शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

अहसास

"बडकी, टेबल पे नाश्ता तो लगा दो; बारात लौटने से पहले सब कम से कम नाश्ता ही कर लें....."

"बडकी ...... बड़ी जीजी को गरम पानी नहीं दिया क्या? कब नहायेंगीं ? बारात आने ही वाली है.........."

"बडकी....परछन का थाल तैयार किया या नहीं ?.....दुल्हन दरवाजे पर आ जायेगी तब करोगी क्या?"

बडकी -बडकी-बडकी............सबको बस एक ही नाम याद रहता है जैसे......... मेहमानों से ठसाठस भरे इस घर में काम की ज़िम्मेदारी केवल बडकी की...... मशीन बन गई है बडकी जब से छोटे देवर अभय की शादी तय हुई....


शादी भी ऐसे आनन-फानन की कुछ सोचने - प्लान करने का वक्त ही नहीं.... वैसे बडकी यानि बड़ी बहू अलका को कुछ प्लान करने का हक़ ही कहाँ है ? उसके हिस्से में तो केवल कर्तव्य ही आया है। छोटे घर की है न!! इन बड़े घर के लोगों के सामने कुछ भी बोलने का अधिकार है ही कहाँ उसके पास ? जब से आई है, तब से केवल हिदायतें ही तो मिल रहीं हैं । रस्मो-रिवाज़ सीखते -सीखते पाँच साल गुज़र गए....फिर भी अम्मा जी को लगता है किवह कुछ सीख ही नहीं पाई।

क्या पहनना है, क्या बोलना है, क्या बनाना है, कैसे बनाना है, सब अम्मा जी ही तो तय करतीं हैं । उसका अपना अस्तित्व तो जैसे कुछ रह ही नहीं गया ............. । यहाँ तक कि अपना नाम भी भूल गई है .........बस "बडकी" बन के रह गई है। .......भूल गई है कि कभी कॉलेज कीबेहतरीन छात्राओं में से एक गिनी जाती थी वह । भूल गई है, कि उसके सलीके, उसके पहनावे , उसके बातचीत के तरीके और उसकी बुद्धिमत्ता के कभी लोग.............. । उसके अपने घर में उसकी सलाह महत्वपूर्ण मानी जाती थी।

लेकिन यहाँ ?? यहाँ तो उसे ख़ुद आर्श्चय होता है अपने आप पर। कैसा दब गया है उसका व्यक्तित्व! लगता जैसे नए सिरे से कोई मूर्ति गढ़ रहा है। ये वो अलका तो नहीं जिसका उदाहरण उसके शहर की अन्य माँएँ अपनी बेटियों को दिया करतीं थीं।

पाँच बरस हो गए अलका की शादी को , लेकिन आज भी नई-नवेली दुल्हन की तरह सर झुकाए सारे आदेश सर-माथे लेने पड़ते हैं। पाँच साल पहले की अलका कितनी खुशनुमा थी। एकदम ताज़ा हवा की तरह। उसकी खनकदार आवाज़ गूंजती रहती थी घर में। गुनगुनाते हुए हर काम करने की आदत थी उसकी। और इसी आदत पर बबाल हो गया यहाँ।

"घर की बड़ी बहू हो । ज़रा कायदे से रहना सीखो। क्या हर वक्त मुजरा करती रहती हो.... । "

मुज़रा !!! बाप रे!!!! सन्नाटे में आ गई थी अलका। नहीं। अब नहीं गाऊँगी। बस! तब से गुनगुनाना भी बंद।

अलका को चटख रंग कभी पसंद नहीं आते थे। एकदम हलके पर खिले खिले से रंग उसे खूब पसंद थे। ऐसे ही रंगों की बेहतरीन साडियां भी उसने खरीदीं थीं अपनी शादी के समय। तमाम रस्मों के दौरान भारी साडियां ही पहने रही थी, लेकिन तीन - चार दिन बाद थोड़ा हल्का महसूस करने के लिए अपनी पसंद की साड़ी पहनी और कमरे से बाहर आई तो अम्मा जी ने ऐसे घूरना शुरू किया जैसे पाता नहीं कितना बड़ा अपराध हो गया हो उससे। छूटते ही बोलीं-

" ये क्या मातमी कपड़े पहने हो ? हमारे यहाँ ऐसे कपड़े नई बहुएँ नहीं पहनती कोई देखे तो क्या कहे? जाओ। बदल कर आओ। अब यहाँ के हिसाब से रहना सीखो। "

तब से ले कर आज तक उन्हीं की पसंद की साडियां पहनती चली आ रही है।

सुबह की सब्जी शाम को भी खाई जाए अलका को ये बिल्कुल पसंद नहीं। फिर जिसे खाना हो खाए, अलका तो नहीं ही खायेगी। पूरे खाने का स्वाद ही ख़त्म हो जाता है जैसे .......................यहाँ अक्सर ही ऐसा होता है। सुबह दो सब्जियाँ बंबई जातीं ज़ाहिर है बच भी जायेगी। ऐसे में अपनी कटोरी में ज़रा सी सब्जी ले लेती अलका उसी में किसी प्रकार निगलती खाना.....इसी बात पर सुना एक दिन अम्मा जी कह रहीं हैं-

" इसे तो सब्जी खाने की आदत ही नहीं है। पता नहीं...... शायद मायके में सब्जी बनती ही न रही होगी इसी लिए सब्जी खाने की आदत ही नहीं है॥"

तब से रोज़ अनिच्छा से सही, बासी सब्जी खा रही है अलका....... ।

आधुनिकता का झूठा लबादा ओढे अलका की ससुराल में एलान हुआ था - ' हमारे यहाँ सब एक साथ खाना खाते हैं" अच्छा लगा था उसे। लेकिन जब खाना खाने बैठे तो बगल में बैठी अम्मा जी ने टोका-

" बडकी ज़रा पल्लू खींच लो। तुम्हारे बाल दिखाई दे रहे हैं। पल्लू माथे तक रहना चाहिए, बालों की झलक न मिले।"

मन बुझ गया था अलका का। पिता समान ससुर के सामने इतनी वर्जनाएं क्यों ? फिर अगर ऐसा ही है तो साथ में खाना खाने की ज़रूरत ही क्या है?
अलका के पति रवि सुदर्शन ; सुशिक्षित हैं लेकिन किसी बड़े नामचीन पद पर आसीन नहीं हैं। बस इसीलिए अलका भी घर में सम्मानित जगह नहीं पा सकती । छोटा देवर इंजीनियर है , साल में एक-दो बार आता है , अम्मा जी के लिए साड़ी और छिट-पुट सामान ले आता है चार दिन रहता है सो जी खोल कर खर्च करता है। इसीलिए बहुत अच्छा है। घर में उसकी इज्ज़त भी रवि से कई गुना ज़्यादा है।
इसी अभय की शादी हो रही है। बारात बस आती ही होगी। किन-किन ख्यालों ने घेर लिया था अलका को......... । सर झटक के उठ खड़ी हुई अलका।

" नानी बारात आ गई............"
"बुआ जल्दी चलो, नई दुल्हन आ गई है..........."
" अरे बडकी मामी, तुम भी चलो न!!......

तुम भी? मतलब चलो तो ठीक है नही चलो तो भी ठीक है ।
पर्दे पर तो कलाकार ही दिखते हैं ना,परदे के पीछे
उस दृश्य को तैयार करने में जुटने वाले लोग और उनकी मेहनत किसे दिखती है ? उनका तो कोई नाम भी नही जानता। ठीक यही हाल अलका का है। पूरी तैयारी उसी ने की है लेकिन कोई ये कहने वाला तक नही कि अलका ने बड़ी मेहनत की।
नई बहु का परछन हो रहा है,सास ने अपने गले की तीन तोले की चेन उतार कर बहु को पहना दी। एक -एक कर सारे रिश्तेदारों ने रस्म अदा की। बडकी के साथ भी ये ही सारी रस्में हुई थी लेकिन सास ने क्या दिया था? मुश्किल से चार ग्राम के कान के बुन्दे !!

खैर... अलका बहुत ज़्यादा नही सोचती इस बारे में । लेकिन सोचने की बात तो है न!!
" नई दुल्हन को बैठने तो दो........."

" हटो भीड़ मत लगाओ रे............"

" थोड़ा आराम कर ्लेने दो, फिर बात करना....."
किसी किसी प्रकार बच्चा पार्टी नई दुल्हन के पास से हटी।

घर में सुबह सबसे पहले उठने की जिम्मेदारी बडकी की ही है। उठकर किचन में सबके लिये चाय चढाना।
फ़िर सारे रिश्तेदारो तक पहुंचवाना भी एक बड़ा काम था। आज भी बडकी आदत के अनुसार छ्ह बजे उठकर नीचे उतर आई थी, उसने देखा, नई बहु का कमरा अभी बंद था। राहत की एक लम्बी सास ली उसने। पता नहीं क्यों उसे लग रहा था, कि यदि नई बहु उससे पहले उठ गई,तो उसे दिए जाने वाले तमाम,ताउम्र उदाहरणॊं में ये भी शामिल हो जायेगा। शादी के बाद उसे पहले ही दिन उठने में साढे छह बज गये थे, और तब से लेकर आज तक सैकडॊं बार उसे यह बात सुनाई जा चुकी है। उसकी नींद को लेकर फ़ब्ब्तियां कसी जाती रह्ती हैं। बस इसलिये नई दुल्हन का दरवाजा बंद देख उसे ऐसा लगा,जैसे कोइ बहुत बडा बोझा उसके सर से उतर गया हो।


टॆबल पर अम्मा जी और कुछ अन्य लोगों की चाय लगा दी थी बड्की ने। पौने सात बजे छोटी बहु किरन बाहर निकली। अपने नाइट गाउन के ऊपर ही दुपट्टा ओढ कर छोटी किचन में आई।

"हाय भाभी! गुड मोर्निंग। दो कप चाय मिलेगी क्या?"

बड्की ने तत्काल दो कप चाय ट्रे में रख दी। उसे लग रहा था, कि एक तो छोटी देर से उठी उस पर गाउन पहने ही बाहर चली आयी, और अब दो कप चाय लेकर वापस जा रही है। अम्मा जी से मिली भी नही, गाउन पहने है शायद इसलिये ........ ।

लेकिन ये क्या,सुना बड्की ने मगर कानों पर भरोसा नहीं हुआ। अम्मा जी भी कह रही थी छोटी से

" अरे छोटी इतनी जल्दी क्यों उठ गयी? जाओ थोडा और आराम कर लो। कोइ काम तो करना नही है---। "

हैं!! ये क्या वही अम्मा जी हैं?? अचम्भित है बड्की.... ।

न उसके बैठने पर कुछ कहा न उसके कपडो पर..... ।

अगले दो दिन फ़िर भारी व्यस्तता से भरे थे। रिसेप्शन के बाद मेहमानों की विदाई और घर व्यवस्थित करने में ही पांच दिन निकल गये। आज कुछ राहत मिली तो बड्की अपने कमरे में लेट गई। सोचा लंच में तो अभी देर है, थोडा आराम ही कर लूं। तभी जोर से खिलखिलाने की आवाज ने उसे चौका दिया-उठ कर देखा तो छोटी मेज पर खाना लगा रही थी, और चह्कते हुए पापा यानी ससुर जी को बता रही थी कि उसने क्या-क्या बनाया है। और सास जी? वो भी भाव-विभोर हो कर उसकी बातें सुन रही थी।

समझ में ही नही आया बड्की को ;क्या हो रहा है। ये दो तरह का व्यव्हार क्यों? उस पर इतनी पाबंदियां और छोटी पर??

शाम को फ़िर छोटी सास जी से जिद कर रही थी, बच्चों की तरह-

"चलिए मम्मी जी.... आइसक्रीम खाने चलेंगे........... । "

अलका की आखों में भय और अचरज का भाव देखकर तुरन्त अम्माजी बोलीं-" अरे छोटी है न...

इसलिये , अरे ओ अभय तू ही खिला ला आइसक्रीम। मैं तो न जा पाऊगीं"

रवि से कभी कहा उन्होनें, कि बड्की को आइसक्रीम खिला ला? उसे घूमना अच्छा नही लगता क्या?

और पूरे दस दिन बाद ही छोटी सूट पहनकर खडी थी, जिसे पहनने की हिम्मत अलका पांच सालों में भी नही कर पायी। और अम्मा भी
"हो गया छोटी है पहनने दो । बडॊ को शोभा नही देता सो तुम न पहनना बड्की। "

" बडो को? मैं कितनी बडी हूं, उससे केवल दो साल न?

छोटी ने तो रोज़ का रुटीन बना लिया था, घूमने का। सुबह भी कुछ बनाने का मन हुआ तो ठीक है नही तो नहीं। दोनों टाइम का खाना बड्की के सिर पर..... ।

कहीं भी जाना है तो इठलाकर पूछ्ती थी जाऊं न मम्मा??

और अम्माजी गद गद हो जाती। तुरन्त कह्ती-

" हां हां जाओ न। खाना बड्की बना लेगी। "

पता नही अम्मजी के जुबान पर किसने ताला डाल रखा था, अभय की नौकरी ने या दहेज में आये चार लाख रुपयों ने......... ।

लेकिन नही अब नहीं। अगर एक बहू के लिये अम्माजी इतनी दरियादिल और आधुनिक हो सकती हैं,तो उन्हें दूसरी के साथ भी यही रवैया अपनाना होगा। बस अब बहुत हुआ।

यदि रवि अपनी और अपनी पत्नी की स्थिती पर कुछ नही बोल सकते तो अब बड्की को ही आवाज उठानी होगी। अब कल से बड्की अपनी तरह से जियेगी। सबसे पहले उन संस्थानों में आवेदन करेगी जिन्हें उसकी ज़रूरत है।

कितना हल्का महसूस कर रही है बड्की...............

आज चैन की नींद सोयेगी अलका...... ।







36 टिप्‍पणियां:

  1. घर-घर में बड़की हैं! सुन्दर कहानी। बहुत अच्छा लिखा। बधाई!

    जवाब देंहटाएं
  2. Bahut achcha kiya badki ne....... par yeh badki ka vidroh nahi hai........ yeh uska adhikaar hai.........

    kahani bahut achchi lagi....... ant tak kahani ne baandh kar rakha......

    जवाब देंहटाएं
  3. बड़की का यह विद्रोह उचित है लेकिन वह क्या इसका निर्वाह कर पायेगी यह तो उसे ही सोचना है । यह एक अच्छी कहानी है , इस कहानी मे जो निहितार्थ है उस पर थोड़ और विस्तार चाहिये था ।

    जवाब देंहटाएं

  4. पाठकों को अपने पात्रों से एकाकार कर लेने वाला वर्णन, किन्तु कथोद्देश्य को हल्का भी कर रहा है ।

    जवाब देंहटाएं
  5. सुन्दर प्रवाह पूरी रचना मे. बडकी के अंतर्द्वन्द और मानसिक स्थिति का सुन्दर निवाह है.

    जवाब देंहटाएं
  6. मैं एक बड़की को जानता हूं। वह मुखर हुई है और सारा परिदृष्य बदल गया है वहां!

    जवाब देंहटाएं
  7. badki ke mann ki kashmakash,sunder tarike se bayan huyi hai,bahut achhi kahani.

    जवाब देंहटाएं
  8. बडकी जहाँ चुप बैठी उस घर का बंटाधार हुआ समझो ! संतोष हुआ यह सुखान्त कथा है -इस सुन्दर कथा वाचन (लगा सुना रहीं हो )के लिए बहुत आभार !

    जवाब देंहटाएं
  9. सुन्दर रचना। बाधँकर रखने मे सफल हुयी है आप । बधाई

    जवाब देंहटाएं
  10. Aksar shaadi ke baad stree ka astitva kahin kho sa jaata hain.
    par yeh bhi sach hain ki jhukne walon ko hi jhukaya jaata hain

    जवाब देंहटाएं
  11. अधिकतर घरों में बडकी मिल जाएगी। हां, बडकी के अहसास का पैमाना वक्त दर वक्त बदलता रहता है। कभी उसे जल्दी एहसास हो जाता है तो कभी उम्र बीतने के बाद।

    बहुत सुंदर कहानी।

    जवाब देंहटाएं
  12. सुन्दर कहानी। बहुत अच्छा लिखा। बधाई!

    जवाब देंहटाएं
  13. vandanaji bahut sundar ,nape tule aur asan shabdon men likhi gayi mukammal kahani,jo bahut si yuvtiyon ke dard ko bayan karti hai.

    जवाब देंहटाएं
  14. सुन्दर कहानी। बहुत अच्छा लिखा....

    जवाब देंहटाएं
  15. समाज की एक दकियानूसी हकीकत बयान करती कहानी ।

    पारिवारिक बन्दिशों की वजह से बहुतायत महिलायें काबिलियत के बावजूद चाहकर भी कुछ नहीं कर पातीं ।

    कुछ परिवार तो शादी से पहले ही नौकरी न करवाने की शर्त रख देते हैं ।

    जवाब देंहटाएं
  16. ghar ghar ki khani kh di aapne to .
    bahut sundar shaili ke sath .
    par ab bdkiyo ko mukhar hona hi hoga .badhai

    जवाब देंहटाएं
  17. aap to likhati hi achchha hai .sundar rachna .aah ko chahiye ek umra asar hone tak .baaki sab ne kah diya .

    जवाब देंहटाएं
  18. कथा की तारीफ के लिए शब्द नहीं मिल रहे हैं. आपने घरों में चलने वाली राजनीति का गहन अध्ययन किया है और मनोविज्ञान का भी. कथा का अंत आपने ऐसी सुखद आशा के साथ किया जो हर पीड़ित बहू के लिए आदर्श है.

    जवाब देंहटाएं
  19. आपकी कहानी पढ़ कर ऐसा लगा जैसे किसी के घर पर सब कुछ अपने आगे होता हुआ देख रही हूँ
    sunder rachana

    जवाब देंहटाएं
  20. आपने बहुत सुन्दर कहानी लिखी है. आप कहती है कि मै आपके ब्लॉग पर नहीं आता ,ऐसी बात नहीं है,मै आपके ब्लॉग पर आता रहता हूँ,बस मैंने टिप्पणी नहीं लिखी है, इसके लिए मै आपसे माफ़ी मांगता हूँ. अब ऐसी गलती न करूँगा.

    जवाब देंहटाएं
  21. माफी चाहूँगा, आज आपकी रचना पर कोई कमेन्ट नहीं, सिर्फ एक निवेदन करने आया हूँ. आशा है, हालात को समझेंगे. ब्लागिंग को बचाने के लिए कृपया इस मुहिम में सहयोग दें.
    क्या ब्लागिंग को बचाने के लिए कानून का सहारा लेना होगा?

    जवाब देंहटाएं
  22. वन्दना जी!
    आपकी कहानी "अहसास" इतनी भाव-प्रणव है कि
    बिना रुके ही पूरी की पूरी पढ़ गया।
    बहुत-बहुत बधाई!

    जवाब देंहटाएं
  23. पूरे माहौल को समेट दिया बधाई

    दीप सी जगमगाती जिन्दगी रहे
    सुख-सरिता घर-मन्दिर में बहे
    श्याम सखा श्याम

    http://gazalkbahane.blogspot.com/

    जवाब देंहटाएं
  24. BAhut achchi kahani.... Jivan ke marm ko sahj sabdo me bahut sundar dhala hai aapne...

    Regards...

    जवाब देंहटाएं
  25. वन्दना जी,
    सचमुच कितना मुश्किल है,
    परम्पराओं में बंधे रहना,
    और इन्हे तोड पाना?
    शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

    जवाब देंहटाएं
  26. सुन्दर अभिव्यक्ति लिए हुए एक सार्थक कहानी.. बधाई!

    जवाब देंहटाएं
  27. आज फिर आ गया हूँ, लगता है मेरी काहिलियत छूत का रोग बनकर दूसरों को भी शिकार बना रही है. २ अक्टूबर की कहानी २६ अक्टूबर तक जिंदा है, मेरी बात के जीते जागते सबूत की शक्ल में. आप युवा हैं, आपको अपना नहीं तो हम जैसों का ख्याल करना चाहिए जो कुछ अच्छा पढ़ने की तलाश में इस ब्लॉग तक आते हैं और सदा लगाकर लौट जाते हैं. मैं पुरानी पोस्ट की गयी गज़लों के लिए समर्थन जुटा रहा हूँ, अगर मेरी तरह आलस घेर रहा हो तो आप भी मेरे सुर में सुर मिलाएं.

    जवाब देंहटाएं
  28. आपकी टिप्पणियों के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
    बहुत बढ़िया कहानी लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! इस बेहतरीन और शानदार पोस्ट के लिए बधाई!

    जवाब देंहटाएं
  29. बिलोम और अज्ञात
    नामक कविता ह्र्द्याश्पर्शी हैं.

    जवाब देंहटाएं
  30. बहुत प्रभावी प्रस्तुति
    http://hariprasadsharma.blogspot.com/

    जवाब देंहटाएं
  31. सुन्दर एंवम रुचिकर कहानी।

    विन्नी

    जवाब देंहटाएं