मंगलवार, 15 जून 2010

नीरा जाग गयी है....

आज फिर घर में बड़ी चहल-पहल थी. पूरा सामान उलट-पुलट किया जा रहा था. पापा व्यस्त थे. माँ व्यस्त थीं. छोटी बहनें चहक रहीं थीं, बस नीरा चुप थी. देख रही थी चुपचाप . किसी ने कोई काम बताया तो कर दिया, बस इतना ही. सबके चेहरों पर ख़ुशी थी , लेकिन नीरा का चेहरा शांत था. सरोकारहीन, निर्लिप्त सी घूम रही है.कभी इधर तो कभी उधर. वैसे किसी को इस बात का ख़याल भी नहीं था कि नीरा कहाँ है, क्या कर रही है? जबकि ये सारा सरंजाम उसी के लिए किया जा रहा था.
चुपचाप बालकनी में आ गई नीरा.
नीरा, जो शहर के सरकारी हायर सैकेंडरी स्कूल के प्राचार्य सुशील पांडे की बेटी है, नीरा, जिसकी माँ बेहद सुघड़ और शालीन है, लेकिन अब परिस्थितिवश नीरा पर झुंझला उठती है. नीरा, जिसकी दो छोटी बहने और एक भाई है, जो उसे बहुत प्यार करते हैं, लेकिन अब जो स्थितियां घर में बन रहीं हैं, जो तनाव घर में छाया रहता है, उसके लिए नीरा को ही दोषी मानने लगे हैं.
और नीरा???
यह वही लड़की है, जिसने चार साल पहले जीवविज्ञान में एमएससी किया है, जिसने शुरू से लेकर अंत तक सारी परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की हैं, और बीएड करने के बाद एक प्रायवेट स्कूल में २००० रुपयों की नौकरी कर रही है, अब छब्बीस साल की हो गई है, लेकिन अभी तक उसकी शादी नहीं हो सकी है.
बस!!! सारी चिंताओं की जड़ यही है.
नीरा साधारण शक्ल-सूरत की लडकी है लेकिन आकर्षक है. रंग थोडा दबा हुआ लेकिन चमकदार है, फिर भी अब तक जितने भी रिश्ते आये , सब दबे हुए रंग और साधारण सूरत के चलते वापस हो गए. सब के सब घर जा कर जवाब देने की बात कह कर गए और चुप्पी साध गए. पहली बार नीरा के पापा ने फोन करके लड़के वालों का जवाब जानना चाहा था, लेकिन उसके बाद जब भी लड़के वाले बिना जवाब दिए गए, पांडे जी उनका जवाब खुद ही समझ जाते.
पहली बार के इन्कार पर पांडे जी ने लड़के वालों की लानत-मलामत की. उन्हें नादान और इंसान को परखने में अक्षम बताया. दूसरी बार परेशान हुए, लेकिन तीसरी बार तो सीधा निशाना नीरा पर ही साधा. पता नहीं कितनी तरह से अयोग्य ठहराया गया उसे.
बालकनी में घूमती नीरा के दिमाग में केवल पिछली घटनाएं ही घूम रहीं हैं. अब तो इन लड़के वालों के नाम से दहशत सी होने लगी है उसे. एक तो कितनी बार उसने माँ से कहा है कि उसका मेकअप न किया करें. उसका चेहरा ऐसे बिना किसी प्रसाधन के ज्यादा अच्छा लगता है. लेकिन माँ मानती ही नहीं.
कभी भी झूठ का सहारा न लेने वाले माँ-पापा लड़के वालों के सामने धड़ल्ले से झूठ बोलते दिखाई देते हैं अब तो..............." ये कुशन इसी ने बनाए हैं...." बुनाई में तो बहुत होशियार है हमारी नीरा......"
" तरह-तरह के व्यंजन बनाने का बहुत शौक है नीरा को..."
" ये कचौरियां उसी ने बनाई हैं......."
जबकि सच तो ये है कि नीरा को कढाई के नाम पर केवल चेन-स्टिच आती है . नाश्ते जो लोगों को पेश किये जाते हैं, उनमें कुछ भी उसका बनाया नहीं होता.फिर फूलचंद भाजियावाले जैसे समोसे-कचौड़ी नीरा तो क्या कोई भी कुशल गृहिणी नहीं बना सकती. पूरे शहर में प्रसिद्धि है, इन समोसों-कचौरियों की . वो तो लड़के वाले बाहर से आते हैं इसलिए समझ नहीं पाते, वर्ना इस शहर के लोगों की तो जुबान पर स्वाद चढ़ा है इनका. एक बार में पहचान जाएँ......
और बुनाई???? बुनाई के नाम पर नीरा केवल उल्टा-सीधा बुन सकती है, वो भी तब तक जब तक स्वेटर में कुछ घटाने की बारी न आये. पिछली बार माँ राहुल का स्वेटर बना रहीं थी. पीछे का पल्ला नीरा को पकड़ा दिया था. नीरा ने किताब पढ़ते-पढ़ते जो बुनाई की, तो दो फंदे ऐसे छोड़ दिए, जिन्होंने पूरी बुनाई ही उधेड़ के रख दी. तब से लेकर आज तक माँ ने बुनाई के नाम पर नीरा को ऊन तक नहीं पकडाया होगा.
थक गई है नीरा ये झूठी बातें सुनते-सुनते. कितनी बार उसने माँ-पापा से कहा है कि उसकी झूठी तारीफें न किया करें. उसे पढने का शौक है, लिखने का शौक है, म्यूज़िक का शौक है, लेकिन ये सारी चीज़ें तो होने वाली बहू के गुणों में शामिल नहीं हैं न!! बस इसीलिये उसके इन गुणों का ज़िक्र तक नहीं किया जाता.
एक अच्छी बहू के गुण हैं- गोरा रंग, खूबसूरत चेहरा, नज़रे हमेशा नीची रखने वाली, हर बात सिर झुका के मानने वाली, पलट के जवाब न देने वाली, अपने विचार स्वयं तक सीमित रखने वाली, और हर कार्य में दक्ष .
लेकिन नीरा तो ऐसी नहीं है.एक बहू के लिए निर्धारित इन तथाकथित गुणों में से एक भी नहीं है उसमें. गलत बात तो नीरा को बर्दाश्त ही नहीं होती. किसी की भी हाँ में हाँ मिलना तो उसने सीखा ही नहीं है. अपने बेवाक विचारों की प्रस्तुति के कारण ही कॉलेज में उसका अच्छा प्रभाव था. वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हमेशा प्रथम स्थान मिलता रहा है उसे. कितने सर्टिफिकेट, कितने मेडल, कितने ईनाम...........लेकिन सब बेमानी. सब बेकार. पिछली बार यही तो कह रहे थे पापा-
" इनामों को चाटेंगे क्या ससुराल वाले? इसे कुछ घर का कामकाज सिखाओ भाई"
माँ ने भी जैसे पापा के आदेश को सिर-माथे लिया था. रसोई का हर छोटा-बड़ा काम सिखाने की कोशिश करतीं. हालाँकि इतनी मूर्ख नहीं थी नीरा. घरेलू काम काफी कुछ आते हैं उसे. सुघड़ तो है ही. काम चलाने लायक खाना भी बना लेती है. घर को सजा-संवार के रखना उसे अच्छा लगता है. बहुत सलीके से बातचीत करना आता है उसे. अगर फ्री हो के किसी मसले पर चर्चा करती है, तो सामने वाला हमेशा प्रभावित होता है उससे.
लेकिन लड़के वालों के सामने तो सिर झुकाए केवल हाँ में जवाब देते बैठे रहना पड़ता है उसे. कई बार तो उसकी मौजूदगी में हो रही सामजिक या राजनैतिक चर्चाओं में अपने विचार व्यक्त करने के लिए कसमसाती रह गई है वह. हमेशा " बिना मुंह की बिटिया है हमारी " जैसे पापा के स्लोगन का सिर झुका के पालन करती रही है, नीरा.
कितनी बार माँ-पापा से कहा है उसने कि अब ये दिखने-दिखाने का कार्यक्रम बंद करें. तीन बार रिजेक्ट हो चुकी है वह. अब बस. लेकिन ये लोग मानते कहाँ हैं?
" क्यों ? घर में बैठे रहने का इरादा है क्या?"
" छोटी बहनों का ख़याल नहीं है?"
"लोग क्या कहेंगे?"
जैसे जुमले अब बोलने के पहले ही उसे सुनाई देने लगते हैं. अब आज एक बार फिर घर संवारा जा रहा है. पापा इस बार कुछ ज्यादा ही खुश हैं. उन्हें जैसे पक्का भरोसा है कि बात बन ही जायेगी.
फिर पर्दे बदले जा रहे हैं. कुशन बदले जा रहे हैं. नई क्रॉकरी निकली गई है. राहुल को बता दिया गया है कि समोसे-कचौड़ी कब लाने हैं. मिठाई आ गई है.
पता नहीं कहाँ से आ रहे हैं ये लोग. शायद लखनऊ से. पहले तो नीरा को सब बताया जाता था, लेकिन इस बार तो लड़के कि फोटो तक नहीं दिखाई. सोचते होंगे, मना तो होना ही है, पूरा डिटेल बताने से क्या फायदा? नीरा ने भी इसीलिये कोई रूचि नहीं दिखाई, विवरण जानने में.
सोनी आ के नीरा को तैयार होने को कह गई है. शायद मेहमान आने ही वाले हैं. माँ आईं, आते ही, कैसे तैयार होना है, बता गईं. साडी-जेवर सब निकाल कर पलंग पर रख गईं हैं.
नहीं पहनेगी नीरा ये चमकदार साडी. नहीं पहनेगी इतने सारे जेवर. उकता गई है इस सारे दिखावे से. कितनी ही बार इन्ही जेवरों और ऐसी ही साड़ियों में पेश की जा चुकी है. आज तो नहीं ही पहनेगी. अपनी पसंद की हलके गुलाबी रंग की साडी और हल्का सा जेवर पहन लिया है उसने. आज कुछ भी उल्टा-सीधा बर्दाश्त नहीं करेगी नीरा. तय कर लिया है उसने.
नीचे से बुलावा आया तो नीरा चल दी ड्राइंगरूम की तरफ. पापा पिछले अनुभवों और आदत के मुताबिक़ नीरा की खूबियों का बखान करने में व्यस्त थे.
ड्राइंगरूम में आ गई थी नीरा.
"बैठो बेटी"
बैठ गई नीरा. धीरे से प्रस्तावित लड़के को देखने की कोशिश की. अरे बाप रे!!!! ये लड़का है? इतना उम्रदराज़??? क्या हो गया है पापा को? क्या सचमुच बोझ बन चुकी हूँ मैं?? सोचा नीरा ने. न. अब तो किसी की ज़बरदस्ती बर्दाश्त नहीं करेगी नीरा.
" बेटी क्या कर रही हो आजकल?"
" जी, पापा ने नहीं बताया?"
उलटे सवाल से हडबडा गईं तथाकथित लड़के की माता जी.
" कढाई, बुनाई, सिलाई, कुछ आता है?"
"नहीं:
"मगर तुम्हारे पापा तो बता रहे थे......"
"गलत बता रहे थे. यहाँ जो भी कुशन या टेबिल-क्लॉथ दिखाई दे रहे हैं, उन्हें मेरा बनाया न समझें. ये सब बाज़ार से
खरीदे गए हैं."
भावी वधु के जवाब से तिलमिलाई माताजी समझ ही नहीं पा रहीं थीं कि क्या पूछें?
" खाना बना लेती हो?"
"नहीं. बस दाल-चावल या एक-दो सब्जियां बना लेती हूँ. आप इसे काम चलाऊ कह सकतीं हैं लेकिन स्पेशल डिशेज़ बनाना मुझे नहीं आता. "
"मगर तुम्हारे पापा तो बता रहे थे..........'
"गलत बता रहे थे. ये समोसे-कचौड़ियाँ तो फूलचंद भजिया वाले के यहाँ से आये हैं. इतना अच्छा नाश्ता बनाना मुझे नहीं आता. "
हताशा भरा अंतिम सवाल आया माता जी का-
" जब ये सब घरेलू काम तुम्हें नहीं आते, इनका शौक ही नहीं है तुम्हें, तो फिर आखिर शौक किस चीज़ का है?"
" मुझे पढने, लिखने , खेलने, और अच्छा- अच्छा खाना खाने का शौक है. और अगर कोई कुछ सिखाए तो उसे सीखने का भी शौक है"
" मगर तुम्हारे पापा तो कह रहे थे कि तुम गाना......"
" गलत कह रहे थे. मुझे खुद गाने का नहीं, गाने सुनने का शौक है."
हक्के-बक्के से लड़के वाले एक-दूसरे की तरफ देख रहे थे और पापा? क्रोध नहीं था उनके चेहरे पर......कुछ राहत ही नज़र आ रही थी वहां भी.....शायद उम्र पाया दामाद उन्हें भी पसंद नहीं था.
पापा और माँ को शायद शर्मिंदा किया था नीरा ने लेकिन भविष्य में लगने वाली अपनी उस नुमाइश का अंत कर दिया
था उसने , जो लड़के वालों के इंकार के बाद नीरा को शर्मिंदा करती थी........लेकिन अब नहीं. अब नीरा जाग गई है.