मंगलवार, 15 जून 2010

नीरा जाग गयी है....

आज फिर घर में बड़ी चहल-पहल थी. पूरा सामान उलट-पुलट किया जा रहा था. पापा व्यस्त थे. माँ व्यस्त थीं. छोटी बहनें चहक रहीं थीं, बस नीरा चुप थी. देख रही थी चुपचाप . किसी ने कोई काम बताया तो कर दिया, बस इतना ही. सबके चेहरों पर ख़ुशी थी , लेकिन नीरा का चेहरा शांत था. सरोकारहीन, निर्लिप्त सी घूम रही है.कभी इधर तो कभी उधर. वैसे किसी को इस बात का ख़याल भी नहीं था कि नीरा कहाँ है, क्या कर रही है? जबकि ये सारा सरंजाम उसी के लिए किया जा रहा था.
चुपचाप बालकनी में आ गई नीरा.
नीरा, जो शहर के सरकारी हायर सैकेंडरी स्कूल के प्राचार्य सुशील पांडे की बेटी है, नीरा, जिसकी माँ बेहद सुघड़ और शालीन है, लेकिन अब परिस्थितिवश नीरा पर झुंझला उठती है. नीरा, जिसकी दो छोटी बहने और एक भाई है, जो उसे बहुत प्यार करते हैं, लेकिन अब जो स्थितियां घर में बन रहीं हैं, जो तनाव घर में छाया रहता है, उसके लिए नीरा को ही दोषी मानने लगे हैं.
और नीरा???
यह वही लड़की है, जिसने चार साल पहले जीवविज्ञान में एमएससी किया है, जिसने शुरू से लेकर अंत तक सारी परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की हैं, और बीएड करने के बाद एक प्रायवेट स्कूल में २००० रुपयों की नौकरी कर रही है, अब छब्बीस साल की हो गई है, लेकिन अभी तक उसकी शादी नहीं हो सकी है.
बस!!! सारी चिंताओं की जड़ यही है.
नीरा साधारण शक्ल-सूरत की लडकी है लेकिन आकर्षक है. रंग थोडा दबा हुआ लेकिन चमकदार है, फिर भी अब तक जितने भी रिश्ते आये , सब दबे हुए रंग और साधारण सूरत के चलते वापस हो गए. सब के सब घर जा कर जवाब देने की बात कह कर गए और चुप्पी साध गए. पहली बार नीरा के पापा ने फोन करके लड़के वालों का जवाब जानना चाहा था, लेकिन उसके बाद जब भी लड़के वाले बिना जवाब दिए गए, पांडे जी उनका जवाब खुद ही समझ जाते.
पहली बार के इन्कार पर पांडे जी ने लड़के वालों की लानत-मलामत की. उन्हें नादान और इंसान को परखने में अक्षम बताया. दूसरी बार परेशान हुए, लेकिन तीसरी बार तो सीधा निशाना नीरा पर ही साधा. पता नहीं कितनी तरह से अयोग्य ठहराया गया उसे.
बालकनी में घूमती नीरा के दिमाग में केवल पिछली घटनाएं ही घूम रहीं हैं. अब तो इन लड़के वालों के नाम से दहशत सी होने लगी है उसे. एक तो कितनी बार उसने माँ से कहा है कि उसका मेकअप न किया करें. उसका चेहरा ऐसे बिना किसी प्रसाधन के ज्यादा अच्छा लगता है. लेकिन माँ मानती ही नहीं.
कभी भी झूठ का सहारा न लेने वाले माँ-पापा लड़के वालों के सामने धड़ल्ले से झूठ बोलते दिखाई देते हैं अब तो..............." ये कुशन इसी ने बनाए हैं...." बुनाई में तो बहुत होशियार है हमारी नीरा......"
" तरह-तरह के व्यंजन बनाने का बहुत शौक है नीरा को..."
" ये कचौरियां उसी ने बनाई हैं......."
जबकि सच तो ये है कि नीरा को कढाई के नाम पर केवल चेन-स्टिच आती है . नाश्ते जो लोगों को पेश किये जाते हैं, उनमें कुछ भी उसका बनाया नहीं होता.फिर फूलचंद भाजियावाले जैसे समोसे-कचौड़ी नीरा तो क्या कोई भी कुशल गृहिणी नहीं बना सकती. पूरे शहर में प्रसिद्धि है, इन समोसों-कचौरियों की . वो तो लड़के वाले बाहर से आते हैं इसलिए समझ नहीं पाते, वर्ना इस शहर के लोगों की तो जुबान पर स्वाद चढ़ा है इनका. एक बार में पहचान जाएँ......
और बुनाई???? बुनाई के नाम पर नीरा केवल उल्टा-सीधा बुन सकती है, वो भी तब तक जब तक स्वेटर में कुछ घटाने की बारी न आये. पिछली बार माँ राहुल का स्वेटर बना रहीं थी. पीछे का पल्ला नीरा को पकड़ा दिया था. नीरा ने किताब पढ़ते-पढ़ते जो बुनाई की, तो दो फंदे ऐसे छोड़ दिए, जिन्होंने पूरी बुनाई ही उधेड़ के रख दी. तब से लेकर आज तक माँ ने बुनाई के नाम पर नीरा को ऊन तक नहीं पकडाया होगा.
थक गई है नीरा ये झूठी बातें सुनते-सुनते. कितनी बार उसने माँ-पापा से कहा है कि उसकी झूठी तारीफें न किया करें. उसे पढने का शौक है, लिखने का शौक है, म्यूज़िक का शौक है, लेकिन ये सारी चीज़ें तो होने वाली बहू के गुणों में शामिल नहीं हैं न!! बस इसीलिये उसके इन गुणों का ज़िक्र तक नहीं किया जाता.
एक अच्छी बहू के गुण हैं- गोरा रंग, खूबसूरत चेहरा, नज़रे हमेशा नीची रखने वाली, हर बात सिर झुका के मानने वाली, पलट के जवाब न देने वाली, अपने विचार स्वयं तक सीमित रखने वाली, और हर कार्य में दक्ष .
लेकिन नीरा तो ऐसी नहीं है.एक बहू के लिए निर्धारित इन तथाकथित गुणों में से एक भी नहीं है उसमें. गलत बात तो नीरा को बर्दाश्त ही नहीं होती. किसी की भी हाँ में हाँ मिलना तो उसने सीखा ही नहीं है. अपने बेवाक विचारों की प्रस्तुति के कारण ही कॉलेज में उसका अच्छा प्रभाव था. वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हमेशा प्रथम स्थान मिलता रहा है उसे. कितने सर्टिफिकेट, कितने मेडल, कितने ईनाम...........लेकिन सब बेमानी. सब बेकार. पिछली बार यही तो कह रहे थे पापा-
" इनामों को चाटेंगे क्या ससुराल वाले? इसे कुछ घर का कामकाज सिखाओ भाई"
माँ ने भी जैसे पापा के आदेश को सिर-माथे लिया था. रसोई का हर छोटा-बड़ा काम सिखाने की कोशिश करतीं. हालाँकि इतनी मूर्ख नहीं थी नीरा. घरेलू काम काफी कुछ आते हैं उसे. सुघड़ तो है ही. काम चलाने लायक खाना भी बना लेती है. घर को सजा-संवार के रखना उसे अच्छा लगता है. बहुत सलीके से बातचीत करना आता है उसे. अगर फ्री हो के किसी मसले पर चर्चा करती है, तो सामने वाला हमेशा प्रभावित होता है उससे.
लेकिन लड़के वालों के सामने तो सिर झुकाए केवल हाँ में जवाब देते बैठे रहना पड़ता है उसे. कई बार तो उसकी मौजूदगी में हो रही सामजिक या राजनैतिक चर्चाओं में अपने विचार व्यक्त करने के लिए कसमसाती रह गई है वह. हमेशा " बिना मुंह की बिटिया है हमारी " जैसे पापा के स्लोगन का सिर झुका के पालन करती रही है, नीरा.
कितनी बार माँ-पापा से कहा है उसने कि अब ये दिखने-दिखाने का कार्यक्रम बंद करें. तीन बार रिजेक्ट हो चुकी है वह. अब बस. लेकिन ये लोग मानते कहाँ हैं?
" क्यों ? घर में बैठे रहने का इरादा है क्या?"
" छोटी बहनों का ख़याल नहीं है?"
"लोग क्या कहेंगे?"
जैसे जुमले अब बोलने के पहले ही उसे सुनाई देने लगते हैं. अब आज एक बार फिर घर संवारा जा रहा है. पापा इस बार कुछ ज्यादा ही खुश हैं. उन्हें जैसे पक्का भरोसा है कि बात बन ही जायेगी.
फिर पर्दे बदले जा रहे हैं. कुशन बदले जा रहे हैं. नई क्रॉकरी निकली गई है. राहुल को बता दिया गया है कि समोसे-कचौड़ी कब लाने हैं. मिठाई आ गई है.
पता नहीं कहाँ से आ रहे हैं ये लोग. शायद लखनऊ से. पहले तो नीरा को सब बताया जाता था, लेकिन इस बार तो लड़के कि फोटो तक नहीं दिखाई. सोचते होंगे, मना तो होना ही है, पूरा डिटेल बताने से क्या फायदा? नीरा ने भी इसीलिये कोई रूचि नहीं दिखाई, विवरण जानने में.
सोनी आ के नीरा को तैयार होने को कह गई है. शायद मेहमान आने ही वाले हैं. माँ आईं, आते ही, कैसे तैयार होना है, बता गईं. साडी-जेवर सब निकाल कर पलंग पर रख गईं हैं.
नहीं पहनेगी नीरा ये चमकदार साडी. नहीं पहनेगी इतने सारे जेवर. उकता गई है इस सारे दिखावे से. कितनी ही बार इन्ही जेवरों और ऐसी ही साड़ियों में पेश की जा चुकी है. आज तो नहीं ही पहनेगी. अपनी पसंद की हलके गुलाबी रंग की साडी और हल्का सा जेवर पहन लिया है उसने. आज कुछ भी उल्टा-सीधा बर्दाश्त नहीं करेगी नीरा. तय कर लिया है उसने.
नीचे से बुलावा आया तो नीरा चल दी ड्राइंगरूम की तरफ. पापा पिछले अनुभवों और आदत के मुताबिक़ नीरा की खूबियों का बखान करने में व्यस्त थे.
ड्राइंगरूम में आ गई थी नीरा.
"बैठो बेटी"
बैठ गई नीरा. धीरे से प्रस्तावित लड़के को देखने की कोशिश की. अरे बाप रे!!!! ये लड़का है? इतना उम्रदराज़??? क्या हो गया है पापा को? क्या सचमुच बोझ बन चुकी हूँ मैं?? सोचा नीरा ने. न. अब तो किसी की ज़बरदस्ती बर्दाश्त नहीं करेगी नीरा.
" बेटी क्या कर रही हो आजकल?"
" जी, पापा ने नहीं बताया?"
उलटे सवाल से हडबडा गईं तथाकथित लड़के की माता जी.
" कढाई, बुनाई, सिलाई, कुछ आता है?"
"नहीं:
"मगर तुम्हारे पापा तो बता रहे थे......"
"गलत बता रहे थे. यहाँ जो भी कुशन या टेबिल-क्लॉथ दिखाई दे रहे हैं, उन्हें मेरा बनाया न समझें. ये सब बाज़ार से
खरीदे गए हैं."
भावी वधु के जवाब से तिलमिलाई माताजी समझ ही नहीं पा रहीं थीं कि क्या पूछें?
" खाना बना लेती हो?"
"नहीं. बस दाल-चावल या एक-दो सब्जियां बना लेती हूँ. आप इसे काम चलाऊ कह सकतीं हैं लेकिन स्पेशल डिशेज़ बनाना मुझे नहीं आता. "
"मगर तुम्हारे पापा तो बता रहे थे..........'
"गलत बता रहे थे. ये समोसे-कचौड़ियाँ तो फूलचंद भजिया वाले के यहाँ से आये हैं. इतना अच्छा नाश्ता बनाना मुझे नहीं आता. "
हताशा भरा अंतिम सवाल आया माता जी का-
" जब ये सब घरेलू काम तुम्हें नहीं आते, इनका शौक ही नहीं है तुम्हें, तो फिर आखिर शौक किस चीज़ का है?"
" मुझे पढने, लिखने , खेलने, और अच्छा- अच्छा खाना खाने का शौक है. और अगर कोई कुछ सिखाए तो उसे सीखने का भी शौक है"
" मगर तुम्हारे पापा तो कह रहे थे कि तुम गाना......"
" गलत कह रहे थे. मुझे खुद गाने का नहीं, गाने सुनने का शौक है."
हक्के-बक्के से लड़के वाले एक-दूसरे की तरफ देख रहे थे और पापा? क्रोध नहीं था उनके चेहरे पर......कुछ राहत ही नज़र आ रही थी वहां भी.....शायद उम्र पाया दामाद उन्हें भी पसंद नहीं था.
पापा और माँ को शायद शर्मिंदा किया था नीरा ने लेकिन भविष्य में लगने वाली अपनी उस नुमाइश का अंत कर दिया
था उसने , जो लड़के वालों के इंकार के बाद नीरा को शर्मिंदा करती थी........लेकिन अब नहीं. अब नीरा जाग गई है.

54 टिप्‍पणियां:

  1. डा.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava)15 जून 2010 को 12:46 pm बजे

    सुन्दर....

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  2. शानदार, बल्कि बहुत ही शानदार पर शायद लम्बी ज्यादा हो गई। खैर अच्छी रचना के लिए बधाई।

    http://udbhavna.blogspot.com

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  3. बहुत सुंदरता से लिखी है कहानी ...बहुत बढ़िया.

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  4. अंतिम पंक्ति: अब नीरा गई है.?


    कहानी बहुत उम्दा है.अच्छा लगा पढ़कर.

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  5. अंतिम पंक्ति फिर से देखें -कहानी नीरा के चरित्र चित्रण के कारण तो पसंद नहीं आयी हाँ लोग अपने बच्चों के बारे में जो बेसाख्ता झूंठ बोलते हैं इस कारण यादगार बन सकती है -जिस पर लेखिका का उचित ही गहरा कटाक्ष है -नीरा को कुछ तो सीख ही लेना चाहिए अगर उसका अभीष्ट गृहिणी बनना है अन्यथा तो आज नारी के लिए मौकों की कमी नहीं -और क्या विवाह अब परिहार्य नहीं ?

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  6. कहानी बहुत उम्दा है.अच्छा लगा पढ़कर.

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  7. vandana didi
    बहुत सुंदरता से लिखी है कहानी

    sanjay bhaskar

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  8. bahut hi achchhi kahani hai.vaise aajkal ladki wale apni beti ke vishay me sach batana adhik pasand karte hai..

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  9. बढ़िया कहानी थोड़ी बड़ी थी पर अपने अंत तक प्रभावशाली...बधाई

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  10. बहुत सहजता से लिखी गई सुंदर कहानी
    लेकिन धारणाएं ,अपेक्षाएं थोड़ी बदल गई हैं ,अब तो लड़के वाले ही कह देते हैं कि बुनाई सिलाई तो बाज़ार में मिल ही जाती है ,
    लड़की कमाती कितना है ?
    लड़की सुंदर हो ,सुशील हो ,अच्छा कमाती हो लेकिन अपनी बात न कहे ,माने वही जो ससुराल वालों का आदेश हो ,अपने मन की ज़िंदगी न जिये वैसे जिये जैसा पति चाहता है ,लेकिन घर धन धान्य से भरने की क्षमता रखती हो.
    अधिकतर घरों की यही कहानी है
    लेकिन इन सब के बीच एक अच्छी बात ये है कि युवा पीढ़ी की सोच में परिवर्तन आना आरंभ हो चुका है और हम उस का स्वागत करते हैं .

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  11. कहानी बहुत अच्छी है और जैदी जी की बात बिलकुल सही है। आजकल सिलाई कढाई को नही नौकरी को प्राथमिकता दी जाती है आभार।

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  12. घिनौने समाज की कडवी सच्चाई. तभी तो "फेयर एंड लवली" जैसे क्रीम बनाने वाले हमे उल्लू बना के करोड़ों में कम रहे हैं!

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  13. बहुत बढ़िया कहानी ......इंसान जो हैं वो उसे ही प्रकट करे तो ज़्यादा बेहतर होता हैं .

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  14. बेटी के विवाह के लिए माता पिता द्वारा बोले जाने वाले झूठ पर प्रहार करती कहानी है....कथानक में कोई नवीनता नहीं दिखाई दी....

    फिर भी कहानी पाठकों को अंत तक बंधने में सफल रही...

    अंतिम पंक्ति ...अब नीरा गयी....का अर्थ स्पष्ट नहीं हुआ..

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  15. वन्दना मैडम,
    बहुत अच्छी प्रस्तुति। नीरा का जाग जाने के बाद का अंदाज हमारा फ़ेवरेट अंदाज है। आज से दस बीस साल पहले कहानी का ऐसा अंत शायद दुखांत माना जाता कि नीरा अविवाहित रह गई, लेकिन आज के समय में एक्दम सही स्टैंड।
    अन्तिम पन्क्ति के बारे में जब अग्रणी ब्लॉगर्स की बात पर गौर नहीं किया आपने, तो हम किस मुंह से कहें, कुछ नहीं कह रहे हैं जी:)

    कहानी बहुत अच्छी लगी, आभार स्वीकार करें।

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  16. ०- धन्यवाद रूपेश जी, पंकज जी, शिखा जी, सानू जी.
    ०- समीर जी, अन्तिम पंक्ति सुधार दी है. ध्यान दिलाने के लिये आभार.
    ०- अरविन्द जी, मध्यमवर्गीय शहरों में आज भी पढाई पूरी होते ही लड़की के ब्याह की चिन्ता की जाती है. तमाम नीराओं का अभीष्ट गृहिणी बनना नहीं है, लेकिन वे कुछ कर ही नहीं पातीं. महानगरीय नारियों के लिये मौकों की कमी नहीं है, छोटे शहरों या कस्बों की लड़कियां तो आज ही वंचित ही हैं. वे केवल उतनी ही पढाई कर पातीं हैं, जितनी उनके शहर में उपलब्ध है.
    ०- धन्यवाद संजय जी, सन्जुक्रान्ति जी, विनोद जी.
    ०- इस्मत, धारणाएं, अपेक्षाएं बदली हैं, लेकिन केवल महानगरों में. छोटे शहरों की धारणाएं यथावत हैं. यहां तो कई बार लड़के वाले लड़की से नौकरी कराना ही नहीं चाहते. उनकी चाहत आज भी पारम्परिक बहू की है, जो कढाई सिलाई न करे, लेकिन इन सब विधाओं में दक्ष ज़रूर हो. इन शहरों में भी कुछ अपवाद हैं, लेकिन अधिकता ऐसे ही लोगों की है जो पुराने ढर्रे पर लड़की देखने जाते हैं. नीरा का विरोध परिवर्तन का ही संकेत है.
    ०- धन्यवाद निर्मला जी, स्तुति जी, देवेश जी, सुरेन्द्र जी, संगीता जी.
    ०- संजय जी, कहाने देर रात को पोस्ट की, उसके बाद अभी सुबह जब लाइट आई तब ब्लॉग पर आई, और देखा कि यहां तो मुझ पर वरिष्ठ्जनों की अवहेलना का आरोप है! अन्तिम पंक्ति तत्काल प्रभाव से दुरुस्त कर दी गई है.

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  17. हाँ , वंदना अब सारी नीरा जाग रही हैं, पहले लड़के दरवाजे से बारात लौटा ले जाते थे किन्तु अब लड़कियाँ भी बारात लौटाने लगी हैं. शराबी घर वाले हुए, आवारा दोस्तों ने बदतमीजी की या फिर फेरों के समय दहेज़ कि मांग बढ़ा दी. ये होना जरूरी है. अब विवाह ऐसी मजबूरी नहीं है कि लड़की को किसी के साथ बांध दिया जाय. सिर्फ इस लिए कि लड़की कि शादी करनी है. मान बाप को भी जागरूक होना होगा. अगर वे अपने बेटे के लिए ऐसी वैसी लड़की से शादी नहीं कर सकते तो लड़की के लिए वर का चुनाव कैसे कर सकते हैं? नीरा का जागना जरूरी है.
    ये अभी भी हो रहा है, लड़की सबको गोरी चिट्टी चाहिए, कमाने वाली भी हो और कुशल हो तो क्या कहने? ये हमारी सोच पर निर्भर करता है कि हम किन शर्तों को मान लेते हैं. वैसे लड़की को हर बार तमाशा बनाने से अच्छा है कि सारी बातें स्पष्ट करके बात की जाय. कोई झूठ या लाग लपेट वाली बातें न हों. तो नीरा जैसी स्थिति नहीं आये.

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  18. एक पढी लिखी लडकी को आज खुद ही जागना होगा नही तो वो खुद अपने भविष्य के लिये जिम्मेदार होगी…………………और फिर इतना पढा लिखा होने का फिर क्या फ़ायदा यदि अपने जीवन के सबसे बडे फ़ैसले को वो खुद ना ले सके……………बेहद सुन्दर कहानी।

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  19. तुम्हारी कहानी ने पड़ोस में रहने वाली 'वीणा दी' की याद दिला दी. ऐसे ही उत्सव का सा माहौल छा जाता था उनके घर..लड़के वाले उनकी खातिरदारी का आनंद उठाते और 'ना' कह कर चलते बनते. कुछेक दिखावों के बाद , वीणा दी इतनी परेशान हो गयी थीं कि कपड़े बदलने को तैयार ही नहीं होतीं..उनके मन की अवस्था बिलकुल,नीरा से मिलती जुलती सी लगी.

    यही प्रार्थना है ईश्वर से कि नीरा की तरह ही भारत की हर लड़की जाग जाए, और अपने आत्मसम्मान की रक्षा करे.

    तुम्हारी कहानी इतने प्रवाह में है ,एक सांस में पढने लायक और लोग लम्बी होने की शिकायत कर रहें हैं...फिर मेरी कहानियों के बारे में क्या बोलेंगे :) :)

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  20. आजकल हर घर में ऐसी नीरा मिल जायेगी ..

    क्या कहें ..हम तो खुद अपने पतिदेव को बोल दिए थे कि हमको कुछ नहीं आता है ...
    " खाली ब्लेक बोर्ड पर अपने मन का लिखना आसान होता है " पतिदेव का जवाब था
    ...मतलब ...लड़के (पुरुष ) भी बदल रहे हैं ...

    बदलते समय की कथा कहती कहानी अच्छी लगी ...

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  21. वन्दना जी,
    हम तो ऐसे ही आरोप लगाते रहेंगे, यहां ब्लॉगजगत में भी ऐसे कमेंट न किये तो कहां समाचार पत्र या पत्रिकाओं में करेंगे जहां ऐसी प्रतिक्रियाओं को कूड़े की टोकरी में फ़ेंक दिया जाये? यहीं तो मौका मिलता है सीनियर्स की टांग खिचाई करने का:)

    आरोप कतई नहीं था जी, उजली चादर में हल्का धब्बा भी खटकता है। ध्यान दिलाने की कोशिश थी बस। तरीक हमारा ऐसा ही है उल्टा सीधा सा, कृपया अन्यथा न लें।
    आभार।
    संजय।

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  22. सत्य है । इस अन्धकार से तो जागना श्रेयस्कर है ।

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  23. आस-पास घटी की सी कहानी लगी.. कचौड़ी वाले झूठ और स्वेटर के फंदों ने और भी सच के करीब लाया.. ऐसे ही और भी नीरों का जागना जरूरी है.. देखकर अच्छा लगा कि आप भी कहानी लिखती हैं. या शायद मैंने ही पहली बार देखा हो तो माफ़ करें..

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  24. पर एक कमी कहली मुझे भी.. जो तस्वीर आपने लगाई है वो कम से कम इस कहानी से मेल नहीं खाती.. बिलकुल भी नहीं.. और आप समझ सकती हैं कि एक कहानी को अच्छे से व्यक्त करने में चित्र कितना सहायक होते हैं.. किसी हिन्दुस्तानी सांवली लड़की की पेंटिंग लगानी थी..

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  25. दीपक जी, आप ठीक कह रहे हैं, तस्वीर सांवली लड़की की होनी चाहिए थी. मैने बहुत ढूंढी मुझे मिली ही नहीं.

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  26. कुछ राहत ही नज़र आ रही थी वहां भी.....शायद उम्र पाया दामाद उन्हें भी पसंद नहीं था.
    पापा और माँ को शायद शर्मिंदा किया था नीरा ने लेकिन भविष्य में लगने वाली अपनी उस नुमाइश का अंत कर दिया
    har ladki neera bankar hi sukhi rah sakti hai ,kahani suni thi rewa me aaj padhi phir se to achchha laga .

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  27. हक्के-बक्के से लड़के वाले एक-दूसरे की तरफ देख रहे थे और पापा? क्रोध नहीं था उनके चेहरे पर......कुछ राहत ही नज़र आ रही थी वहां भी.....शायद उम्र पाया दामाद उन्हें भी पसंद नहीं था.
    पापा और माँ को शायद शर्मिंदा किया था नीरा ने लेकिन भविष्य में लगने वाली अपनी उस नुमाइश का अंत कर दिया
    था उसने , जो लड़के वालों के इंकार के बाद नीरा को शर्मिंदा करती थी........लेकिन अब नहीं. अब नीरा जाग गई है.


    sukoon hua

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  28. बढ़िया,
    जीवन के छोटे सुख और बड़े दुखों को खोलती हुई. एक ही सांस में पढ़ा है. लगा कि आप कहानी में प्रतीकों के माध्यम से बेड़ियों को उलट देने का आह्वान करती हैं. शुभकामनाएं.

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  29. बहुत अच्छी कहानी है.
    नीरा ने हिम्मत का काम किया जो सब सच बताया.
    हर लडकी में ऐसी हिम्मत की ही ज़रूरत है.बदलते समय में रीती रिवाजों में भी बदलाव की आवश्यकता हैं .

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  30. @Vandana ji ye chitr dekhkar main chaunki ki mera purana photo kahan se mil gya aap ko..ab ise main save kar rahi hun..:)

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  31. अलपना जी, आपने जब तस्वीर की ओर याद दिलाया तो मेरा भी ध्यान गया, कि इस तस्वीर और आपमें आज भी गज़ब का साम्य है. चलिये, इस तस्वीर के बहाने आप मुझे याद तो करेंगीं :)

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  32. आखिर मुझे भी लौटकर तस्वीर देखनी ही पड़ गयी -बेहद खूबसूरत ,मगर इस साम्यता का राज क्या है?

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  33. अरविन्द जी कहीं ये तस्वीर सचमुच ही अल्पना जी की तो नहीं? लगता है, अब उनकी असली तस्वीर देखनी ही पड़ेगी. :)

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  34. वंदना जी.....
    ’नीरा’ओं को जागना ही होगा.
    आपकी कहानी दिल को छू गई.

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  35. वंदना जी .....आपकी कहानी पढ़ कर उस फिल्म की याद आ गयी .....
    जिसमे प्रेमी अपनी प्रेमिका को मां से मिलवाने ले जाता है ...माँ पूछती है - बेटी खाना बनाना आता है .....?
    बेटा- हाँ हाँ मां ये खाना बहुत बढ़िया बनाती है ...
    मां उसे किचेन मेंलेजाकर ऑमलेट बनाने के लिए कहती है ...
    लड़की परेशां ....
    लड़का इशारों से उसे बताता है ...क्या क्या ...किस किस तरह करना है ....
    लड़की समझ नहीं पाती ...
    लड़का तंग आकर हाथ सर पे दे मारता है ...
    इसी के साथ ही लड़की भी अंडे को सर पे दे मारती है .....( वो समझती है शायद लड़का इशारे से यही करने को कह रहा है ...)
    आपकी कहानी बताती है कि माँ- बाप को बेटी का असली रूप ही दिखाना चाहिए ...ताकि आगे जाकर उसे परेशानी न हो .....!!

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  36. Interesting! You have liberated her but what next? Again back to square one. She will have to marry at last and all the process of pre marriage activities will also go as usual. Or do you think she will remain unmarried?

    I know she will marry at last, then what for this liberation. At least in Indian society this liberation has got no meaning. If she remains unmarried then the repercussion will be felt by others and society will ask question about her unmarried status. There will be pressure from her younger sisters. Can she be able to live in the society that always ask barrage of questions and takes pleasure in others trouble or problems or bad situations? And she will have to dance on nothing as many follow the course.


    No doubt the flow is effortless and bears the stamp of Vandana. Wreath as many garlands as possible, Godessess Saraswati will always be with you.

    Thanks

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  37. सजीव और सुन्दर भाषा और भावपूर्ण, प्रवाहयुक्त
    कहानी. अच्छी लगी. आभार.

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  38. kahani sachchai ke bahut kareeb lagi.marmsparshi bhi hai.Neera ka jagna samasya ka samadhan ban jata to yah kahani ek sukti ban sakti thi.har kisi ko hal mil jata.abhi aap sarahneey hai fir aap poojneey ho jati aur sare kah uthte vaah vandna ji ne kamaa ka samadhaan diya. khair mujhe jo uchit laga likh diya.badhai!!

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  39. ब्लॉग पर आने, और अपना अमूल्य मत प्रदान करने के लिये आप सबकी आभारी हूं. स्नेह बनाये रखें.

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  40. zaroori hai ki har ladki Neera bane...

    Ek sundar shuruaat !

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  41. कहानी सामयिक और मर्मस्पर्शी है. मुझे इसकी लम्बाई का पता ही नहीं चला. शुरू कब हुई और खत्म कब, यह मालूम नहीं हुआ.
    लेकिन अंत! इस अंत ने कई सवाल उठा दिए मन में. अंत और बेहतर हो सकता था. सुखान्त या दुखांत जो भी होता, अंत रोचक हो सकता था. मुझे यह कहने का अधिकार दीजिए कि आपने अंत पर मेहनत नहीं की.
    बहुत देर से आया हूँ और आलोचना कर रहा हूँ, आपको पसंद नहीं आया होगा लेकिन मैं अपनी फितरत से मजबूर हूँ. लड़के की उम्र ज्यादा थी, यह तो घर वालों को पता था ही. फिर घर वाले भी उसकी बेबाकी पर सुकून में थे, क्या मतलब?
    समय बदल रहा है, लडकियाँ बरात वापस भिजवा दे रही हैं, अधेड़ और खूसट दूल्हे मुहल्ले और गाँव वालों द्वारा ही भगा दिए जा रहे हैं, फिर नीरा की जो उम्र आपने लिखी, वो भी ऐसी नहीं कि घर वाले घुटन महसूस करें. अब तो इससे भी ज्यादा उम्र में शादियाँ हो रही हैं.
    वन्दना जी, मैं कमेन्ट बॉक्स में, इस कथा पर केवल अपने विचार प्रकट कर रहा हूँ, आपको दुःख पहुँचाने का मैं रंच मात्र भी नहीं सोच सकता. यदि कुछ गलत लगा हो तो क्षमा चाहूँगा.

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  42. बहुत-बहुत धन्यवाद सर्वत साहब. आलोचना ही लेखन की गुण्वत्ता को सुधारती है, इसमें नाराज़गी कैसी?
    हो सकता है, कि कोई और लेखक इस कहानी का अन्त किसी और ढंग से करता, लेकिन मध्यमवर्गीय शहर की लड़की, जो अब तक नुमाइश का सामान बन रही थी, ने विरोध किया, "ये समय बदल रहा है", इस बात का ही संकेत है. ये बारात वापस भिजवाने के पहले की प्रक्रिया है, जहां नीरा ने पहले कदम पर ही लड़के वालों को भगा दिया है.
    आप शायद छोटे शहरों की मानसिकता से परिचित नहीं है. इन शहरों में लड़की की उम्र २६ साल होना मायने रखता है. जो लड़कियां इन जगहों से निकल कर बाहर पढने चली गईं, उनकी अलग बात है.
    कुछ जगहों पर निराशा हाथ लाने के बाद लड़के की उम्र से भी मां-बाप मजबूरन समझौता कर लेते हैं,
    लेकिन मन ही मन खुद को इस बात के लिये दोषी ठहराते रहते हैं, यही वजह है कि नीरा का बोलना उसके अभिभावकों को सुकून दे गया, शायद वे खुद भी बहुत संतुष्ट नहीं थे इस रिश्ते से, लेकिन हाथ आया रिश्ता छोड़ना भी नहीं चाहते थे, ऐसे में नीरा का बोलना उन्हें आपत्तिजनक नहीं लगा.
    और हां सर्वत साहब, मुझे बिल्कुल दुख नहीं हुआ, बल्कि बहुत अच्छा लगा, आइन्दा भी उम्मीद करूंगी आपकी ऐसी ही बेबाक आलोचना/समालोचना की. आभार.

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  43. इस कहानी मैं एक अच्छी बहू मै लडके वाले क्या-क्या गुण देखते है,बिलकुल सही लिखा है.भले ही आजकल कुछ लोगों के सोच मै बदलाव आया हो..लेकिन इस बदली हुई सोच के साथ साथ ९९ प्रतिशत लोग अभी भी एक बहू मै वे सभी गुण-गोरा रंग,सुंदर,हमेशा नज़रें झुकाये रहना,अपनी सोच अपने तक ही सीमित रखना.आदि आदि.चाहते है..हां इन गुणों के साथ-साथ बहू आधुनिक माहौल मै भी एड्जस्ट करने वाली हो,कमाऊ भी हो तो कहना क्या...जब तक लडकियां अपने अधिकारों को पाने के लिये स्वयं पहल नही करेंगी ,कोई कुछ भी नही कर सकता..बहुत बढिया कहानी है..

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  44. बहुत बहुत धन्यवाद प्रियदर्शिनी. एक महीने बाद हो कहानी पढने...याद रखना.

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  45. बहुत सुंदर नीरा हर लडकी अगर तुम्हारे जेसी बने तो भारत मै आधे झगडे ही खत्म हो जाये

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  46. आपकी यह कहानी तो बिना पढ़े ही रह गई थी |
    कहानी तो बहुत अच्छी लिखी है आज नीरा का रूप ही यत्र तत्र दिखाई देता है अब परिवर्तन हो रहा है |लगता है अब लडको की ये हालत होगी ?

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  47. " नीरा जाग गई " । अच्छी लगी । बधाई ।
    शुभकामनाएं ।
    - आशुतोष मिश्र , रायपुर

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  48. क्या बात है बढ़िया । बस इससे मिलती जुलती कविता एक दो दिन मे लगाने ही जा रहा हूँ । इसका लिंक दे दूंगा ।

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