मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

" हवा उद्दंड है........"




( मेरे कुछ वरिष्ठ जनों के आग्रह और आदेश पर मैं अपनी इस कहानी का पुनर्प्रकाशन कर रही हूं. मेरे जिन साथियों ने इसे पूर्व में पढा है, उनसे क्षमा याचना सहित)


"अन्नू..... उठ जाओ, छह बज गए हैं।"
मम्मी की आवाज़ के साथ ही मेरी आँखें खुल गई थीं। क्या मुसीबत है! ऐसे कडाके की ठण्ड में उठना होगा! यदि इस वक्त ज़रा भी आलस किया तो 'बस ' के समय तक तैयार होना बड़ा मुश्किल होगा। बस का ख्याल आते ही एक झटके से रजाई फ़ेंक उठ खड़ी हुई थी मैं। सर्दियों में तो सचमुच ही सुबह उठना बहुत अखरता है। भइया और गिन्नी मेरी छोटी बहन को सोते देख बड़ी ईर्ष्या होती है, उनसे। भइया तो वैसे भी धुरंधर सुबक्कड़ हैं। यदि उन्हें दस बजे ऑफिस न जाना हो, तो बारह बजे तक सोते ही रहें।
जब तक मुझे नौकरी नहीं मिली थी, सोचती थी कि कितना शुभ दिन होगा, जब मुझे नौकरी मिलेगी! तब नौकरी के समानांतर चलने वाली अन्य समस्याओं पर गौर ही कहाँ किया था! उनकी जानकारी ही कहाँ थी मुझे!शुरू के दिनों में कैसे उत्साह से गई थी कॉलेज , और अब!!अब तो जाने के नाम से ही कांटे से उग आते हैं शरीर पर ।
जैसे-तैसे नाश्ता कर, बस-स्टॉप की ओर भागी थी। बस अभी आई नहीं थी। बस-स्टॉप पर एक विशालकाय इमली का पेड़ था, जिसकी छाया में हम रोज़ अप-डाउन वाले बस का इंतज़ार किया करते थे। लेकिन मुझे वहां खड़ा होना बड़ा अजीब लगता था। मेरा पूरा वक्त घड़ी देखते या फिर अपने बैग को दोनों हाथों में बारी-बारी से बदलते बीतता।

मुझे स्टॉप पर पहुंचे अभी दो मिनट ही हुए होंगे, की एक लड़का बड़ी तेज़ साइकलिंग करता हुआ मेरे बहुत करीब से गुज़र गया ; इतने करीब से कि मैं चौंक कर दो कदम पीछे हट गई। यदि मैं पीछे न हटती तो निश्चित रूप से वह साइकिल मुझ से टकरा जाती। मेरे इस तरह पीछे हटने पर , थोडी ही दूरी पर खड़े तीन-चार लड़के हो-हो कर हंसने लगे। क्रोध और विवशता से बस होंठ भींच कर रह गई मैं।

आजकल के किशोरवय प्राप्त लडके इतने असभ्य और उद्दंड हो गए हैं कि इनके लिए कुछ कहने को मेरे पास तो शब्द ही नहीं हैं.लगता है, आजकल की हवा ही उद्दंड हो गई है। जिस लड़के को छूती है, उसी के पर निकल आते हैं।
बस आ गई थी। भीड़ का रेला बस की ओर दौड़ पड़ा था। इस रेलमपेल में दबी हुई मैं भी किसी तरह बस में चढ़ने में सफल हो गई थी। सारी सीट्स भर चुकीं थीं । खड़े रहने के सिवा कोई चारा न था। आगे एक प्रौढ़ सज्जन खड़े थे, सो उसी जगह को उपयुक्त समझ कर मैंने भी अपने लिए वहीं जगह बना ली थी। एक झटके के साथ बस चल पड़ी थी। इस बस का टाइम ऐसा था की साइंस कॉलेज वाले अधिकतर लड़के-लड़कियां इसी बस से जाते थे। ड्राइवर जब ब्रेक लगाता तो कुछ इस तरह कि बस को जोरदार झटका लगता , जिससे बस में खड़ा प्रत्येक व्यक्ति असंतुलन की अवस्था में आ जाता और इस समय पीछे खड़े लड़के मौके का फायदा उठाते हुए लड़कियों को अपने हाथ का सहारा दे लेते, जबकि आगे खड़े लड़कों पर लड़कियां ख़ुद ही जा गिरतीं। ड्राइवर को झटकेदार ब्रेक की ताकीद लड़कों की ही थी।

अचानक ही बस की रेलिंग पर कसे हुए अपने हाथ के ऊपर किसी दूसरे हाथ का स्पर्श पा मैंने देखा , तो उन्हीं प्रौढ़ सज्जन का हाथ था। वे पीछे खड़े किसी व्यक्ति से बातें कर रहे थे। उनका सर पीछे की ओर घूमा हुआ था। अनजाने में ही उनका हाथ आ गया होगा ऐसा सोचकर मैंने अहिस्ता से अपने हाथ को ज़रा आगे खिसका लिया था। लेकिन दो मिनट बाद ही उसी हाथ का स्पर्श मैंने फिर महसूस किया। पलट करब देखा ,तो वे सज्जन पूर्ववत बातें करने में मशगूल थे। हाथ हटाना चाहा तो उनके हाथ की पकड मजबूत हो गई, मेरे हाथ पर। घबरा के फिर उनकी ओर देखा तो उन्हें अपनी ओर घूरता पाया। एक जोरदार झटके के साथ मैंने अपना हाथ रेलिंग पर से हटा लिया, ये जानते हुए की हाथ हटाने से मैं ख़ुद असंतुलित हो जाउंगी। मैं उन तथाकथित 'सज्जन ' से कुछ भी कह कर बस में ख़ुद आकर्षण का केन्द्र नहीं बनना चाहती थी।
लड़कियों की यही तो त्रासदी है की लोग उन्हीं से छेड़खानी करते हैं और फिर यदि इसे वे ज़ाहिर करती हैं तो लोग उन्हें ऐसी नज़रों से देखते हैं, जिन्हें झेल पाना बड़ा मुश्किल होता है।

लेकिन इस व्यक्ति की हरकत पर मैं अचम्भित थी। कम से कम पचास वर्ष की उम्र तो होगी ही उनकी। फिर क्या किशोरवय के लिए की गई मेरी विवेचना ग़लत हो गई? किशोर होते लड़कों को तो उनका अपनी उम्र से होता नया-नया परिचय उद्दंड बना देता है, लेकिन इनके लिए क्या कहूं? ये तो वृद्धावस्था की ओर अग्रसर हैं!इस प्रकार क्या ये कभी अपनी मेरी ही उम्र की बेटी को कहीं अकेली भेज पायेंगे? क्या ये अपनी उम्र के लोगों पर विश्वास कर पायेंगे? ऐसे 'सज्जनों' की हमारे यहाँ कमी नहीं है , जो लड़कियों के आत्मबल का शमन करते हैं।

मैं अपने कॉलेज की अनुशासन-प्रिय व्याख्याता,बस की भीड़ में इतनी निरीह, दब्बू हो जाती हूँ कि बस के बाहर आकर समझ ही नहीं पाती की मैं इस तरह दोहरा व्यक्तित्व कैसे वहन करती हूँ। शायद उम्र पाने के बाद अपनी इस असहायावस्था से मुक्त हो सकूं।

उन 'सज्जन 'की हरकतों में कमी नही आई थी। वे निरंतर अपने कंधे का स्पर्श मेरे कंधे को दे रहे थे । और उन्हें एक झन्नाटेदार थप्पड मारने की मेरी इच्छा भी बलवती हो उठी थी। बस में भीड इतनी थी कि आगे भी नहीं जा सकती थी। तभी ज़रा आगे एक सीट खाली हुई, और वहां बैठी महिला ने मुझे बुला लिया। शुक्र है भगवान का, वरना थोडी ही देर में मै उस व्यक्ति को एक थप्पड रसीद कर ही देती। मेरा स्टॉप आ गया था। बड़ी राहत महसूस की थी मैंने।

बस के रुकते ही मैं अपने बैग को सम्हालती दरवाज़े की ओर बढी थी । आगे बैठे लडकों की नज़रें मैं अपने चेहरे पर स्पष्ट महसूस कर रहे थी. सिर नीचा किये मैं तेज़ी से नीचे उतर गई. दो कदम आगे बढने पर ही मुझे सुनाई दिया, कोई गा रहा था-
" उमर है सतरह साल इतनी लम्बी चोटी है...."
और मुझे खयाल आया कि आज देर हो जाने की वजह से मैने अपने लम्बे बालों की चोटी को नीचे से खुला ही छोड दिया था. मेरे हाथ यन्त्रवत चोटी लपेटने को उठे लेकिन नहीं अब और नहीं.... अब इस समय मैने उसे यों ही लहराने दिया, उद्दंड हवा के विरोध में.

रविवार, 4 अप्रैल 2010

मेरी पसंद....







हर सुबह को कोई दोपहर चाहिए,
मैं परिंदा हूं उड़ने को पर चाहिए।



मैंने मांगी दुआएँ, दुआएँ मिलीं
उन दुआओं का मुझपे असर चाहिए।



जिसमें रहकर सुकूं से गुजारा करूँ
मुझको अहसास का ऐसा घर चाहिए।



जिंदगी चाहिए मुझको मानी भरी,
चाहे कितनी भी हो मुख्तसर, चाहिए।



लाख उसको अमल में न लाऊँ कभी,
शानोशौकत का सामाँ मगर चाहिए।



जब मुसीबत पड़े, और भारी पड़े,
तो कहीं एक तो चश्मेतर चाहिए।



० कन्हैयालाल नंदन

मेरी पसंद....

मेरे हमराह मेरा साया है
और तुम कह रहे हो, तन्हा हूँ


मैं ने सिर्फ एक सच कहा लेकिन
यूं लगा जैसे इक तमाशा हूँ

* * * * * * * * * * *

आंधी से टूट जाने का खतरा नजर में था
सारे दरख्त झुकने को तैयार हो गए


तालीम, जहन, ज़ौक, शराफत, अदब, हुनर
दौलत के सामने सभी बेकार हो गए


फिर यूँ हुआ कि सबने उठा ली क़सम यहाँ
फिर यूँ हुआ कि लोग ज़बानों से कट गए

सर्वत एम. जमाल
______________


जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
हवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं


फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं

* * * * * * * * * * * *

ये चिंगारी दावानल बन सकती है
गर्म हवा में इसे उडाना, ठीक नहीं


देने वाला घर बैठे भी देता है
दर दर हाथों को फैलाना, ठीक नहीं

नीरज गोस्वामी
_______________

कुछ सपन लेके आगे सरकती रही
उड़ न पाई कभी परकटी जि़न्‍दगी।

* * * * * * * * * *

न तो मेरे ख़त का उत्‍तर, न शिकायत, न गिला,
क्‍या हमारे बीच में रिश्‍ता बचा कुछ भी नहीं।

सुब्‍ह से विद्वान कुछ, सर जोड़ कर बैठे हैं पर,
मैनें पूछा तो वो बोले मस्‍अला कुछ भी नहीं ।

* * * * * * * * * * * *

एक कपड़ा मिल गया तो खुश ये बच्‍चे हो गये,
इनके कद से भी बड़ी इनकी कमीज़ें देखिये।

तिलकराज कपूर.
________________


मुश्किलों में कोशिशें मत छोड़िये कुछ कीजिये
इन ही तदबीरों से बदलेगा मुकद्दर देखना

* * * * * * * * * * *

हां, मैं तुझसे हूं, मगर मेरा भी है अपना वजूद
पत्ते गिर जायेंगे तो, साया कहां रह जाएगा

* * * * * * * * * * *

सब दोस्तों को जान गया हूं ये कम नहीं
दुश्मन की कोई अब मुझे पहचान हो न हो

* * * * * * * * * * *

संदेश इनके प्यार का किसने चुरा लिया,
अंदेशा लेके आते हैं त्यौहार किसलिए ?

जब इसका इल्म था कि ये धोया न जायेगा,
मैला किया था आपने किरदार किसलिए ?

शाहिद मिर्ज़ा"शाहिद"
__________________



गर प्यार न हो तो, ये जहां है भी नहीं भी
होंगे न मकीं गर,तो मकां है भी नहीं भी

लब बंद हैं ,दम घुटता है सीने में ’शेफ़ा’ का
हक़ कहने को इस मुंह में ज़बां है भी नहीं भी

* * * * * * * * * * * *

जो किसी के काम ही आए नहीं
हैफ़ ऐसी ज़िंदगी बेकार है,

भूल जाए गर ’शेफ़ा’ एख़्लाक़ियात
फिर तो तेरी ज़हनियत बीमार है

* * * * * * * * * *

मैं ने गर दे भी दिए सारे सवालों के जवाब
फिर भी कुछ ढूंढेंगे अह्बाब मेरी आँखों में

* * * * * * * * * * *
उलझ न जाए कहीं दोस्त आज़माइश में
कि ख़्वाहिशें कभी तुम बेशुमार मत करना

इस्मत जैदी "शेफा कजगांववी"
____________________



उम्र भर फल-फूल ले, जो छाँव में पलते रहे
पेड़ बूढ़ा हो गया, वो लेके आरे आ गए

* * * * * * * * * * * *
कठिन घड़ी हो, कोई इम्तिहान देना हो
जला के रखती है राहों में, माँ दुआ के चराग़

* * * * * * * * * * * *
अज़ीब शख़्स था, आँखों में ख़्वाब छोड़ गया
वो मेरी मेज़ पे, अपनी किताब छोड़ गया

* * * * * * * * * * * *
गर इजाज़त दे ज़माना, तो मैं जी लूँ इक ख़्वाब
बेड़ियाँ तोड़ के आवारा हवा हो जाऊँ
श्रद्धा जैन
____________________

जिसकी जड़ें ज़मीन में गहरी उतर गईं
आँधी में ऐसा पेड़ उखड़ता नहीं कभी

मुझसा मुझे भी चाहिए सूरज ने ये कहा
साया मेरा ज़मीन पे पड़ता नहीं कभी

* * * * * * * * *

बुझा रही है चराग़ों को वक़्त से पहले
न जाने किसके इशारों पे चल रही है हवा

गोविन्द गुलशन
_______________

सौदा हुआ तो क्या हुआ दो कौड़ियों के दाम
सस्ता न इतना ख़ुद को बना दें तो ठीक है

* * * * * * * * * *

फुरसत मिले तो इनको ज़रा पढ़ भी लीजिए !
कुरान, बाईबल और गीता हैं बेटियां !!

नन्ही कली ओ बादे-सबा 'दर्द' की गज़ल !
क्या-क्या बताऊं आपको क्या-क्या हैं बेटियां !!
दर्द शुजालपुरी
________________