़ा तुम्हारे लिये राहुल, सिर्फ़ तुम्हारे लिये और तुम मेरी हर छोटी-बड़ी हरक़त पर नज़र रखते हो? उफ़!! कितना असहनीय, मन को दुखाने वाला होता है ये साथ. पता नहीं कैसे शादी के बाद इतने दिनों तक राहुल अपने इस शक़्क़ी मिज़ाज़ को कैसे जब्त किये रहे.
आज तो हद ही हो गई. सुबह सुबह शशि दादा एक पत्रिका का नया अंक लेकर आ धमके, और फिर उसमें प्रकाशित सुगम संगीत की एक प्रतियोगिता के नियमों के बारे में विस्तार से समझाने लगे. अपनी आदत के मुताबिक वे मेरी प्रशंसा के पुल भी बांधते जा रहे थे तभी बेडरूम से राहुल अपने स्लीपिंग गाउन की बेल्ट कसते हुए बाहर आकर बड़ी तल्खी से बोले थे-
" शशि दा इस संगीत सम्बंधी जानकारी की मेरी पत्नी को तो आवश्यकता नहीं होनी चाहिए. हां यदि अंजलि जी पर गायकी का नशा चढा हुआ हो, तो ज़रूर आप इन्हें किसी संगीतमय स्थान पर ले जाकर बिठा दें, ताकि ये अपने सुर-ताल का पूरा और सही उपयोग कर सकें."
शशि दा अवाक राहुल को देख रहे थे, जैसे उसके कहे शब्दों का अर्थ ढूंढ रहे हों. शर्म और अपमान से मेरा चेहरा लाल हो गया था. शशि दा भी राहुल के कटाक्ष को तो नहीं समझे, लेकिन वक्त की नज़ाकत को ज़रूर समझ गये और अपनी पत्रिका समेट चुपचाप चले गये. कितना तक़लीफ़देह! मुझे लगा कि मैं इस मानसिक रूप से बीमार आदमी के साथ कैसे और क्यों रह रही हूं? इसकी अंगुली के हर सही-ग़लत इशारे पर क्यों नाचती हूं? क्यों इसके किसी भी ग़लत आरोप का खंडन नहीं करती? ये फ़िल्म नहीं चल रही है कि तीन घंटे बाद सारी ग़लतफ़हमियां दूर हो जायेंगीं. यहां तो पूरी उम्र गुज़र जायेगी और शायद तब भी ग़लतफ़हमियां दूर न हो सकें.
मैं अभी भी विश्वास नहीं कर पा रही थी कि शशि दा के सामने राहुल ने इतना कुछ कहा है. शायद यही जांचने के लिये मैंने पूछा था-
" राहुल, क्या तुम जनते हो कि तुमने शशि दा के सामने क्या कहा है?"
" क्यों? क्या मैं तुम्हें नशे में दिखाई दे रहा हूं? एक बार फिर और शायद अन्तिम बार कह रहा हूं कि मुझे तुम्हारा ये गाना और उसके बहाने इस शशि का आना सख्त नापसंद है. यदि तुमसे ये संगीत न छोड़ा जा रहा हो तो तुम मेरी ओर से स्वतंत्र हो. मैं पहले भी कह चुका हूं कि यदि तुम्हें मेरे साथ रहना है तो मेरी तरह रहना होगा, वरना हमारे रास्ते अलग हैं ."
मेरा जवाब सुने बिना ही राहुल दरवाज़े से बाहर हो गये थे, उसकी उन्हें ज़रूरत भी कहां थी?
मैं जानती हूं राहुल कि तुम्हें क्या पसंद है. तुम्हें फ़्लोर पर डांस करती, अपने पतियों के अधिकारियों से मुस्कुरा मुस्कुरा के बात करती लड़कियां अच्छी लगती हैं. मुझे याद है शादी के बाद वाली तुम्हारे बॉस की पार्टी में मैने उनका डांस का ऑफ़र ठुकरा दिया था, जो तुम्हें नाग़वार गुज़रा था. लेकिन मुझे इस तरह की लड़कियां अच्छी नहीं लगतीं.
हो सकता है कि उन लड़कियों के सामने किसी तरह की मजबूरी रहती हो, या फिर वे ही अंधी आधुनिकता की दौड़ में शामिल होने के लिये ये सब करती हों, लेकिन मेरे सामने कोई मजबूरी नही है. और न ही मैं तुम्हारे साथ रहने को मजबूर हूं राहुल. आज भी मैं अपनी मर्ज़ी से अपना रास्ता चुन सकती हूं. मुझे निर्णय ले ही लेना चाहिये.
और आज लगभग साल भर बाद एक बार फिर घर में तानपूरे के स्वर गूंज रहे थे.